सोमवार, 20 जुलाई 2020

डार्क सर्किल

स्त्री की सुंदरता देखनी है
उसकी आँखों में नही
आँखों के नीचे बने काले घेरों में देखो
ये घेरे इस बात के साक्षी हैं
कि उसकी सुंदरता आरोपित नही है
उसकी सुंदरता रात रात में अपने बच्चे को लोरी सुनाने और उसका बिस्तर बदलने से आई है
उसकी सुंदरता किसी को आंखों में बसाने से आई है
वे लोग बहुत सौभाग्यशाली होते हैं
जिन्हें एक स्त्री नींद के बदले अपने नयनों में जगह देती है
उसकी सुंदरता गृहस्थी के पाट में पिसकर आई है
ये आँख के नीचे घिरे काले बादल
सींचते हैं हर व्यक्ति को
क्या आपने भी इन घेरों में स्नान किया है?
इन्हें प्रणाम करिए
ये नीलकंठ से भी आदरणीय हैं
सत्य, शिव और सुंदर है
इन्होंने रात को पीकर
सुबह की है

शनिवार, 18 जुलाई 2020

कुछ सच्ची कुछ झूठी : हमारी आपकी कहानी


'कभी हसरत थी आसमां छूने की अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की',ओपनिंग लाइन है डॉ. कुमारेंद्र सिंह सेंगर आत्मकथा  'कुछ सच्ची और कुछ झूठी की'   शुरुआती पंक्तियों से ही पता चल जाता है कि लेखक ठहराव वाले मिज़ाज का  व्यक्ति नहीं है।   अपनी आत्मकथा के बारे में कुमारेंद्र लिखते हैं कि  इसकी कल्पना उन्होंने तब  की थी जब वह बचपन में महापुरुषों की जीवनी/संस्मरण पढ़ते थे और उनके मन में ख्याल आता था कभी ऐसी ही उनकी जीवनी या संस्मरण लोग पढ़ेंगे   एक  तरीके से उनकी आत्मकथा, उनके द्वारा बचपन में देखे गए स्वप्न के  यथार्थ में परिणीति है।   वैसे तो पुस्तक का नाम 'कुछ सच्ची कुछ झूठीहै किंतु कुमारेंद्र शुरू में ही स्पष्ट कर देते हैं सब कुछ  सच्ची है कुछ भी झूठी नहीं है। वह कहते हैं कि ये जो झूठी बात है दरअसल वह सत्य ही है पर किसी और तरीके से कही गयी बात है। शायद समाज के मापदंड और कुमारेन्द्र की छवि उस सत्य  के अनुरूप नही है इसलिये कुछ बातों को झूठ के खोल में प्रस्तुत किया गया है।  

यह  लेखक की ईमानदारी है जो पहले ही स्वीकार कर लेता है कि झूठ झूठ नही है। इस पुस्तक को कुल अठहत्तर शीर्षकों  में समेटा गया है।  यह सारे शीर्षक कुमारेंद्र के जीवन से जुड़े हुए वे  मोड़ हैं जहाँ  पर उन्होंने जीवन के महत्वपूर्ण हिस्सों को बिताया    है।   कुछ शीर्षक  उनके जीवन दर्शन से जुड़े हुए हैं जो चालीस वर्ष  के अनुभवों से प्राप्त हुए। कुमारेन्द्र लिखते हैं कोई इंसान संपूर्ण नहीं होता, कोई अपने में परिपूर्ण नहीं होता, खुद की कमियाँ  जान कर खुद को सुधारने का प्रयास करते  रहना  चाहिए जो अपने हैं उन्हें अपने से दूर ना होने देने की कोशिश  इसी जिंदगी में करना है क्योंकि यह जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। यही लेखक की संवेदनशीलता और फलसफा दोनों है।  

अमूमन आत्मकथा में लेखक वह सभी  बातें लिखता है जो उसके जीवन में दबी  छुपी हुई होती खासतौर से व्यक्तिगत जीवन में आए उतार-चढ़ाव के बारे में।   कुमारेंद्र स्वयं लिखते हैं कि   बात आत्मकथा की हो तो लोगों की यह जानने की इच्छा रहती है लेखक के जीवन की व्यक्तिगत संबंधों को सार्वजनिक किया जाए किंतु जब लेखक यानी कुमारेंद्र  के जीवन में घटित प्रेम कहानियों की बात हो  थोड़ी निराशा होती है।   उन्होंने यह स्वीकार तो किया है कि  उनके प्रेम संबंध ढेर सारे लोगों से रहे हैं पर किसी विशेष घटना किसी विशेष व्यक्ति का संदर्भ देने से लेखक ने स्वयं को बचा लिया शायद यहाँ सोशल स्टिग्मा आड़े आ गया।   यहाँ पर प्रेम कहानियों की जगह पाठक को प्रेम के दर्शन से रूबरू होना पड़ता है।   

कुमारेंद्र अपनी आत्मकथा में जब अपने बचपन  की बात कर रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि वह सभी के बचपन की बात कर रहे हो।  पहले दिन स्कूल जाने की बात, इस स्कूल में शिक्षकों की बात दोस्तों की बात खेलों की बात खिलौनों की बात सारी बातें ऐसी लगती हैं कि वह हमारी कहानी हो और उसे तुम्हारे अपनी आत्मकथा के माध्यम से लिख रहे हो दूरदर्शन का प्रारंभिक दौर  का वर्णन कुमारेंद्र ने बड़ी खूबसूरती के साथ अपनी कथा में किया।   ऐसे ही एक कहानी साइकिल के बारे में है । कुमारेन्द्र  अपने अपने दो दोस्तों के साथ  चार आने  किराए पर साइकिल   पूरे दिन उसे चलाते रहे फिर शाम को घर ले गए।   दोस्तों ने साइकिल को अपने पास रखने से मना कर दिया(कितने चालाक दोस्तों के साथ दोस्ती रही ) तो वह  उसे अपने घर ले गए और छत पर छिपा दिया ।   शाम को साइकिल वाला कुमारेंद्र के घर पहुँच गया तो उन्हें  लगा कि  पिताजी अब पिटाई करेंगे पर जब उन्होंने सच  सच बात पिताजी को बताई  तो पिताजी ने कुमारेन्द्र  से कुछ नहीं कहा।   बहुत सारे बच्चे झूठ बोलकर किसी समस्या से बचने का प्रयास करते हैं  पर कुमारेंद्र सच बोलकर समस्याओं को सुलझाने की कोशिश बचपन से ही करने लगे।    ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, नानी के गांव की बात, क्रिकेट की बात, लोकल फोन  से पहले पहली बार बात  करना, पहली बार  रोटी बनाने की बात और कुछ बहुत कोमल बातें हैं जैसे अपने साथ पढ़ने वाली लड़की जो कि गाने में बहुत अच्छी थी उसकी चर्चा कुमारेन्द्र अत्यंत सतर्कता से करते हैं ।  इसके साथ-साथ  खिड़की वाले भूत की बातें, रक्तदान की बातें और पहली बार दुनाली चलाने वाली बात का उल्लेख उन्होंने विशेष तौर पर किया है।   आज हम कुमारेंद्र का एक यूट्यूब चैनल देखते हैं जो कि ‘दुनाली’ के नाम पर है तो यह लगता है उन्हें इसकी प्रेरणा उन्हें पहली बार  फायर किए हुए दुनाली से मिली।  

