मैं धर्म को जीने के तरीके के रूप में देखता हूँ। आप जितने सरल तरीके से हिंदुत्व को समझना चाहते हैं उतने सरल रूप में समझ सकते हैं।
परहित सरिस धरम नहि भाई। परपीड़ा सम नहि अधमाई।
आपको जटिल पांडित्य में जाने की भी छूट है पर सनद रहे पंडित जी पिंडदान तक पीछा नहीं छोड़ेंगे। आप ईश्वर को मानें न मानें, किसी को भी ईश्वर मान सकते हैं। खान पान, वेश भूषा, रीति रिवाज व्यक्तिगत रूप से भिन्न हो सकता है। सब कुछ यहाँ है। जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है स्मरण करता है विश्वास करता है वह उसे उसी भाव से प्राप्त होते हैं । यही कारण है कि एक आस्थावान हिंदू बहुत ही सहजता के साथ अपने राम को गरीब नवाज कह देता है या उसे खुदा या जीसस की प्रार्थना करने या चादर चढाने अथवा मोमबत्ती जलाने में कोई हिचक नही होती जबकि अन्य आस्थावानों के लिए राम राम करना या मंदिर में प्रार्थना करना लगभग लगभग असंभव सा होता है। हिंदुत्व जीने का तरीका कैसे है उसे इस श्लोक में देखा जा सकता है
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
अर्थात धीरज रखना, क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन , मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये दस धर्म के लक्षण हैं । हिंदुत्व जीवन दर्शन आगे कहता है कि आत्मन: सर्वभूतेषु य: पश्यति सः पंडित: जो अपने में सभी प्राणियों को देखता है वही विद्वान् है। यही आध्यात्म का आधार कथ्य भी है। हिंदुत्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह स्तरीकरण और वर्गीकरण तो करता है किन्तु उसके आधार पर किसी के सम्मान, चयन और अवसरों में भेद भाव नही करता है। जाति व्यवस्था के स्तरीकरण का आधार प्रकार्य हैं न कि ऊँच नीच। उच्चता निम्नता कभी हिंदुत्व के विमर्श नही रहे अलबत्ता कार्यों को सही से करना मापदंड अवश्य रहा है। श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि गुण के आधार पर वर्णों का निर्धारण होता है। समय के साथ प्रत्येक भौतिक और अभौतिक वस्तुओ में सही गलत चीजें जुडती जाती जिसका परिमार्जन व्यवस्था की जिम्मेदारी है। हिंदुत्व में परिमार्जन नित्य होता रहता है इसीलिये यह सनातन है नित्य नवीन है। वर्तमान समय में हिंदुत्व को लेकर कई भ्रमों का निर्माण हो गया है। हिंदू शब्द को राष्ट्रीयता का पर्याय बताया जा रहा है किसी को हिंदू शब्द धर्म के रूप में समझ में आ रहा है। यह भ्रम व्यर्थ का है। हिंदू जीवन पद्धति है जो हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है वही यह आस्था पद्धति भी है। हमारी आस्थाएं अलग अलग हो सकती हैं किन्तु हमारी जीवन पद्धति हमारे तरीके में राष्ट्रीय समानताएँ अवश्य हैं। हिन्दुस्तान में रहने वाले लोग हिंदू नही तो फिर क्या हैं ? हिंदू माने भारतीय । भारतीय आस्था पद्धति, भारत के बाहर की आस्था पद्धति को भी स्वीकार करती है। लेकिन इसका ये मतलब नही कि आप अपने को भारतीय या हिंदू मानना बंद कर दीजिये। जब न्यायपालिका कहती है कि यतो धर्म: ततो जय तो वह कौन से धर्म की बात कर रही है ? सत्य की विजय करने की घोषणा कौन सा धर्म करता है ? धर्मो रक्षित रक्षत: की बात करने वाले को किस धर्म के अंतर्गत रखा जा सकता है ? यह सब बातें इसलिए क्योंकि हम जीवन पद्धति और आस्था पद्धति को लेकर कई भ्रमों को पाल रखे हैं। हिन्दुस्तान अरबी या यूरोपियन तौर तरीके से नहीं चल सकता। आपके पुरखे भारतीय है। यहीं की मिट्टी पानी से आप पले बढे हैं यहाँ वे लोग जिन्होंने गैर भारतीय आस्था पद्धति को अपना रखा है उनको उतने ही संवैधानिक अधिकार मिले हैं जितना कि एक भारतीय आस्था पद्धति वाले को पर आपका भारतीय होना हिन्दुस्तानी तौर तरीके और हिंदुत्व के प्रति अपनी करीबी या दूरी ही तय करेगी अतः आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर हम उन समान आधारों को खोजें जिनके आधार पर राष्ट्रीयता का निर्माण होता है।
