धर्म और राजनीति पर चर्चा करने के क्रम
में धर्म को समझना आवश्यक है। ‘धारयति
इति धर्मः’ जो धारण करने योग्य है वही धर्म है । यह बहस का
विषय हो सकता है कि क्या धारण करने योग्य है, देश काल
परिस्थितियों में वह भिन्न भिन्न हो सकता है पर भिन्नता का आधार केवल रूपरेखा ही
है विषयवस्तु नही। विषय वस्तु तो एक ही है और वह है निरंतर सुख पूर्वक जीना। जो भी
धारण करने से निरंतर सुख मिले वही धर्म है। पानी का धर्म है प्यास बुझाना चावल का
धर्म है भूख मिटाना ठीक उसी तरह मानव का धर्म है निरंतर सुख पूर्वक जीना।मानव समाज
में सुखी होने के लिए अभय की आवश्यकता होती है यह अभय भौतिक वस्तुओ की उपलब्धता,
आपसी
सम्बन्ध और समझ पर आधारित होती है। दुनिया के सारे तौर तरीके इसी सुख की खोज और खोजने के बाद उस सुख को बनाये रखने
के क्रम में होते हैं। एक चोर भी चोरी सुखी होने के लिए करता है जिस दिन उसे समझ
में आयेगा कि चोरी करके वह अभय जीवन नही जी सकता
वह चोरी करना छोड़ देगा जैसा कि डाकू रत्नाकर या अंगुलिमाल ने किया था ।
इसलिए भारतीय परम्परा में ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत चित से प्राप्त आनंद
ही मोक्ष है ईश्वर की प्राप्ति है। उस आनंद को व्यक्तिवाचक बनाकर उसे पाने के लिए ढेर सारे लोगों अपने अनुभव को आधार
बनाकर रास्ते बनाये जिसे हम सामान्यतः आज धर्म के रूप में परिभाषित करते हैं,
मसलन
इन बाबाजी का रास्ता, उन बाबाजी के मार्ग, मसीहों के बताये
धर्म वगैरह। व्यक्ति के अनुभव के आधार पर
मार्ग चुनने के खतरे भी बहुत हैं इनके पर्याप्त परीक्षण की आवश्यकता है जिस पर
चर्चा हो सकती है लेकिन यह बात तो
प्रामाणिक है कि धर्म सुख का मार्ग
प्रशस्त करता है। राज्य का अस्तित्व भी उसे सुख को सुनिश्चित करने के लिए हुआ है
अब दोनों एक दूसरे से अलग नही हो सकते। राज्य धर्म से निरपेक्ष कैसे हो सकता है?
धर्म
के निहितार्थ कर्तव्यों के निर्वहन में है, स्वधर्मे निधनं
श्रेयः अर्थात अपने कर्तव्य पालन में मरना
श्रेयस्कर है। राजा कर्तव्य पालन से विमुख कैसे हो सकता है? नही हो सकता है?
राज्य
प्रमुख का धर्म, कोई पंथ विशेष नही बल्कि उसकी जनता के
प्रति जवाबदेही है। आज सविधान में मूल
कर्तव्यों की व्यवस्था है। यही कर्तव्य ही तो धर्म है।
धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत से संकट
वर्तमान समाज में हमे देखने को मिलते है
लेकिन उत्तर बहुत सरल है जब तुलसी बाबा कहते हैं, ‘परहित सरिस धरम
नही भाई , परपीड़ा सम नही अधमाई’ तो इसी एक पंक्ति में सारा निचोड़ आ
जाता है, या जब वेद उद्घोष करते हैं कि ‘आत्मवत्
सर्वभूतेषु यस्य पश्यति सह पंडितः’
तो
भी धर्म स्पष्ट हो जाता है कि सभी
प्राणियों में मैं स्वयं को देखता हूँ सभी मेरे जैसे हैं जिस बात से मुझे कष्ट
होता है उससे दूसरों को भी तकलीफ होती होगी। ‘आत्मन
प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत’ अपने से प्रतिकूल कर्मों को नहीं करना
धर्म है। जिन स्मृतियों की रुढियों को
लेकर इतनी आलोचनाएँ होती हैं उन्ही में
धर्म की इतनी सुंदर परिभाषा दी गयी है उतनी आजतक मैंने किसी ग्रन्थ में नही देखी,
‘धृति क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय
निग्रह
धी विद्यासत्य्माक्रोधो दशमेकम धर्म
लक्षणं’
धर्म की इस परिभाषा में आप बताइए कि
क्या गलत है और किसे इसका पालन नही करना चाहिए या इसमें क्या साम्प्रादायिक है ?