कुमारेन्द्र  की आत्मकथा पढ़ते हुए  हुए उनके रूबरू होने का मौका मिलता है चाहे वह उनका दबंग रूप हो या उनके कोमल मनोभाव हों  अथवा  गैर बराबरी के विरुद्ध मन में आए आक्रोश की बात, कुमारेंद्र हर समय न्याय के पक्ष में ही खड़े मिले ।   कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने के लिए  कुमारेंद्र ने 1998 में  अजन्मी  बेटियों को बचाने के लिए अभियान छेड़ा ।  वह उस समय  प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते थे, बिना किसी की मदद के  खुद इस पर काम करने का फैसला किया    कोई फंडिंग नहीं, कोई प्रशासनिक सहयोग नहीं  पर  इन्होंने  अपना राष्ट्रव्यापी अभियान  बिटोली’  शुरू कर दिया  और आज उसी को व्यापक जनसमर्थन  मिलता हम देख सकते हैं।  आत्मकथा के बीच- बीच में  लेखक के सुकोमल संवेदनाओं के भी चित्र हमें दिखते हैं  जैसे अगस्त के रविवार को आने वाले फोन को लेकर कुमारेंद्र की प्रतीक्षा आज भी निरंतर जारी है।   कोई कितना बड़ा भी लेखक  हो जाए लेकिन पहली बार उसके लेखन धर्म को स्वीकृति मिलना और साथ ही  उसका सम्मान होना उसे कभी नहीं भूलता।   

कुमारेंद्र के जीवन में  दो ऐसी घटनाएं हैं जो कि उनके  मजबूत इच्छाशक्ति से परिचित कराती है ।  पहला उनके  पिताजी का देहांत और दूसरा कुमारेंद्र की ट्रेन के साथ दुर्घटना ।   पिता के आदर्शों को मन में बसाए  और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लेकर  कुमारेंद्र आज भी निरंतर कार्यरत हैं।   वह कहते हैं कि जब आज भी वह आंखें बंद करते हैं तो अपने आसपास अपने पिता का होना पाते हैं, दुविधा के समय वह अपने पिताजी को याद करते हैं सोचते हैं कि पिताजी  होते तो ऐसा करते, किंतु  अब बस यादें है,  कुछ गुदगुदाती, कुछ हँसातीं  तो कुछ  आंखें नम कर देती हैं ।   दूसरी घटना दुर्घटना से जुड़ी हुई है।   ऑपरेशन थिएटर में कटे पैर को लगाने की बात सुनकर  कुमारेंद्र अंदर तक हिल  जाते हैं लेकिन ऐसे वक्त पर उनका मित्र रवि चट्टान  बन कर उनके साथ खड़ा रहता है।  कुमारेन्द्र अपने मित्र के लिए विह्वल हैं वह कहते हैं, काश  ऐसी दोस्ती हर जन्म मिले और सभी को मिले।  दुर्घटना के बारे में बताते हुए कुमारेंद्र कहते हैं  कि चंद पलों की अपनी विषम स्थिति में ऊपर से गुजरती ट्रेन की गति से भी तेज गति से न जाने क्या-क्या सोच लिया।    सही बात है एक एथलीट्स जो कभी मैदान पर दस हजार  मीटर की दूरी को हंसते-हंसते नाप लेता था आज एलिम्को में दो स्टील छड़ों  के सहारे चलने का अभ्यास कर रहा है ।    लेकिन यहीं पर  कुमारेंद्र पूरी जिजीविषा और मजबूत इरादे के साथ  सामने आते हैं और वह फिर जिंदगी को दुबारा और बेहतर ढंग से जीने के लिए तैयार खड़े होते हैं।   

आत्मकथा में लेखन की चर्चा काफी रोचकता लिए हुए है ।   दस  वर्ष की उम्र से  कविता लेखन और उसके  प्रकाशन के साथ-साथ कुमारेंद्र के अंदर का लेखक समय के साथ  युवा होता चला गया, परिपक्व होता चला गया।   कुमारेंद्र भारी-भरकम रीतिकालीन  शब्दावली से दूरी बनाकर आम बोलचाल की भाषा में कहानी कविता ग़ज़ल लिखने लगे।   वह लिखते हैं कि छपास के चलते ही  ब्लॉगर बन गये।    आज ब्लॉगजगत ‘रायटोक्रेट कुमारेन्द्र’  किसी परिचय का मोहताज नही है।    लगभग सभी विधाओं में स्वाभाविक अधिकारपूर्ण लेखन करते हुए विभिन्न विषयों पर लगभग लेखक की  दो दर्जन  पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी ।  कुमारेंद्र  फोटोग्राफी, पेंटिंग, स्केचिंग  का भी शौक रखते हैं।    इन्होंने सोशल मीडिया में व्यंग्य की अत्यंत लोकप्रिय लघुकथन  को भी विकसित किया है जिसे आप ‘छीछालेदर रस’  के नाम से जानते हैं।   

 कुमारेंद्र का जीवन संघर्ष का पर्याय  रहा है ।   परिवार को साथ लेकर (यहां परिवार का तात्पर्य पति पत्नी से नहीं बल्कि पिता के बाद संपूर्ण पारिवारिक सदस्य ) पारिवारिक सदस्यों को सहारा देना, पढ़ाना, आगे बढ़ाना, खुद दो-दो विषयों में पीएचडी करना, अपने आप में संघर्ष की पराकाष्ठा  को परिलक्षित करता है।    इन सबके बावजूद कुमारेंद्र  ने  गंभीर मुद्रा को कभी वरीयता नहीं दी बल्कि जिंदगी को मौज मस्ती के अंदाज में जीते रहे।    अपनी आत्मकथा में कुमारेंद्र एक बात का खास तौर पर उल्लेख करते हैं जब  वह सीएसडीएस से जुड़े तो  इसकी कार्यप्रणाली के दोहरे मापदंड के बारे में  कुमारेंद्र ने जब  कर्ता-धर्ताओं  से चर्चा की परिणामस्वरूप उन्होंने  संस्था से कुमारेंद्र को टर्मिनेट कर दिया।   पूरा प्रकरण यह बताता है कि चैरिटी, अध्ययन के नाम पर किस तरह के नरेटिव सेट किये जाने का काम होता है और मनी मोब्लाइजेशन का काम तो साइड में चलता ही रहता है ।  इन सब के बावजूद कुमारेंद्र की जिंदादिली में कोई अंतर नहीं आया।    अपने कथा का आखरी पन्ना वह अपने यारों को समर्पित करते हैं और कहते हैं, ‘यात्रा में अच्छे बुरे कड़वे मीठे अनुभवों का स्वाद चखने को मिला ।   सपनों का बनना बिगड़ना रहा।    वास्तविकता और कल्पना की सत्यता का आभास होता रहा।    कई बार जीवन सरल और जाना पहचाना लगा तो कई बार अबूझ पहेली की तरह सामने आकर खड़ा हो गया लेकिन अंधेरों के सामने दिखने पर उसको अपने भीतर समेट सब कुछ रोशनी में बदल देने की शक्ति भी प्रस्फुटित होने  लगती।    ऐसा क्यों होता? किसके कारण होता? ना जाने कितने सवालों के दोराहे  तिराहे चौराहे से गुजरते हुए यदि कोई जीवन शक्ति सदा साथ रहे तो वह हमारे दोस्तों की शक्ति।‘    पुराने दोस्तों की दोस्ती और नए मित्रों का संग,  सभी  नए पुराने रंगों को मिलाकर जीवन एक खूबसूरत कोलाज बनाने की कोशिश की गयी है।   ईश्वर करे   इस कोलाज के रंग हर दिन गहरे होते जायें।    हम उम्मीद करेंगे कि कुमारेंद्र अपनी आगामी संस्मरण या आत्मकथ्य पुस्तक में उन तमाम रंगों का उद्घाटन करेंगे जो अभी श्वेत प्रकाश में सप्तरंग जैसे छुपे हैं ।   

शुभकामनाओं के साथ
डॉ पवन विजय



मंगलवार, 30 जून 2020

पारले जी : एक विरासत




मैं चाहता हूँ कि 
'पारले जी' कभी न बदले
वही पैकेजिंग
वही स्वाद
वही दाम
(सरकार सब्सिडी दे इसके लिए)
न उसके खाने में हो
कोई इनोवेशन

