'कभी
हसरत थी आसमां छूने की अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की',ओपनिंग लाइन है डॉ. कुमारेंद्र सिंह सेंगर आत्मकथा 'कुछ सच्ची और कुछ झूठी की'। शुरुआती
पंक्तियों से ही पता चल जाता है कि लेखक ठहराव वाले
मिज़ाज का व्यक्ति
नहीं है। अपनी
आत्मकथा के बारे में कुमारेंद्र लिखते हैं कि
इसकी कल्पना उन्होंने तब की थी जब वह बचपन में महापुरुषों
की जीवनी/संस्मरण पढ़ते थे और उनके मन में ख्याल आता था कभी ऐसी ही उनकी जीवनी या
संस्मरण लोग पढ़ेंगे । एक तरीके
से उनकी आत्मकथा, उनके
द्वारा बचपन में देखे गए स्वप्न के
यथार्थ में परिणीति है। वैसे तो पुस्तक का नाम 'कुछ सच्ची कुछ झूठी'
है किंतु कुमारेंद्र शुरू में ही स्पष्ट कर देते हैं
सब कुछ सच्ची
है कुछ भी झूठी नहीं है। वह कहते हैं कि ये जो झूठी बात है दरअसल वह सत्य ही है पर
किसी और तरीके से कही गयी बात है। शायद समाज के मापदंड और कुमारेन्द्र की छवि उस
सत्य के
अनुरूप नही है इसलिये कुछ बातों को झूठ के खोल में प्रस्तुत किया गया है।
यह लेखक की ईमानदारी है जो पहले ही स्वीकार कर लेता है कि झूठ झूठ नही है। इस पुस्तक को कुल अठहत्तर शीर्षकों में समेटा गया है। यह सारे शीर्षक कुमारेंद्र के जीवन से जुड़े हुए वे मोड़ हैं जहाँ पर उन्होंने जीवन के महत्वपूर्ण हिस्सों को बिताया है। कुछ शीर्षक उनके जीवन दर्शन से जुड़े हुए हैं जो चालीस वर्ष के अनुभवों से प्राप्त हुए। कुमारेन्द्र लिखते हैं कोई इंसान संपूर्ण नहीं होता, कोई अपने में परिपूर्ण नहीं होता, खुद की कमियाँ जान कर खुद को सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए जो अपने हैं उन्हें अपने से दूर ना होने देने की कोशिश इसी जिंदगी में करना है क्योंकि यह जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। यही लेखक की संवेदनशीलता और फलसफा दोनों है।
यह लेखक की ईमानदारी है जो पहले ही स्वीकार कर लेता है कि झूठ झूठ नही है। इस पुस्तक को कुल अठहत्तर शीर्षकों में समेटा गया है। यह सारे शीर्षक कुमारेंद्र के जीवन से जुड़े हुए वे मोड़ हैं जहाँ पर उन्होंने जीवन के महत्वपूर्ण हिस्सों को बिताया है। कुछ शीर्षक उनके जीवन दर्शन से जुड़े हुए हैं जो चालीस वर्ष के अनुभवों से प्राप्त हुए। कुमारेन्द्र लिखते हैं कोई इंसान संपूर्ण नहीं होता, कोई अपने में परिपूर्ण नहीं होता, खुद की कमियाँ जान कर खुद को सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए जो अपने हैं उन्हें अपने से दूर ना होने देने की कोशिश इसी जिंदगी में करना है क्योंकि यह जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। यही लेखक की संवेदनशीलता और फलसफा दोनों है।
अमूमन आत्मकथा में लेखक वह सभी बातें लिखता है जो उसके जीवन में
दबी छुपी
हुई होती खासतौर से व्यक्तिगत जीवन में आए उतार-चढ़ाव के बारे में। कुमारेंद्र स्वयं लिखते हैं कि बात आत्मकथा की हो तो लोगों की यह
जानने की इच्छा रहती है लेखक के जीवन की व्यक्तिगत संबंधों को सार्वजनिक किया जाए