अभी
केन्द्रीय विद्यालयों में ‘असतो माँ सद्गमय’ को हटाने को लेकर एक याचिका दायर की
गयी है जिसमे कहा गया है कि इस वाक्य से धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ गयी है। यह
बात समझ से परे है कि असत्य से
सत्य की ओर जाने से धर्मनिरपेक्षता कैसे खतरे में आ जाती है। कल को न्यायालयों में से ‘यतो
धर्मः ततो जयः’ को हटाने की बात की जायेगी परसों ‘सत्यम
शिवम् सुन्दरम’ की बात आएगी फिर ‘योगक्षेम’
पर
सवाल उठाये जायेंगे, दरअसल मामला कुछ और ही है।
जिसे हमे समझाया गया और पढ़ाया है कि
फलाने हमारा धर्म है वह तो है ही नही वह संगठन हो सकता है,
पंथ हो सकता है,
सम्प्रदाय हो सकता है,
रिलिजन हो सकता है पर भारतीय सन्दर्भ में
वह धर्म नहीं हो सकता है। उन लोगों का मानना है कि हमारे संगठन की बात मानी जाए
इसलिए बार बार धर्म से निरपेक्ष होने की बात आती है। लेकिन संगठन और धर्म में फर्क
है। धर्म केवल और केवल आपका विवेकयुक्त
कर्तव्य है।
एक बार विश्वामित्र घूमते हुए अकाल
क्षेत्र में पहुँच गये। उन्होंने एक व्याध के घर भिक्षा मांगी तो उन्हें कुत्ते की
हड्डी कि भिक्षा मिली । भूख से व्याकुल होकर जैसे ही वह उसे खाने को उद्यत
हुए व्याध ने जब
पूछा कि आपने तो एक संत का धर्म
भ्रष्ट कर दिया। विश्वामित्र बोले संत का धर्म उसका कर्तव्य है । इस समय मेरा धर्म
कहता है कि शरीर की रक्षा सर्वोपरी है क्योंकि
शरीर से ही धर्म पालन होगा अतः वह खाद्य सिर्फ देह के पालन करने के लिए था
यदि मैं स्वाद के लिए उसे खाता तो धर्म
भ्रष्ट होता। आपका विवेकयुक्त कर्तव्य
आपके धर्म का निर्धारण करता है।
यही भारतीय धर्म की खूबी है जो इसे
सनातन और सबकी आवाश्यकताओं की पूर्ति करने वाला बनाता है जो बिना किसी फ्रेम, बिना किसी आकार,
और
बिना किसी प्रवर्तक के निरंतर सदानीरा की भांति प्रवाहित है। आप शाकाहारी हैं,
नही
हैं, आप कपडे पहनते हैं, नही पहनते, आप जप करते हैं,
नही
करते तब भी आप उसी धर्म का हिस्सा हैं। लोकतंत्र यह सहिष्णुता का सर्वोच्च रूप आप
यहाँ पर पाते हैं जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा कि सनातन धर्म उस शर्ट के जैसे
है जो भी पहनता है उसके जैसा हो जाता है। जैसा आप चाहो आपको मिलेगा। गीता में श्रीकृष्ण इसी बात को बार बार कहते हैं कि जो
जिस भाव से उन्हें भजता है वह उसी भाव में उसे प्राप्त होते हैं। वैश्विक बंधुत्व
का उद्घोष ही धर्म है।
राज्य को सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना
चाहिए पन्थ से निरपेक्ष होना चाहिए पर धर्म से निरपेक्ष वह हो ही नही सकता।
महात्मा गांधी इस बात को बड़े अच्छे तरीके से कहते हैं कि धर्मविहीन राजनीति ‘सेवेंथ
सिन’ (घोर पाप ) के समान है गांधीजी ने
राजनीति को धर्म से अलग करने के सुझाव को अस्वीकृत कर दिया , क्योंकि
उन्होंने लोगों की आजीवन सेवा के माध्यम से सत्य की तलाश के रूप में धर्म को एक नई
परिभाषा दी। यह विवेकानंद के विचारों का ही प्रभाव था कि गांधीजी यह कहने में
समर्थ रहे कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे
यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है? गांधीजी ने यह
भी कहा कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका
नहीं देता हूँ । यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए,
क्योंकि
आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी
भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से
लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा
तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शों