चाय में डुबा डुबा,
या चाय का हलवा बना
या पानी के साथ
यात्रा में, पिकनिक पर,
नाश्ते में, शाम को कविता सुनते
या स्टडी टेबल पर 
ठीक वैसे जैसे हम बचपन में इसे खाते थे
सायकल चलाते हुए,
रेस लगाते हुए,
स्कूल पीरियड में अध्यापक की नज़र बचाकर
बिस्कुट खाने के रिस्क का आनंद 
नही बदलना चाहिए

दफ़्तर से घर लौटे पिता को  
चाय के साथ दो बिस्कुट देती माँ
सुकून भी परोसती है
बिना दांतों वाली दादी बताती है
बिस्कुट पिया कैसे जाता है

हॉस्टल हो या परिवार
बिना 'पारले जी' के 
सम्पूर्ण कहाँ होता है

'पारले जी' कोई उत्पाद नही
यह एक संस्कृति है
थाती है विरासत है

बचपन की अल्हड़ता 
कैशोर्य के उत्सव 
कॉलेज की टी पार्टीज 
उसी संस्कृति के ही स्वरूप हैं

मैं चाहता हूँ कि
यह थाती अनवरत बनी रहे
इस संस्कृति का, विरासत का 
हस्तांतरण हो
पीढ़ी दर पीढ़ी
बिना किसी बदलाव के
क्योंकि,
कुछ चीजे कभी नही बदलनी चाहिए
जैसे धरती, हवा, पानी, और
'पारले जी'

...डॉ. पवन विजय

शुक्रवार, 15 मई 2020

दुःखों की वसीयत

दुःखों की वसीयत

जब बंट रहे थे 
खेत खलिहान दुआर मोहार
गोरु बछेरु बरतन भांड़े 
ताल तलैया बाग बगीचे

जब बंट रहे थे
हाथी घोड़े जर जमीन
लाल मोहर गिन्नी  अशर्फी रुपिया 
यहां तक कि जब हुआ
ठाकुर जी का बंटवारा
कितने दिन किसके यहां रहेंगे
जब इस बात को भी तय किया गया कि
बाबा की बुढ़ौती किसके यहां 
कितने महीने में कटेगी
तब भी मैं चुप बैठा था

आखिर सभी अपने अपने हिस्से लेकर
रखने संभालने का जतन करने लगे
डंड़वारें डाली जाने लगीं
खूंटे गाड़े जाने लगे
बरतनों की गिनाई शुरू हो गयी
तब भी घुटनों पर कुहनियां टिकाए
मैं चुप था

सामान अंदर हो गए
बालकों को भी बता दिया गया
अपना पराया क्या है
दरवाजों के अंदर से सिटकनी दे दी गयी
जोड़ घटाव का दौर जारी था 
लिस्ट मिलाई जा रही थी

लाई खाते रस पीते बही देखते  
अंत में एक पंच ने आवाज लगाई
शायद मेरी बारी आई है
पर अब बचा क्या है
सब तो बंट गया है
पंच मुझसे मुखातिब होकर बोला
तुम्हारे तुम्हे वसीयत में दुःख मिला है

जब एक चम्मच के लिए किए जाएंगे 
लज्जित माँ बाप
एक सूत जमीन के लिए तारे जाएंगे
पुरखे देवता थान पवान
जरा सी बात पर तार तार होंगी
परंपराएं मूल्य प्रतिमान 
तो उनसे उत्पन्न दुःखों के आकाश की वसीयत
तुम्हारे नाम की गयी है

तुम्हे  दिया गया है पूर्वजों की
आशाओं अभिलाषाओं का कोष

वे दुःख जिन पर गीत बने
वे दुःख जिन्हें पीढ़ी वहन करती आई है
वे दुःख जिन्हें देवता भी धारण न कर सके
उन दुःखो की थाती तुम्हे मिली है

यह कह पंच उठ गया 

मैं दुःखों के वसीयत की पोटली खोलने लगा

...पवन विजय

बुधवार, 13 मई 2020

हर कोई अपने घर लौटना चाहता है


जब जीवन की थकन
उदासियों के बोझ 
तोड़ने लगते हैं कंधे 
तो लगता है लौट जाएं अपने घर
जहां जीवन से भरी गेहूँ की बालियाँ
अब भी चैता गाती होंगी
नेह छोह के रंग अभी भी छपे होंगे
फागुन की दीवार पर
असाढ़ के भीगे दिन
सावन को गीत गाने आमंत्रित करते होंगे
भादों झरता होगा दालान की ओरी से
अब भी राह टेरती माँ
उसे देखते ही दूध भात लेकर आएगी
बाबा की आश्वस्ति भरी आंखें
मानस के स्वर
लालटेम की टिमटिमाती लौ
निरबंसियों के मटियारे गीत
सभी तो यथावत होंगे
बड़े घर का ऊंचा दरवाजा
वहीं कहीं देहरी पर दिया अब भी जल रहा होगा
जिसे बाल कर छोड़ आये थे
फलों से लदे बाग
जल से लहलहाता ताल
पनघट की रौनक
पकी फसलों वाले खेत
अन्न से भरे बखार
सब के सब समय की छीजन से अछूते होंगे

गांव कभी नही भूलता अपने बच्चों को
चौपालों में हर रोज उन्हें याद किया जाता है
जो एक एक कर चले गए होंगे
अभी भी उनके नाम के गीत गाये जाते हैं 

कोलतार की तपती सड़कों पर जलते तलुओं को
कच्चे मेड़ों की ठंडक चाहिए
बस सबको अपना गांव वाला घर चाहिए

हर कोई लौट जाना चाहता है अपने घर को

जैसे घोंसले में लौटती है बया
जैसे सांझ को लौटती हैं गायें
जैसे बाजार से लौटते हैं पिता
जैसे मायके में आती हैं बेटियां
जैसे अयोध्या लौट आये थे राम चौदह बरस बनवास से
जैसे लौट आता है पंछी फिर से जहाज पर आकाश से

पर सनद रहे
लौटना तो बादल बनकर
खेत बनकर
ताल बनकर
फूल बनकर बाग बनकर
गेंहू और धान बनकर
गीत बनकर थाप बनकर
स्नेह और विश्वास बनकर

अगर ऐसे नही  लौट पाए तो
लौटना चले जाने से भी बदतर होगा


गुरुवार, 7 मई 2020

अपना मिलना तय है


शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

सुनना सांध्य गगन तारे से,
सुनना मौसम हरकारे से।
द्वार तुम्हारे जोगी आया,
सुनना उसके इकतारे से।

अहो कामिनी! मिलन यामिनी,
लेकर आता हुआ समय है।।
शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

हर पल तुमसे संवादित हूँ,
तुम्हे सोचकर आह्लादित हूँ।
अर्थ दिए जो मृदुल नेह के,
उसी भाव में अनुवादित हूँ।

अधरों के प्रेमिल सत्रों से,
जीवन का हर कण मधुमय है।।
शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

तनिक नही तुम होना चिंतित
किंचित मैं हूँ जरा विलम्बित
फूल नही वे मुरझा सकते
जिसे किया है हमने सिंचित

अरुणारे नयनों को एक दिन,
मद से भर जाना निश्चय है।।
शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

डॉ. पवन विजय 

(चित्र: गूगल साभार)