किंतु जब लेखक यानी कुमारेंद्र के
जीवन में घटित प्रेम कहानियों की बात हो
थोड़ी निराशा होती है। उन्होंने यह स्वीकार तो किया है
कि उनके
प्रेम संबंध ढेर सारे लोगों से रहे हैं पर किसी विशेष घटना किसी विशेष व्यक्ति का
संदर्भ देने से लेखक ने स्वयं को बचा लिया शायद यहाँ सोशल स्टिग्मा आड़े आ गया। यहाँ पर प्रेम कहानियों की जगह पाठक को
प्रेम के दर्शन से रूबरू होना पड़ता है।
कुमारेंद्र अपनी आत्मकथा में जब अपने बचपन की बात कर रहे होते हैं तो ऐसा
लगता है कि वह सभी के बचपन की बात कर रहे हो।
पहले दिन स्कूल जाने की बात, इस स्कूल में शिक्षकों की बात दोस्तों की बात खेलों
की बात खिलौनों की बात सारी बातें ऐसी लगती हैं कि वह हमारी कहानी हो और उसे
तुम्हारे अपनी आत्मकथा के माध्यम से लिख रहे हो दूरदर्शन का प्रारंभिक दौर का वर्णन कुमारेंद्र ने बड़ी खूबसूरती के साथ
अपनी कथा में किया। ऐसे ही एक कहानी साइकिल के बारे में है । कुमारेन्द्र
अपने अपने दो दोस्तों के साथ चार आने
किराए पर साइकिल पूरे दिन उसे चलाते रहे फिर शाम को घर ले गए। दोस्तों ने साइकिल को अपने पास रखने से मना कर
दिया(कितने चालाक दोस्तों के साथ दोस्ती रही ) तो वह उसे अपने घर ले गए और छत पर छिपा दिया । शाम को साइकिल वाला कुमारेंद्र के घर पहुँच गया
तो उन्हें लगा कि पिताजी अब पिटाई करेंगे पर जब उन्होंने सच सच बात पिताजी को बताई तो पिताजी ने कुमारेन्द्र से कुछ नहीं कहा।
बहुत सारे
बच्चे झूठ बोलकर किसी समस्या से बचने का प्रयास करते हैं पर कुमारेंद्र सच बोलकर समस्याओं को सुलझाने की
कोशिश बचपन से ही करने लगे। ऐसी
बहुत सी कहानियां हैं, नानी के गांव की बात, क्रिकेट की बात, लोकल फोन से पहले पहली बार बात करना, पहली बार रोटी बनाने की बात और कुछ बहुत कोमल बातें हैं
जैसे अपने साथ पढ़ने वाली लड़की जो कि गाने में बहुत अच्छी थी उसकी चर्चा
कुमारेन्द्र अत्यंत सतर्कता से करते हैं ।
इसके साथ-साथ
खिड़की वाले भूत की बातें, रक्तदान की बातें और पहली बार दुनाली चलाने वाली
बात का उल्लेख उन्होंने विशेष तौर पर किया है।
आज हम
कुमारेंद्र का एक यूट्यूब चैनल देखते हैं जो कि ‘दुनाली’ के नाम पर है तो यह लगता
है उन्हें इसकी प्रेरणा उन्हें पहली बार फायर किए हुए दुनाली से मिली।
कुमारेन्द्र की आत्मकथा पढ़ते हुए हुए उनके रूबरू होने का मौका मिलता है चाहे वह उनका दबंग रूप हो या उनके कोमल मनोभाव हों अथवा गैर बराबरी के विरुद्ध मन में आए आक्रोश की बात, कुमारेंद्र हर समय न्याय के पक्ष में ही खड़े मिले । कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने के लिए कुमारेंद्र ने 1998 में अजन्मी बेटियों को बचाने के लिए अभियान छेड़ा । वह उस समय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते थे, बिना किसी की मदद के खुद इस पर काम करने का फैसला किया । कोई फंडिंग नहीं, कोई प्रशासनिक सहयोग नहीं पर इन्होंने अपना राष्ट्रव्यापी अभियान ‘बिटोली’ शुरू कर दिया और आज उसी को व्यापक जनसमर्थन मिलता हम देख सकते हैं। आत्मकथा के बीच- बीच में लेखक के सुकोमल संवेदनाओं के भी चित्र हमें दिखते हैं जैसे अगस्त के रविवार को आने वाले फोन को लेकर कुमारेंद्र की प्रतीक्षा आज भी निरंतर जारी है। कोई कितना बड़ा भी लेखक हो जाए लेकिन पहली बार उसके लेखन धर्म को स्वीकृति मिलना और साथ ही उसका सम्मान होना उसे कभी नहीं भूलता।