को विकसित करना। बार-बार गांधीजी ने यह रेखांकित किया कि सिद्धांतहीन
राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती
है। गांधी जी रामराज को आदर्श राज्य का माडल
मानते हैं। रामराज्य की अवधारणा का आधार ही स्वधर्म है। गांधीजी सेक्युलर
बिलकुल नही हैं वह रामचरित मानस को उद्धृत
करते हैं,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं
काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं
स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
'रामराज्य' में दैहिक,
दैविक
और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में
बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। अब यहाँ
पन्थ को धर्म समझने वालों की मजबूरी हो जाती है कि वे रामराज्य को सांप्रदायिक
कहें और धर्म को राजनीति से दूर रखने की बात करें। यह इसलिए भी क्योंकि उससे दूसरी
किस्म की नैतिकता दूसरे किस्म के तौर तरीकों को व्यवस्था उन्हें में ले आने का
अवसर मिलता है।
राज्य चार चीजों से मिलकर बनता है
क्षेत्र लोग सरकार और संप्रभुता राज्य के ठीक से चलने के लिए जरूरी है कि राज्य की
सीमाए ठीक हों लोगों का आचरण ठीक हो सरकार न्यायप्रिय हो। उसकी संप्रभुता को बाकी
के देश मानें। इनमें से सभी से महत्वपूर्ण है लोगों का आचरण यदि आचरण दुरुस्त है
तो राज्य संगठित है विकास कर पायगा। कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक नीति प्रगति में बाधक हैं मैं एक उदाहरण देता हूँ एक नीति कार्य ही पूजा है।यह नीति किस तरह राज्य को आगे बढ़ने में मदद करते हैं
इसे समझा जा सकता है । औद्योगीकरण के लिए यह जरूरी कि अधिक मात्रा में उत्पादन हो
उसके लिए कार्य का ठीक तरीके से होना जरूरी है। अब लोगों के मूल्य कार्योंमुख होने
से औद्योगीकरण को गति मिलती है इससे राज्य तेजी से विकास की ओर बढ़ता है। धर्म नैतिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से राज्य को
संगठित करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें धर्म
नही चाहिए। दरअसल वे पुरखों की विरासत
को समझने में नाकाम रहते हैं ये लोग हाथी की पूंछ को छूकर मानते हैं कि अनुभव के
आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि हाथी झाडू जैसा होता है और इसी बात को सभी माने क्योंकि
यही प्रत्यक्षवाद है। ये वो लोग हैं जो
धर्म को अफीम मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुनिया को चलाने का पुरजोर समर्थन
करते हैं। दरअसल धर्म को रुढ़िवादी घोषित कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर इस
दुनिया का जितना नुकसान पिछले १०० सालों
में किया गया है उतना जब से मानव सभ्यता अपने अस्तित्व में आई कभी नही हुआ।
विज्ञान के नाम पर हमने अपनी नदियों को दूषित कर दिया हवा मिटटी सबको गंदा कर
दिया। विज्ञान ने हमे दो विश्व युद्ध थमा दिए तीसरे के मुहाने पर दुनिया बैठी है।
जो सबसे विकसित और वैज्ञानिक देश होने का दावा करता है उस अमेरिका ने तीस बार
दुनिया को नष्ट करने के लिए परमाणु हथियार बना कर रखे हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें
विज्ञान की क्या गलती तो यही बात धर्म पर लागू होती है।
जब धर्म राज्य के विस्तार का साधन बन
जाए तो वह धर्म नही होता है, धर्म मानव के आत्म विस्तार का साधन है।
बाहर के मुल्कों का घोषित धर्म केवल राज्य के विस्तार का साधन मात्र था जबकि भारत
का धर्म अध्यात्म है। आज आवश्यकता है कि
धर्म के मूल को बड़े सरल तरीके से समझकर उसके आधार पर राजनीति करने की ताकि हर
भारतीय अपने सर्वोच्च मूल्य को प्राप्त कर सके।