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

धर्म और राजनीति, Religion and Politics


धर्म और राजनीति पर चर्चा करने के क्रम में धर्म को  समझना आवश्यक है। धारयति इति धर्मःजो धारण करने योग्य है वही धर्म है । यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या धारण करने योग्य है, देश काल परिस्थितियों में वह भिन्न भिन्न हो सकता है पर भिन्नता का आधार केवल रूपरेखा ही है विषयवस्तु नही। विषय वस्तु तो एक ही है और वह है निरंतर सुख पूर्वक जीना। जो भी धारण करने से निरंतर सुख मिले वही धर्म है। पानी का धर्म है प्यास बुझाना चावल का धर्म है भूख मिटाना ठीक उसी तरह मानव का धर्म है निरंतर सुख पूर्वक जीना।मानव समाज में सुखी होने के लिए अभय की आवश्यकता होती है यह अभय भौतिक वस्तुओ की उपलब्धता, आपसी सम्बन्ध और समझ पर आधारित होती है। दुनिया के सारे तौर तरीके इसी सुख  की खोज और खोजने के बाद उस सुख को बनाये रखने के क्रम में होते हैं। एक चोर भी चोरी सुखी होने के लिए करता है जिस दिन उसे समझ में आयेगा कि चोरी करके वह अभय जीवन नही जी सकता  वह चोरी करना छोड़ देगा जैसा कि डाकू रत्नाकर या अंगुलिमाल ने किया था । इसलिए भारतीय परम्परा में ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत चित से प्राप्त आनंद ही मोक्ष है ईश्वर की प्राप्ति है। उस आनंद को व्यक्तिवाचक बनाकर उसे  पाने के लिए ढेर सारे लोगों अपने अनुभव को आधार बनाकर रास्ते बनाये जिसे हम सामान्यतः आज धर्म के रूप में परिभाषित करते हैं, मसलन इन बाबाजी का रास्ता, उन बाबाजी के मार्ग, मसीहों के बताये धर्म वगैरह।  व्यक्ति के अनुभव के आधार पर मार्ग चुनने के खतरे भी बहुत हैं इनके पर्याप्त परीक्षण की आवश्यकता है जिस पर चर्चा हो सकती है  लेकिन यह बात तो प्रामाणिक  है कि धर्म सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। राज्य का अस्तित्व भी उसे सुख को सुनिश्चित करने के लिए हुआ है अब दोनों एक दूसरे से अलग नही हो सकते। राज्य धर्म से निरपेक्ष कैसे हो सकता है? धर्म के निहितार्थ कर्तव्यों के निर्वहन में है, स्वधर्मे निधनं श्रेयः  अर्थात अपने कर्तव्य पालन में मरना श्रेयस्कर है। राजा कर्तव्य पालन से विमुख कैसे हो सकता है? नही हो सकता है? राज्य प्रमुख  का धर्म,  कोई पंथ विशेष नही बल्कि उसकी जनता के प्रति जवाबदेही है। आज सविधान में  मूल कर्तव्यों की व्यवस्था है। यही कर्तव्य ही तो धर्म है।

धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत से संकट वर्तमान समाज में हमे देखने को मिलते  है लेकिन उत्तर बहुत सरल है जब तुलसी बाबा कहते हैं, ‘परहित सरिस धरम नही भाई , परपीड़ा सम नही अधमाईतो इसी एक पंक्ति में सारा निचोड़ आ जाता है, या जब वेद उद्घोष करते हैं कि आत्मवत् सर्वभूतेषु  यस्य पश्यति सह पंडितःतो भी धर्म स्पष्ट  हो जाता है कि सभी प्राणियों में मैं स्वयं को देखता हूँ सभी मेरे जैसे हैं जिस बात से मुझे कष्ट होता है उससे दूसरों को भी तकलीफ होती होगी। आत्मन प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेतअपने से प्रतिकूल कर्मों को नहीं करना धर्म है। जिन स्मृतियों  की रुढियों को लेकर इतनी आलोचनाएँ  होती हैं उन्ही में धर्म की इतनी सुंदर परिभाषा दी गयी है उतनी आजतक मैंने किसी ग्रन्थ में नही देखी,
 धृति क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह
धी विद्यासत्य्माक्रोधो दशमेकम धर्म लक्षणं
धर्म की इस परिभाषा में आप बताइए कि क्या गलत है और किसे इसका पालन नही करना चाहिए या इसमें क्या साम्प्रादायिक है ? अभी केन्द्रीय विद्यालयों में असतो माँ सद्गमय  को हटाने को लेकर एक याचिका दायर की गयी है जिसमे कहा गया है कि इस वाक्य से धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ गयी  है। यह  बात समझ से परे है कि  असत्य से सत्य की ओर जाने से धर्मनिरपेक्षता कैसे खतरे में आ जाती है।  कल को न्यायालयों में से यतो धर्मः ततो जयःको हटाने की बात की जायेगी परसों सत्यम शिवम् सुन्दरमकी बात आएगी फिर योगक्षेमपर सवाल उठाये जायेंगे, दरअसल मामला कुछ और ही है।

जिसे हमे समझाया गया और पढ़ाया है कि फलाने हमारा धर्म है वह तो है ही नही वह संगठन हो सकता है,  पंथ हो सकता है, सम्प्रदाय हो सकता है, रिलिजन हो सकता है  पर भारतीय सन्दर्भ में वह धर्म नहीं हो सकता है। उन लोगों का मानना है कि हमारे संगठन की बात मानी जाए इसलिए बार बार धर्म से निरपेक्ष होने की बात आती है। लेकिन संगठन और धर्म में फर्क है। धर्म केवल और केवल आपका विवेकयुक्त  कर्तव्य है।

एक बार विश्वामित्र घूमते हुए अकाल क्षेत्र में पहुँच गये। उन्होंने एक व्याध के घर भिक्षा मांगी तो उन्हें कुत्ते की हड्डी कि भिक्षा मिली । भूख से व्याकुल होकर जैसे ही वह उसे खाने को उद्यत हुए  व्याध  ने जब  पूछा कि आपने तो एक संत का  धर्म भ्रष्ट कर दिया। विश्वामित्र बोले संत का धर्म उसका कर्तव्य है । इस समय मेरा धर्म कहता है कि शरीर की रक्षा सर्वोपरी है क्योंकि  शरीर से ही धर्म पालन होगा अतः वह खाद्य सिर्फ देह के पालन करने के लिए था यदि मैं स्वाद के लिए उसे खाता  तो धर्म भ्रष्ट होता। आपका विवेकयुक्त कर्तव्य  आपके धर्म का निर्धारण करता है।
यही भारतीय धर्म की खूबी है जो इसे सनातन और सबकी आवाश्यकताओं  की पूर्ति  करने वाला बनाता  है जो बिना किसी फ्रेम, बिना किसी आकार, और बिना किसी प्रवर्तक के निरंतर सदानीरा की भांति प्रवाहित है। आप शाकाहारी हैं, नही हैं, आप कपडे पहनते हैं, नही पहनते, आप जप करते हैं, नही करते तब भी आप उसी धर्म का हिस्सा हैं। लोकतंत्र यह सहिष्णुता का सर्वोच्च रूप आप यहाँ पर पाते हैं जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा कि सनातन धर्म उस शर्ट के जैसे है जो भी पहनता है उसके जैसा हो जाता है। जैसा आप चाहो आपको मिलेगा। गीता में  श्रीकृष्ण इसी बात को बार बार कहते हैं कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है वह उसी भाव में उसे प्राप्त होते हैं। वैश्विक बंधुत्व का उद्घोष ही धर्म है।

राज्य को सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना चाहिए पन्थ से निरपेक्ष होना चाहिए पर धर्म से निरपेक्ष वह हो ही नही सकता। महात्मा गांधी इस बात को बड़े अच्छे तरीके से कहते हैं कि धर्मविहीन राजनीति सेवेंथ सिन’ (घोर पाप ) के समान है गांधीजी ने  राजनीति को धर्म से अलग करने के सुझाव को अस्वीकृत कर दिया , क्योंकि उन्होंने लोगों की आजीवन सेवा के माध्यम से सत्य की तलाश के रूप में धर्म को एक नई परिभाषा दी। यह विवेकानंद के विचारों का ही प्रभाव था कि गांधीजी यह कहने में समर्थ रहे कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है? गांधीजी ने यह भी कहा कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका नहीं देता हूँ । यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शों  को विकसित करना। बार-बार गांधीजी ने यह रेखांकित किया कि सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है। गांधी जी रामराज को आदर्श राज्य का माडल  मानते हैं। रामराज्य की अवधारणा का आधार ही स्वधर्म है। गांधीजी सेक्युलर बिलकुल नही हैं वह रामचरित मानस  को उद्धृत करते हैं,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। अब यहाँ पन्थ को धर्म समझने वालों की मजबूरी हो जाती है कि वे रामराज्य को सांप्रदायिक कहें और धर्म को राजनीति से दूर रखने की बात करें। यह इसलिए भी क्योंकि उससे दूसरी किस्म की नैतिकता दूसरे किस्म के तौर तरीकों को व्यवस्था उन्हें में ले आने का अवसर मिलता है।

