जीवन क्या है? बहुत से दार्शनिक, ज्ञानी ध्यानी धार्मिक पुरुषों ने सभ्यता की शुरुआत से ही इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते रहे। हम सब जीवन के बने बनाये मायने में जीवन ढूंढते रहते या अपनी तरफ से जीवन को कोई अर्थ देने में जीवन जाया करते रहते हैं। मै जब इस प्रश्न से गुजरा तो पाया कि जीवन उतना ही है जितना हमने सुख से जिया। मै सुख पूर्वक जीने को ही धर्म पूर्वक जीना मानता हूँ, मेरा धर्म आनंद है और मेरा ईश्वर आनंद कंद सच्चिदानंद है। जिस कार्य को करने से आपको निरंतर सुख मिले वही कार्य करने योग्य है। हम गलती में अनेक हैं पर सही में एक हैं, जो सही है वही सुंदर है वही कल्याणकारी है। मेरा ईश्वर शिव है।
हम एक साथ कई तल पर जी रहे होते हैं हर तल के सुख का अनुभव करने के लिए आपको इवाल्व होना पड़ता है। सुख का अनुभव करने हेतु आपको अपने को उस योग्य बनाना पड़ता है, आपको बारिश की बूंदों को सहजने के लिए स्वयं को सरस बनाने के लिए दोमट बनना पड़ता है नही तो आनंद की वर्षा आपके संगमरमर मन को छूकर बह जाती है और आप अपने संगमरमरी जीवन की चकाचौंध उसे महसूस नही कर पाते फिर सुख की तलाश में बाबा से लेकर ड्रग की तलाश में भटकने को ही जीवन बना बैठते हो।
जिसे सुबह शाम का सौन्दर्य देखने का सौभाग्य जिसे प्राप्त है, वही समृद्ध और आनंदित है, वही ईश्वर के निकट है । मलय समीर का स्पर्श, आकाश को धीरे धीरे सुहागन होते देखना, पत्तों के संगीत पर पंछियों के पंचम स्वर का श्रवण, टिप टिप झरती ओस की अनुभूति, फुलवारी का मुस्कराना, भगवान भास्कर का उदित होने का जो साक्षी हुआ वही जीवन जिया, सांझ के बादल जिसने देखे उसी ने जीवन जिया ।
जीवन उतना है जितना अनुभूति किया बाकी सब कुछ और हो सकता और जीवन नही हो सकता।
हरित कुंतला धरती प्रतिदिन सुबह अपनी झोली में सौभाग्य के मोती लाकर हम पर बिखेर देती है। हमने जितनी मुक्तामणियाँ बटोर लीं उतने ही नूपुर जीवन को झंकृत करेंगे। ध्यान रखिये कि धरती कभी ओवरटाइम नही करती, जीवन मे उतना ही काम करना है जितने से हमारा काम चल जाये, बाकी आप दूसरों के लिए बेगार करने को स्वतंत्र हैं। आप धरती पर सुख को जीने के लिए आये हैं, यह आनंद किसी नौकरी, व्यापार या अन्य तरीके से नही मिलने वाला बल्कि यह तो जग व्याप्त है, सहज मिलने वाला है निर्भर आपकी पात्रता करती है आप कितने सुख के हिस्से को छू पाते हैं।
आनंद है आनंद ही सौभाग्य है, सौभाग्य ही पुण्यों का फल है और सुखी होना ही पुण्य कर्म है।
बहुत समय पहले शैली की एक कविता पढी थी, 'ओड टू द वेस्टर्न विंड'। भाव यह था कि स्वय को तप्त रखकर यह पवन बारिश का कारण बन जाता है। तीव्र वेग होने के कारण जमीन पर छितरे झाड झंख़ाडो को उडा ले जाता है। इसकी दिशा हमेशा पूर्व की ओर है। वह कविता मन मे बस गयी। बरसो बरस बाद मेरे द्वारा बनाया गया यह ब्लाग उसी भाव का स्फुटन है।
समाजशास्त्रीय मंच: The Socological Forum
गुरुवार, 23 दिसंबर 2021
जीवन उतना ही है जितना हमने सुख से जिया
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