कुमारेन्द्र की आत्मकथा पढ़ते हुए हुए उनके रूबरू होने का मौका मिलता है चाहे वह उनका दबंग रूप हो या उनके कोमल मनोभाव हों अथवा गैर बराबरी के विरुद्ध मन में आए आक्रोश की बात, कुमारेंद्र हर समय न्याय के पक्ष में ही खड़े मिले । कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने के लिए कुमारेंद्र ने 1998 में अजन्मी बेटियों को बचाने के लिए अभियान छेड़ा । वह उस समय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते थे, बिना किसी की मदद के खुद इस पर काम करने का फैसला किया । कोई फंडिंग नहीं, कोई प्रशासनिक सहयोग नहीं पर इन्होंने अपना राष्ट्रव्यापी अभियान ‘बिटोली’ शुरू कर दिया और आज उसी को व्यापक जनसमर्थन मिलता हम देख सकते हैं। आत्मकथा के बीच- बीच में लेखक के सुकोमल संवेदनाओं के भी चित्र हमें दिखते हैं जैसे अगस्त के रविवार को आने वाले फोन को लेकर कुमारेंद्र की प्रतीक्षा आज भी निरंतर जारी है। कोई कितना बड़ा भी लेखक हो जाए लेकिन पहली बार उसके लेखन धर्म को स्वीकृति मिलना और साथ ही उसका सम्मान होना उसे कभी नहीं भूलता।
कुमारेंद्र के जीवन में दो ऐसी घटनाएं हैं जो कि उनके मजबूत इच्छाशक्ति से परिचित कराती है । पहला उनके पिताजी का देहांत और दूसरा कुमारेंद्र की ट्रेन
के साथ दुर्घटना । पिता के आदर्शों को मन में बसाए और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लेकर
कुमारेंद्र आज भी निरंतर कार्यरत हैं। वह कहते हैं कि जब आज भी वह आंखें बंद करते हैं
तो अपने आसपास अपने पिता का होना पाते हैं, दुविधा के समय वह अपने पिताजी को याद
करते हैं सोचते हैं कि पिताजी होते तो ऐसा
करते, किंतु अब बस यादें है, कुछ गुदगुदाती, कुछ हँसातीं तो कुछ
आंखें नम कर देती हैं । दूसरी घटना दुर्घटना से जुड़ी हुई है। ऑपरेशन थिएटर में कटे पैर को लगाने की बात सुनकर कुमारेंद्र अंदर तक हिल जाते हैं लेकिन ऐसे वक्त पर उनका मित्र रवि
चट्टान बन कर उनके साथ खड़ा रहता है। कुमारेन्द्र अपने मित्र के लिए
विह्वल हैं वह कहते हैं, काश ऐसी दोस्ती
हर जन्म मिले और सभी को मिले।
दुर्घटना के बारे में बताते हुए कुमारेंद्र कहते हैं कि चंद पलों की अपनी विषम स्थिति में ऊपर से
गुजरती ट्रेन की गति से भी तेज गति से न जाने क्या-क्या सोच लिया। सही बात
है एक एथलीट्स जो कभी मैदान पर दस हजार मीटर की दूरी को हंसते-हंसते नाप
लेता था आज एलिम्को में दो स्टील छड़ों के
सहारे चलने का अभ्यास कर रहा है ।
लेकिन यहीं पर कुमारेंद्र पूरी जिजीविषा और मजबूत इरादे के साथ
सामने आते हैं और वह फिर जिंदगी को दुबारा
और बेहतर ढंग से जीने के लिए तैयार खड़े होते हैं।