राज्य चार चीजों से मिलकर बनता है क्षेत्र लोग सरकार और संप्रभुता राज्य के ठीक से चलने के लिए जरूरी है कि राज्य की सीमाए ठीक हों लोगों का आचरण ठीक हो सरकार न्यायप्रिय हो। उसकी संप्रभुता को बाकी के देश मानें। इनमें से सभी से महत्वपूर्ण है लोगों का आचरण यदि आचरण दुरुस्त है तो राज्य संगठित है विकास कर पायगा। कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक नीति  प्रगति में बाधक हैं मैं एक उदाहरण  देता हूँ एक नीति   कार्य ही पूजा है।यह नीति  किस तरह राज्य को आगे बढ़ने में मदद करते हैं इसे समझा जा सकता है । औद्योगीकरण के लिए यह जरूरी कि अधिक मात्रा में उत्पादन हो उसके लिए कार्य का ठीक तरीके से होना जरूरी है। अब लोगों के मूल्य कार्योंमुख होने से औद्योगीकरण को गति मिलती है इससे राज्य तेजी से विकास की ओर बढ़ता है। धर्म  नैतिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से राज्य को संगठित करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें धर्म  नही चाहिए। दरअसल  वे पुरखों की विरासत को समझने में नाकाम रहते हैं ये लोग हाथी की पूंछ को छूकर मानते हैं कि अनुभव के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि हाथी झाडू जैसा होता है और इसी बात को सभी माने क्योंकि  यही प्रत्यक्षवाद है। ये वो लोग हैं जो धर्म को अफीम मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुनिया को चलाने का पुरजोर समर्थन करते हैं। दरअसल धर्म को रुढ़िवादी घोषित कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर इस दुनिया का जितना नुकसान  पिछले १०० सालों में किया गया है उतना जब से मानव सभ्यता अपने अस्तित्व में आई कभी नही हुआ। विज्ञान के नाम पर हमने अपनी नदियों को दूषित कर दिया हवा मिटटी सबको गंदा कर दिया। विज्ञान ने हमे दो विश्व युद्ध थमा दिए तीसरे के मुहाने पर दुनिया बैठी है। जो सबसे विकसित और वैज्ञानिक देश होने का दावा करता है उस अमेरिका ने तीस बार दुनिया को नष्ट करने के लिए परमाणु हथियार बना कर रखे हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें विज्ञान की क्या गलती तो यही बात धर्म पर लागू होती है।

जब धर्म राज्य के विस्तार का साधन बन जाए तो वह धर्म नही होता है, धर्म मानव के आत्म विस्तार का साधन है। बाहर के मुल्कों का घोषित धर्म केवल राज्य के विस्तार का साधन मात्र था जबकि भारत का धर्म  अध्यात्म है। आज आवश्यकता है कि धर्म के मूल को बड़े सरल तरीके से समझकर उसके आधार पर राजनीति करने की ताकि हर भारतीय  अपने सर्वोच्च  मूल्य को प्राप्त कर सके।

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पर तन का अनुराग प्रबल है

पानी को पानी से मिलना जीवन तो सांसों का छल है ।
मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।

युगों युगों  की एक कहानी 
तृष्णा मन की बहुत पुरानी 
प्राणों की है प्यास बुझाना,
लेकिन नए स्वाद भी पाना 

पतन हुआ था जिसको पाकर, मांगे वही स्वर्ग का फल है ।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है।

स्वर्ण हिरण की अभिलाषा में
मोह की मारीचिक आशा में 
स्वर्ण मयी लंका मिलती है ,
यद्यपि मान रहित होती है 

अनुकरणीय उसी का पथ है, जो भटका जंगल जंगल है।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।


 परिवर्तन आखिर सीमित है 
धरती की गति भी नियमित है 
किसी ठौर पर रुकना होगा,
मर्यादा पर झुकना होगा 

चलते जाने वालों सुन लो, थीरता ही जीवन संबल है।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।


बुधवार, 15 अप्रैल 2020

याचना से प्रिये कुछ मिलेगा नही

याचना से प्रिये कुछ मिलेगा नही,
एक ही मार्ग है मुझपे अधिकार कर लो।

 फूल फिर भी नही कोई खिल पायेगा
शाख पर छाये कितने भी मधुमास हों।
 प्राण की प्यास ऐसे यथावत रही
 सप्त सैन्धव निरंतर भले पास हों ।।

 जो अहम् से भरा ये हृदय है मेरा,
 मान गल जाएगा मुझको अंकवार भर लो।

 सब प्रतीक्षित दिवस हैं बिना मोल के
स्वप्न में बीतती यामिनी व्यर्थ है।
दे सके ना जो प्रतिदान विश्वास के
 ऐसे पाषाण का क्या कोई अर्थ है।।

 चाह मन में हो मुझसे मिलन की शुभे,
अर्चना छोड़ कर अपना सिंगार कर लो।

 कब कलाई में कंगन है स्थिर हुआ
 कब रुकी है लहर तट पे आएगी ही।
 किसके रोके रुकी है ये पागल हवा
 कोई अंकुश नही बदरी छाएगी ही।।

