रविवार, 8 जून 2014

गीली खुशबुओं वाली भाप

पीले कनेर के फूल
असाढ़ की बारिश
भीगी हुयी गंध।
जी करता है 
अंजुरी भर भर पी लूँ
गीली खुशबुओं वाली भाप।
और चुका दूँ सारी किश्तें
चक्रवृद्धि ब्याज सी
बरस दर बरस बढ़ती प्यास की।
चूर चूर झर रही
चंद्रमा की धूल, कुरुंजि के फूलों पे
कच्ची पगडंडियों से गुजरती
स्निग्ध रात उतर जाती है।
स्वप्नों की झील में
कंपित जलतरंग, दोलित प्रपात
फूट रहे ताल कहीं राग भैरवी के।
ओह्ह …
यह परदा किसने हटाया ?
कि धूप में पड़ी दरार
घाम में विलुप्त ख्वाब
रेत हुआ मौसम
निर्जल वन में,
सूखे काठ सा मन ।