परहित सरिस धरम नहि भाई। परपीड़ा सम नहि अधमाई।
आपको जटिल पांडित्य में जाने की भी छूट है पर सनद रहे पंडित जी पिंडदान तक पीछा नहीं छोड़ेंगे। आप ईश्वर को मानें न मानें, किसी को भी ईश्वर मान सकते हैं। खान पान, वेश भूषा, रीति रिवाज व्यक्तिगत रूप से भिन्न हो सकता है। सब कुछ यहाँ है। जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है स्मरण करता है विश्वास करता है वह उसे उसी भाव से प्राप्त होते हैं । यही कारण है कि एक आस्थावान हिंदू बहुत ही सहजता के साथ अपने राम को गरीब नवाज कह देता है या उसे खुदा या जीसस की प्रार्थना करने या चादर चढाने अथवा मोमबत्ती जलाने में कोई हिचक नही होती जबकि अन्य आस्थावानों के लिए राम राम करना या मंदिर में प्रार्थना करना लगभग लगभग असंभव सा होता है। हिंदुत्व जीने का तरीका कैसे है उसे इस श्लोक में देखा जा सकता है
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
अर्थात धीरज रखना, क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन , मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये दस धर्म के लक्षण हैं । हिंदुत्व जीवन दर्शन आगे कहता है कि आत्मन: सर्वभूतेषु य: पश्यति सः पंडित: जो अपने में सभी प्राणियों को देखता है वही विद्वान् है। यही आध्यात्म का आधार कथ्य भी है। हिंदुत्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह स्तरीकरण और वर्गीकरण तो करता है किन्तु उसके आधार पर किसी के सम्मान, चयन और अवसरों में भेद भाव नही करता है। जाति व्यवस्था के स्तरीकरण का आधार प्रकार्य हैं न कि ऊँच नीच। उच्चता निम्नता कभी हिंदुत्व के विमर्श नही रहे अलबत्ता कार्यों को सही से करना मापदंड अवश्य रहा है। श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि गुण के आधार पर वर्णों का निर्धारण होता है। समय के साथ प्रत्येक भौतिक और अभौतिक वस्तुओ में सही गलत चीजें जुडती जाती जिसका परिमार्जन व्यवस्था की जिम्मेदारी है। हिंदुत्व में परिमार्जन नित्य होता रहता है इसीलिये यह सनातन है नित्य नवीन है। वर्तमान समय में हिंदुत्व को लेकर कई भ्रमों का निर्माण हो गया है। हिंदू शब्द को राष्ट्रीयता का पर्याय बताया जा रहा है किसी को हिंदू शब्द धर्म के रूप में समझ में आ रहा है। यह भ्रम व्यर्थ का है। हिंदू जीवन पद्धति है जो हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है वही यह आस्था पद्धति भी है। हमारी आस्थाएं अलग अलग हो सकती हैं किन्तु हमारी जीवन पद्धति हमारे तरीके में राष्ट्रीय समानताएँ अवश्य हैं। हिन्दुस्तान में रहने वाले लोग हिंदू नही तो फिर क्या हैं ? हिंदू माने भारतीय । भारतीय आस्था पद्धति, भारत के बाहर की आस्था पद्धति को भी स्वीकार करती है। लेकिन इसका ये मतलब नही कि आप अपने को भारतीय या हिंदू मानना बंद कर दीजिये। जब न्यायपालिका कहती है कि यतो धर्म: ततो जय तो वह कौन से धर्म की बात कर रही है ? सत्य की विजय करने की घोषणा कौन सा धर्म करता है ? धर्मो रक्षित रक्षत: की बात करने वाले को किस धर्म के अंतर्गत रखा जा सकता है ? यह सब बातें इसलिए क्योंकि हम जीवन पद्धति और आस्था पद्धति को लेकर कई भ्रमों को पाल रखे हैं। हिन्दुस्तान अरबी या यूरोपियन तौर तरीके से नहीं चल सकता। आपके पुरखे भारतीय है। यहीं की मिट्टी पानी से आप पले बढे हैं यहाँ वे लोग जिन्होंने गैर भारतीय आस्था पद्धति को अपना रखा है उनको उतने ही संवैधानिक अधिकार मिले हैं जितना कि एक भारतीय आस्था पद्धति वाले को पर आपका भारतीय होना हिन्दुस्तानी तौर तरीके और हिंदुत्व के प्रति अपनी करीबी या दूरी ही तय करेगी अतः आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर हम उन समान आधारों को खोजें जिनके आधार पर राष्ट्रीयता का निर्माण होता है।