 तुमको आदेश की तो जरूरत नही,
 मानिनी जब भी चाहो मुझे प्यार कर लो।

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

को नही जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो।

हनुमान जी लोकनायक हैं। जन संकटमोचक हैं। जनांदोलन की शक्ति हैं। महादेवी वर्मा का कथन है,' राम के कथाक्रमों को संगठित करने वाला मूल सूत्र हनुमान जी ही हैं जिनके बिना सीता राम के बीच समुद्र ही लहराता होता और रावण के प्रखर प्रताप के सम्मुख राम के शौर्य की दीप्ति मलिन हो जाती । राम और सीता को मिलाने वाले, सुग्रीव को राज्य दिलाना हो, विभीषण का दुख दारिद्र्य दूर करना हो, लक्ष्मण की जान बचानी हो, नागपाश से मुक्ति, अहिरावण से मुक्ति, अर्जुन की सहायता से लेकर गोस्वामी जी के माध्यम से त्रस्त तत्कालीन जनता में राम नाम की शक्ति भरने वाले बजरंग बली की महिमा का कोई पारावार नही है। लोक मानस के कण कण में बजरंग बली व्याप्त हैं।प्रत्येक ग्राम में चाहे कोई और देवालय हो या ना हो हनुमान जी का विग्रह अवश्य होगा। उनके लिए खुला आकाश ही मंदिर है। राम कथाे हनुमान जी के बिना पूर्ण नही है। जहां राम कथा होती है वहां हनुमान जी अवश्य उपस्थित रहते हैं। भगवान राम जब संपूर्ण प्रजा सहित बैकुंठ जा रहे थे तब हनुमान जी उनके साथ नहीं गए। राम से पृथ्वी पर रहकर राम कथा श्रवण का ही वरदान मांगा जो उन्हें दिया गया। इसलिए जहां भी रामकथा होती है वहां एक लाल कपड़ा बिछाकर पहले हनुमान जी का आवाहन किया जाता है और कथा की समाप्ति पर उनकी विदा। प्रारम्भ: कथा आरंभ होत है, सुनो वीर हनुमान राम लखन अरु जानकी सदा करें कल्याण विदा: कथा समापन होत है सुनो वीर हनुमान जो जहां से आयहू सो तह करें पयान युवा शक्ति जागरण बिना बजरंग पूजन के सम्भव ही नही। अखाड़े जहां युवा शक्ति तराशी जाती है वहां हनुमान की ध्वजा अवश्य होती है स्वयं गोस्वामी जी ने हनुमान जी के बारह मंदिर बनाए थे । जनसंस्कृति और सरलता हनुमान मंदिरों की प्रमुख विशेषता है। विग्रह न हो तो भी सिंदूर से रंगी एक पिंडी ही काफी है। लोक देवता के रूप में हनुमान जी की उपासना दुर्गा माता के साथ होती है। हनुमान जी पर गोस्वामी जी ने कुछ छोटी-छोटी अति प्रसिद्ध रचनाएं लिखी हैं जिन्हें विशेषज्ञ उनकी मान्यता देने में संकोच करते हैं उनका कहना है यह तुलसी के स्तर की नहीं जैसे कि हनुमान चालीसा और बजरंग बाण। निरक्षर लोगों को भी वह कंठस्थ है और भारतीय मनीषा में उसकी पंक्तियां मंत्रों का दर्जा प्राप्त है। बुद्धिजीवी लोग यह भूल जाते हैं कि गोस्वामी जी ने सिर्फ साहित्य की रचना नहीं की उन्होंने भारतीय चेतना को भी रचा उसके लिए इसी प्रकार के जन साहित्य की आवश्यकता थी । हम बात तो बहुत करते हैं जन साहित्य की परंतु हमने ऐसा क्या रचा जिसे जनता ने समग्र भाव से अपनाया, जैसे कि हनुमान चालीसा और बजरंग बाण जो शब्दों का रूपांतरण क्रियाओं में कर सकें । प्रत्येक महान संत लोक की चेतना जागृत करने के लिए सर्जन का प्रयास करता है और वह रचना अपने रचनाकार के नाम के बिना भी युगों युगों तक यात्रा करती है । स्वामी रामानंद की रची आरती है, 'आरति कीजे हनुमान लला की दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ' घर घर गाई जाती है कितने लोग जानते हैं? लोककल्याण में स्तरीकरण के ब्यूरोक्रेटिक मॉडल नही चलते। यहां भावना हर प्रकार के स्तरीकरण को अप्रासंगिक कर देता है। इसी भावना के आधार पर तुलसी का रामराज्य निर्मित है जिसे वह हनुमान जी के माध्यम से पाना चाहते हैं। जय बजरंग बली।

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

कोरोना : प्रकृति का संदेश



मानव की  पाषाण काल से लेकर वर्तमान में लॉकडाउन युग की यात्रा बड़ी विचित्र रही है।  अक्सर यह बताया जाता है कि प्रगति रेखीय होती है परन्तु यदि प्रगति प्रकृति के नियमों में अनुरूप न हो तो यह  हमेशा चक्रीय ही होती है।  प्रकृति हमें वापस उसी जगह लाकर पटक देती है जहाँ से हम यात्रा प्रारम्भ करते हैं।  गुफा युग की वापसी इस बाद की तस्दीक करती है कि निश्चय ही प्रकृति हमें पुनः उसी जगह वापस लाना चाहती है जहाँ से हमने सभ्यता की शुरुआत की थी पर जैसे जैसे यात्रा बढती गयी हम निरंतर जाहिल होते गये और जाहिलियत इतनी बढ़ी कि धरती का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया।  आज हम घरों में उसी तरह दुबक कर बैठे हैं जैसे आदि मानव अपनी गुफाओं में दुबक कर रहता था।  यह मनुष्य के निरंतर जाहिल होने का प्रमाण है कि धरती को गंदा कर, मानव का मानव के प्रति घृणा बढाकर अपने को सभ्य होने का खोखला प्रलाप करता रहा।  मनुष्य ने ऐसे अनेकानेक अनावश्यक डर, सुविधाएं, व्यवस्थाएं और विचारधाराएँ बनाई जिसके भार को थामने को ही वह अपना सामर्थ्य समझता रहा।  
आज जब लोग घर में हैं एक दूसरे की देखभाल कर रहे हैं आस पास के लोगों की सहायता कर रहे हैं तब यह समझ में आता है कि हम जिसे होशियारी समझ कर अपने सीने से चिपकाए थे वह तो मात्र कूड़े का एक ढेर था।  जिस गंगा यमुना के सफाई के लिए अरबों रूपये खर्च कर दिए गये, तमाम संसाधन होम कर दिए गये वो तो बिना किसी प्रयास के मात्र दस दिन गंदगी न फेंकने की वजह से स्वच्छ हो रही हैं।  अस्पतालों में , शमशानों और कब्रिस्तानों में दुर्घटना एवं बीमारी की वजह से मरने वालों की संख्या में कमी आई है।  पारिवारिक ताने बाने, नाते रिश्ते मजबूत हुए हैं।  हवायें दुर्गंध छोड़ कर  ताजगी महक रही हैं।  सबसे खूबसूरत बात जिसका जिक्र 1854 में एक अंग्रेज ने किया था वह यह है कि जालंधर के लोगों को उनके जीवन काल में पहली बार अपने घर की छतों से हिमालय की चोटियां साफ दिखाई दे रही हैं, रात में चमकते तारों और चन्द्रमा को देखकर फिर से माताएं दूध कटोरा की लोरी याद करने लगी हैं   उत्तराखंड में हाथी, नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस में नीलगाय, बरसों  बाद उड़ीसा के तट पर दिन में भी अपने अंडों के पास आते  ऑलिव रिडली कछुए,  चंडीगढ़ में कुलांचे भरते  सांभर,  मुंबई के मरीन ड्राइव और मालाबार हिल्स पर ख़ुशी से उतराती डॉल्फिन, सड़कों पर मस्ती करते एन्डेंजर्ड सिवेट और  पक्षियों की चहचाहट वापस लौट आई है।  
प्रकृति शायद आखिरी बार मनुष्य को मौक़ा देना चाहती है और इसीलिए वह अपने तरीके से यह संदेश डे रही है कि मानव  अपनी कुत्सित  लिप्सा  से मुक्त होकर आनंद पूर्वक जीवन की तरफ लौटे।  अब धरती पर और अत्याचार नहीं धरती सबकी जरूरत को पूरा कर सकती है पर किसी एक के लालच को नही।  हमें अपनी जरूरतों को पहचानना होगा।  याद रखिये जरूरत से ज्यादा उपभोग धरती पर केवल और केवल दबाव ही बढ़ाता है।  आपके द्वारा किया गया अपरिग्रह और प्राकृतिक नियमों के अनुकूल जीवन यापन ही मानव सभ्यता को आगे जीवित रख सकता है।  यदि हम प्रकृति के इस सन्देश को नही समझे तो उत्तर  कोरोना काल के बाद धरती पर पेड़ पौधे नदियाँ पहाड़ सभी मौजूद होंगे पर मनुष्य नही होगा।   

शनिवार, 21 मार्च 2020

हमें रुकना होगा


 मानव सभ्यता में पिछले  डेढ़ सौ  सालों में जितने परिवर्तन आये ख़ास तौर से अगर हम पिछले पचास सालों की बात करें तो उसकी तुलना में पिछले पांच हजार साल में आये परिवर्तन अपने  अर्थ ही खो बैठते हैं।  जब हम प्रकृति में आये बदलाव से मनुष्य के सामाजिक सांस्कृतिक प्रौद्योगिकी बदलावों से तुलना करते हैं तो एकबारगी लगता है कि प्रकृति कहीं पीछे छूट  गयी है।  मनुष्य बहुत आगे निकलता जा रहा है।  यह प्राकृतिक विलम्बना आज के समय में मानव विकास के रूप में परिभाषित किया  जा रहा है।  