आत्मकथा में लेखन की चर्चा काफी रोचकता लिए हुए है । दस वर्ष की उम्र से कविता लेखन और उसके प्रकाशन के साथ-साथ कुमारेंद्र के अंदर का लेखक
समय के साथ युवा होता चला गया, परिपक्व
होता चला गया। कुमारेंद्र भारी-भरकम रीतिकालीन शब्दावली से दूरी बनाकर आम बोलचाल की भाषा में
कहानी कविता ग़ज़ल लिखने लगे। वह लिखते हैं कि छपास के चलते ही ब्लॉगर बन गये।
आज ब्लॉगजगत ‘रायटोक्रेट कुमारेन्द्र’ किसी परिचय का मोहताज नही है। लगभग सभी
विधाओं में स्वाभाविक अधिकारपूर्ण लेखन करते हुए विभिन्न विषयों पर लगभग लेखक की दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी । कुमारेंद्र फोटोग्राफी, पेंटिंग, स्केचिंग का भी शौक रखते हैं। इन्होंने सोशल मीडिया में व्यंग्य की अत्यंत
लोकप्रिय लघुकथन को भी विकसित किया है
जिसे आप ‘छीछालेदर रस’ के नाम से जानते
हैं।
कुमारेंद्र
का जीवन संघर्ष का पर्याय रहा है । परिवार को साथ लेकर (यहां परिवार का तात्पर्य
पति पत्नी से नहीं बल्कि पिता के बाद संपूर्ण पारिवारिक सदस्य ) पारिवारिक सदस्यों
को सहारा देना, पढ़ाना, आगे बढ़ाना, खुद दो-दो विषयों में पीएचडी करना, अपने आप
में संघर्ष की पराकाष्ठा को परिलक्षित
करता है। इन सबके
बावजूद कुमारेंद्र ने गंभीर मुद्रा को कभी वरीयता नहीं दी बल्कि
जिंदगी को मौज मस्ती के अंदाज में जीते रहे।
अपनी आत्मकथा में कुमारेंद्र एक बात का खास तौर
पर उल्लेख करते हैं जब वह
सीएसडीएस से जुड़े तो इसकी कार्यप्रणाली
के दोहरे मापदंड के बारे में कुमारेंद्र
ने जब कर्ता-धर्ताओं से चर्चा की परिणामस्वरूप उन्होंने संस्था से कुमारेंद्र को टर्मिनेट कर दिया। पूरा प्रकरण यह बताता है कि चैरिटी, अध्ययन के
नाम पर किस तरह के नरेटिव सेट किये जाने का काम होता है और मनी मोब्लाइजेशन का काम
तो साइड में चलता ही रहता है । इन
सब के बावजूद कुमारेंद्र की जिंदादिली में कोई अंतर नहीं आया। अपने
कथा का आखरी पन्ना वह अपने यारों को समर्पित करते हैं और कहते हैं, ‘यात्रा में
अच्छे बुरे कड़वे मीठे अनुभवों का स्वाद चखने को मिला । सपनों का बनना बिगड़ना रहा। वास्तविकता और कल्पना की सत्यता का आभास होता
रहा। कई बार
जीवन सरल और जाना पहचाना लगा तो कई बार अबूझ पहेली की तरह सामने आकर खड़ा हो गया
लेकिन अंधेरों के सामने दिखने पर उसको अपने भीतर समेट सब कुछ रोशनी में बदल देने
की शक्ति भी प्रस्फुटित होने लगती। ऐसा
क्यों होता? किसके कारण होता? ना जाने कितने सवालों के दोराहे तिराहे चौराहे से गुजरते हुए यदि कोई जीवन शक्ति
सदा साथ रहे तो वह हमारे दोस्तों की शक्ति।‘
पुराने दोस्तों की दोस्ती और नए मित्रों का संग,
सभी नए पुराने रंगों को मिलाकर जीवन एक खूबसूरत
कोलाज बनाने की कोशिश की गयी है। ईश्वर करे
इस कोलाज के रंग हर दिन गहरे होते जायें।
हम उम्मीद करेंगे कि कुमारेंद्र अपनी आगामी
संस्मरण या आत्मकथ्य पुस्तक में उन तमाम रंगों का उद्घाटन करेंगे जो अभी श्वेत
प्रकाश में सप्तरंग जैसे छुपे हैं ।
शुभकामनाओं के साथ
डॉ पवन विजय