खट्ट-खट्ट चिर्र-चिर्र की आवाजे अंततः आने लगी. नीम के पेड़ पर चल रही आरी मेरे दिल को चीरती जा रही थी. मैंने कान बंद कर लिए और घर के अन्दर जाकर अपना सामान बांधने लगा. माँ ने देखा तो पूछा
ये कहा की तैयारी हो रही है?
वापस कानपुर जा रहा हूँ माँ.
क्यों?
अब मै इन कसाइयो के साथ नही रह सकता.
कसाई किसे कह रहा है तू?
यहाँ जितने लोग है सब कसाई हैं.
छी: ऐसी बाते न करो बेटा, माँ डाटते हुए बोली, जिन हाथों में तू पला बढ़ा अब पढ़ लिख कर उन्ही को कसाई बोल रहा है.
ये कसाई नही तो और फिर क्या हैं? देखो न नीम को कैसे बेदर्दी से कटवाया जा रहा है. माँ इस पेड़ की आवाज़ सुनो इसकी कराह और पुकार सुनो.माँ याद है जब मै छोटा था और मुझे "माता" आ गयी थी तब इसी नीम की लौछार तुम मेरे ऊपर फिरा-फिरा कर शीतला देवी से मेरे ठीक होने की प्रार्थना करती थी. तब क्या तुमने सोचा था कि इसे ऐसे काट दिया जाएगा.माँ कम से कम तुम तो स्वार्थी मत बनो.माँ कुछ कहती तभी बड़े भाईसाहब वह से गुजरे बोले,
माँ इससे मत उलझ.यह बौरा गया है.
हां भईया मै वाकई बौरा गया हूँ इसलिए कि मै स्वार्थी नही हूँ.इसी पेड़ पर दादी ने जीवनपर्यंत जल चढ़ाया. इसी पेड़ के नीचे शालीग्राम रखे गए थे धर्म की प्राथमिक शिक्षा तो हमने यही से पायी थी.
"अरे पगले तभी तो हम लोग यहाँ मंदिर बनवा रहे है. मंदिर के सामने "नंदी" बैठाने के लिए जगह नही थी इसीलिये इसे काटना पडा.यह तो पुण्य कार्य है.
हुंह मंदिर की परिभाषा जो आपकी है भईया वो मेरी नही है.दसियों साल से इसी पेड़ के नीचे शिवजी (शालीग्राम) विराजमान रहे और पेड़ उनपर छाया करता रहा तो तब क्या यहाँ मंदिर नही था. आज आप कंकर पाथर जोड़ कर इन महादेव को दीवार में बंद कर रहे हैं तो अब ये मंदिर हो जाएगा.
अरे भाई साहब इससे कहा बहस करके अपना दिमाग खराब कर रहे हैं. ये तो शुरू से ही.....मेरे दूसरे भाई बड़े भाई को खीच कर ले जाने लगे
मै आवेश में चिल्ला कर बोला ये देखो मेरे दांत कितने मजबूत है. तुम्हारे भी, बड़े भईया के,पूरे घर के, दादा अस्सी साल के है लेकिन उनके भी दांत सलामत है ये सब इसी नीम की दातुन की वजह से है.
हा हा हा अब तो कोलगेट का जमाना है बच्चू कोलगेट किया करो. तू इतना पढ़ा लिखा होकर गंवारों की बात करता है. पता नही क्या पढता है.
वे लोग चले गये.माँ भी अपने काम में लग गयी. मै अपना बैग लेकर पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकल गया.
आधी रात में पूरे चाँद की
उतरी थी चांदनी.
तुम्हारे फूलों पर,
तुम्हारे फूलों पर,
और उन फूलों से होकर
मेरे दिल में उतर गयी थी.
तुम्हारे आगोश में रखे,
शिव को देख कर प्रकृति में,
सृजनकर्ता को पहचाना.
और तुम्हारी चंवर डुलाती,
लौछारों के कोमल स्पर्श से,
प्रेम की अनुभूति जाना.
ओ साथी !
आज मैने घर छोड़ दिया
तुम्हारी आने वाली
फस्लों को बचाने की खातिर