प्रश्न इस बात का है कि यह विकास क्यों? किसके लिए उत्तर मिलता है मनुष्य के लिए।  फिर बाकी प्रजातियों का क्या ? क्या वह धरती पर जीवन का हिस्सा नही? और  मानव के लिए  किया जाने वाला विकास भी क्या समस्त मानवों के लिए है? इन सबका उत्तर हमें निराश ही करता है।  दूर गमन दूर श्रवण और दूर दर्शन ही विकास है? सहजीवन का क्या हुआ? संवेदनाओं का क्या हुआ? क्या मनुष्य अपनी लोलुपता , क्रूरता , अज्ञानता को कम कर पाया? ये भी सवाल आज तक अपना जवाब हाँ में नही ढूंढ पाए हैं।  

आज के समय में जो भाग नही पाया वह कुचल दिया जा रहा है।  जो स्मार्ट नही हो पाया वह पीछे छोड़ दिया जा रहा है।  यदि यही विकास है तो विनाश की परिभाषा क्या होगी? हमने हथियार बनाये।  पहले हाथ में पत्थर था आज परमाणु बम है।  किसके लिए? स्वयं के संहार के लिए।  अर्थात संहार ही विकास है।  चौबीस घंटे भागमभाग किसके लिए ? हमने रुकना होगा।  हमें रुक कर देखना होगा कि हम कहाँ जा रहे हैं।  हमें रुक कर देखना होगा कि हम अकेले तो नही हो गये।  हम नदियों, पहाड़ों, चिड़ियों, जानवरों, फूलों के साथ सहजीवन में हैं या नही हमें रुक कर देखना होगा।  हमें रुक कर देखना होगा कि हमारे भाई बहन मान बाप सगे  संबंधी बच्चे ये सब हमसे दूर तो नही हो गये।

 क्या हुआ अगर हम रुक गये? रुकना मौत है चलना ज़िन्दगी यही कहकर हमें चलने के लिए प्रेरित किया जाता है पर वह समय आ गया है जब रूककर आराम करना ज़िन्दगी और भागमभाग मौत के रूप में परिभाषित किया जायेगा।  मनुष्य को अपनी गति कम करनी ही पड़ेगी।  प्रकृति के साथ कदमताल करना ही पड़ेगा।  अगर मनुष्य अपने विवेक से नही रुका तो प्रकृति रोकेगी।  जिसे विद्वान प्राकृतिक  आपदा  कहते हैं दरअसल वह प्रकृति द्वारा संतुलन बनाने की एक प्रक्रिया ही है।  

प्रकृति मनुष्य को मनुष्य बनने को कह रही है।  रुकिए, मनुष्य बनिए।   

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

दिल्ली में उड़नतश्तरी देखी गयी है।



समीरलाल 'उड़नतश्तरी'  जी का दिल्ली आगमन आनन फानन में ब्लॉग मीट के आयोजन का हेतु बन गया और इसके निमित्त बने भाई राजीव तनेजा । हिंदी ब्लॉगिंग  जब अपने शिखर पर थी तो हर ब्लॉग चाहे वह एक दिन पहले ही क्यों न बना हो या ब्लॉगर कोई अनचीन्हा हो या पोस्ट में कितना कच्चापन  क्यों न हो पोस्ट पर एक टीप 'उम्दा' की अवश्य होती थी, और जब उस टिप्पणीकार के ब्लॉग को देखते तो वह ब्लॉग उस समय के सबसे लोकप्रिय ब्लॉगर समीरलाल जी 'उड़नतश्तरी' का हुआ करता था। आज की मीट में 'उन दिनों' को याद किया गया।

डॉ अमर याद आये, जीके अवधिया, अविनाश वाचस्पति, अलबेला खत्री याद किये गए। ब्लॉगिंग में खोंच लगाने वाले भी याद किये गए। याद किया गया कि किस तरह एक पोस्ट तैयार होती थी फिर उस पर कमेंट का इंतजार किया जाता था। परिकल्पना के अंतरराष्ट्रीय मीट भी याद किये गए। रवींद्र प्रभात, रश्मि प्रभा योगेश समदर्शी की चर्चा हुई। खुशदीप भाई का ब्लॉग को छोड़ना, दिल्ली का ब्लॉग मीट फिर लखनऊ के किस्से कहानी, ब्लॉग पर धक्कामुक्की, बीच बीच मे ब्लॉग के फिलर किलर झपाटा, बेनामी वगैरह की भी चर्चा होती रही। महफूज अली को खासतौर से याद किया गया। नारी ब्लॉग समेत तमाम साझे ब्लॉग के लेखन की चर्चा हुई।

ट्रैवलर नीरज जाट, ललित शर्मा और दो तीन नाम उनके कारनामे हंस हंस के याद किये गए। सतीश सक्सेना जी की धमकी याद की गई। रूप चंद्र शास्त्री जी को उनके लगातार ब्लॉग लिखने की प्रतिबद्धता को सराहा गया। अनवर जमाल को मैंने बड़े प्रेम से याद किया 😊😊 । मासूम भाई को अमन के पैगाम के लिए याद किया गया।ताऊ रामपुरिया, जाट देवता की बातें, अनूप शुक्ल दद्दू की लंबी पोस्ट पर चर्चा की गई। दिगम्बर नासवा, तारकेश्वर गिरी,बाबू पद्म सिंह, डॉ कुमारेन्द्र सिंह सेंगर , काजल कुमार, केके यादव सुनीता शानू, अर्चना चावजी की बातें हुईं।

बीच बीच मे खुशदीप भाई और शाहनवाज में राजनीतिक चर्चा होने लगती टी एस दराल साहब भी उसमें शामिल हो जाते तो वंदना जी को उन्हें वापस साहित्यिक बातों पर लाना पड़ता। संजू जी बीच बीच मे खाने का भी इंतजामात किये हुए थीं। फिर क्या ब्लॉग अकादमी का प्रस्ताव तुरत फुरत खुशदीप भाई की तरफ से आया जिसका मैंने उसी तेजी से अनुमोदन कर दिया। प्रस्ताव ध्वनिमत के साथ पारित हो गया।  चूंकि कार्यक्रम बहुत जल्दी में बनाया गया तो अधिकांशतः ब्लॉगर आ नही पाए लेकिन उन्हें निराश होने की कोई भी जरूरत नही। एक मार्च को रेखा जी की पुस्तक का विमोचन और ब्लॉग चर्चा का आयोजन 973 मुखर्जी नगर में प्रस्तावित है। सभी अपने ब्लॉग को पुनर्जीवित कर लें क्योंकि एक मार्च को आप सभी ब्लॉगर्स लिए कुछ उत्साहजनक सूचनाएँ मिलेंगी।


शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

नोटबंदी : मिथ और यथार्थ



                                  

