लोकगीतों में तात्कालिक समाज की सारी घटनाएं बिना किसी सेंसर के देखी जा सकती हैं... ऐसा एक प्रसंग है औरतों के प्रति घरेलू हिंसा का। एक मार्मिक गीत देखिये ..
सासु मोरा मारे,ननद मोरा मारे, मोरे सइयां मारे रे।
बबूर डंडा तानि तानि, ए माई मोरे सइयां मारे रे।।
बबूर डंडा तानि तानि, ए माई मोरे सइयां मारे रे।।
सासु मारे सुट्कुनिया, ननद मारे पटुका।
मुंगरी से मारे तानि पिठिया मोरे सइयां मारे रे।।
मुंगरी से मारे तानि पिठिया मोरे सइयां मारे रे।।
सास या ननद के द्वारा मारे जाने पर स्त्री को जरा भी दुःख नही है । उसकी छाती इसलिए फटती है कि जिसे वह अपना रक्षक और देवता समझती जिसे उसने कोमल स्नेह और मनुहार दिया उसने मारा। उसके पति ने उसे मारा जिसने उसकी सुरक्षा की शपथ अग्नि के सामने ली।
सासु के न दुखवा, ननद के न दुखवा मोर छतिया फाटे रे।
मोरे राजा तोरई गोडवा करेजा फाटे रे।।
मोरे राजा तोरई गोडवा करेजा फाटे रे।।
इतने सब के बाद वह अपना दुःख माँ बाप से नही कहती...
माई रोइहीं मचिया बईठे बाबू रोईहीं खटिया रे।
सुनि के मोरा रे दरदिया ऊ दूनू रोइहीं रे। ।
सुनि के मोरा रे दरदिया ऊ दूनू रोइहीं रे। ।