नोटबंदी  को लेकर रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट आने के बाद जिस तरह का देश में माहौल बनाया जा रहा है वह विघटनकारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह के कड़े और साहसिक फैसले लिए उससे पारम्परिक राजनीति बुरी तरह तिलमिलाई हुयी है।  सब्सिडी और तुष्टिकरण के सहारे वोट बैंक को साधने वाली पारंपरिक राजनीति को  इस किस्म के निर्णय रास नही आते है। नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर सत्ता में आये थे अतः भ्रष्टाचार के खिलाफ  नोटबंदी के रूप में  कारगर कदम उठाना कोई हैरत की बात नही थी।  
भ्रष्टाचार , कालाधन , नकली नोट, आतंकवादी गतिविधियों और  मंहगाई को नियंत्रित  के लिए ही नोटबंदी का  कदम उठाया गया लेकिन भारत  नोटबंदी करने वाला पहला देश नही है। अभी हाल के वर्षों में देखें तो जिम्बाब्वे में 2015  में नोटबंदी की गयी। जब यूरोप यूनियन  बना तब उन्होंने यूरो नाम की नई मुद्रा  चलाई थी और सारे पुराने नोट बैंकों में जमा करवाए गये थे। भारत में पहली बार वर्ष 1946 में नोटबंदी की गई थी। मोरार जी देसाई की सरकार द्वारा जनवरी 1978 में 1000, 5000 , और 10,000 के नोटों को बंद किया गया था। 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने भी 2005 से पहले के 500 के नोटों को बदलवा दिया था। छोटे सिक्कों जैसे 5, 10, 20, 25, 50 पैसों का प्रयोग नहीं करते हैं उन्हें भी बंद किया गया था। लेकिन आठ नवम्बर 2016 को जिस तरह से  500 और 1000 नोटों को बंद किया गया वह उपर्युक्त बातों से अलग था। 500 और 1000 के नोट  भारतीय अर्थव्यवस्था के 86 प्रतिशत  भाग में प्रचलित थे  इसी वजह से इसका इतना  बड़ा प्रभाव लोगों पर  हुआ। 
नोटबंदी  की सफलता असफलता को रिज़र्व बैंक में वापस आये नोटों से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। माना जा रहा है 16000 करोड़ रु बैंक में वापस  नही आये,  नोटबंदी के विरोधियों का  मानना है कि नोटबंदी तभी सफल मानी जाती जब लगभग तीन लाख करोड़ रूपये  रिज़र्व बैंक में वापस न आते। ऐसा क्यों हुआ  इसे थोड़ा विस्तार में जानने की कोशिश करते हैं। नोटबंदी के दौरान अनिल अम्बानी या कोई भी धन्नासेठ लाइन में नही लगा बल्कि उसने अपने  लोगों के द्वारा नोट बदलवाए। नोटबंदी के दौरान  लाखों की संख्या में खाली पड़े बैंक खाते  अचानक भरने लगे । बहुतायत  लोगों ने दूसरों के पैसे अपने खाते में जमा किये। बड़े बड़े स्कूलों, बड़ी कंपनियों, उद्योगों के मालिकों द्वारा उनके कर्मचारियों के खाते में साल भर या दो साल के वेतन के एवज में पैसे डलवाकर कालेधन को सफ़ेद करने का खेल खूब चला। यही वजह रही कि किसी न किसी माध्यम से रिज़र्व बैंक के पास पैसे वापस आये । दरअसल जिन लोगों को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के  लिए नोटबंदी की गयी थी उन्ही लोगों ने भ्रष्टाचार करके नोटबंदी को असफल बनाने में अथक प्रयास किया।
हर व्यक्ति भ्रष्टाचार से खुद को पीड़ित बताता है और सरकार को इसे न ख़त्म कर पाने के लिए दिन रात कोसता  है किन्तु जब सरकार ने उसे ख़त्म करने का फैसला लिया तो उन्होंने  भ्रष्टाचारियों से मिलकर सरकार की मूल मंशा पर पानी फेरने का काम किया । हालांकि इसके अलावा  और भी अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू हैं जिसके बिना इसका सही मूल्यांकन हो ही नही पायेगा।  नोटबंदी के बाद  बैंकों में लगभग तीन लाख करोड़ रूपये अतिरक्त जमा हुए, 56 लाख नए कर  दाता जुड़े। पहले से 24.7 प्रतिशत  ज़्यादा टैक्स रिटर्न फ़ाइल हुई। सबसे ज्यादा फायदा डिजिटल इंडिया अभियान को हुआ, आंकड़ों में देखें तो  कार्ड से लेन देन 65 प्रतिशत तक  बढ़ा और कैशलेस डिजिटल पेमेंट  में 56 प्रतिशत  की वृद्धि हुयी । नोटबंदी के बाद सरकार ने कालाधन रखने वालों को एक मौका दिया था। जिसके अनुसार  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत अपने  धन का खुलासा कर टैक्स और पेनेल्टी भरकर लोग अपना पैसा बचा सकते थे। इस प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत 21000 लोगों ने 4900 करोड़ रुपए के कालाधन की घोषणा की। कालेधन का एक प्रमुख स्रोत शैल कम्पनियां हैं । आमतौर पर ये कंपनियां एक मीडियम के माध्यम से काले धन  को सफ़ेद  करने का काम करती हैं। इन कंपनियों में टैक्स को पूरी तरह से बचाने या कम से कम रखने की व्यवस्था होती है। इसमें पूरे पैसे को खर्च  के तौर पर दिखाया जाता है, जिससे टैक्स भी नहीं लगता है।  नोटबंदी के बाद ऑपरेशन क्लीन मनी  के तहत 18 लाख से ज़्यादा खाते जांच के दायरे में लाये गये और 2.1 लाख शैल  कंपनियों का लाइसेंस रद्द कर दिया गया जिससे आर्थिक व्यवस्था के पुनर्शोधन में बड़ी मदद मिली। नोटबंदी से भ्रष्टाचार पर भी तगड़ी चोट पहुंची अब तक कुल जमा किये गये पैसों में  4.73 लाख बैंक ट्रांजिक्शन  संदिग्ध है और जांच के दायरे में हैं । तीन लाख  रूपये से ऊपर के सभी जमाराशि  की जांच चल रही है। 34 बड़ी सीए कंपनियों को संदिग्ध घोषित किया गया । 460 बैंक कर्मी घोटाले करते पकड़े गए । 5800 ऐसी कंपनियां  जांच के दायरे में हैं जिन्होंने नोटबन्दी के बाद रातों रात 4573 करोड़ रु अपने खातों में जमा कराए और फिर निकाल लिए ।  25 लाख से ज़्यादा जमा करने वाले 1.16 लाख लोगों को नोटिस  दिया गया है । 5.56 लाख ऐसे लोग चिन्हित किये गये हैं  जिनकी  जमा राशि  उनकी ज्ञात आय के स्रोतों से अधिक थी। लगभग 33,028 करोड़ रूपये की अघोषित रकम को  आयकर  विभाग ने पकड़ी।
वित्त मंत्री अरुण जेटली  के मुताबिक़  बैंकिंग सिस्टम से बाहर मौजूद करंसी को अमान्य करना ही नोटबंदी का एकमात्र लक्ष्य नहीं था।  नोटबंदी का एक बड़ा उद्देश्य भारत को 'गैर कर अनुपालन' समाज से ‘कर अनुपालन’ में बदलना था। इसका लक्ष्य अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना और कालेधन पर प्रहार भी था। जब कैश बैंक में जमा किया जाता है तो इसके स्वामित्व की गुमनामी खत्म हो जाती है। जमा कैश के मालिकों की पहचान हो गई है इनकी जांच चल रही है कि जमा की गई रकम उनकी आमदनी के मुताबिक है या नहीं। बैंकों में जमा कैश का मतलब यह नहीं है कि सारा पैसा सफेद ही है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का भी मानना है  कि नोटबंदी का उद्देश्य  बैंकों में पैसा जमा  करना था।  जिन  3 से 4 लाख करोड़ रुपयों के बारे में रिज़र्व बैंक को कुछ पता ही नही था वह पैसे  बैंकों में वापस आए और टैक्स अथॉरिटी की जांच के दायरे में हैं।   उन्होंने यह भी कहा कि करंसी ब्लैक से वाइट में नहीं आई होगी, लेकिन यह ग्रे में जरुर आ गई है। कैश ट्रांजैक्शन में भी कमी आई है। गलत तरीके से कैश ट्रांजैक्शन को लेकर लोगों में डर बना है।     
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर  निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि देश सुधार की दिशा में बढ़ा है और लोगों के व्यवहार प्रतिमानों में बदलाव आ रहे हैंयह बात सही है  नोटों को बदलना अपने आप में अत्यंत  कठिन काम तो था पर सरकार के पास नये नोट छापने की चुनौती भी कम नही थी। नोटबंदी के  दौरान  और उसके बाद देश में अफरातफरी का माहौल न बने इस बात को भी सुनिश्चित करना था। इस काम की जिम्मेदारी एकमात्र सरकार की ही नही थी विपक्षी दलों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका  थी किन्तु विपक्षी दलों ने जनता को गुमराह करने उन्हें भड़काने के अलावा सरकार को  कोई भी सकारात्मक सहयोग नही दिया पर देश की जनता ने जिस धैर्य और समझदारी का परिचय दिया वह इस बात का परिचायक है कि हर नागरिक के लिए देश सर्वोपरि है।