शनिवार, 19 दिसंबर 2020

स्त्री तुम केवल योनि हो


कंगना राणावत और दिलजीत दोसांझ के मध्य संवाद का एक समाजशास्त्रीय पहलू है और वह है  उसमें स्त्री पुरुष की आइडेंटिटी से जुड़े मुद्दे। बातचीत कुछ भी हुयी हो पर कंगना को आखिरकार  लैंगिक  दांव से ही पटका जा सका। ट्विटर पर चले ट्रेंड ‘दिलजीत कंगना को पेल रहा है’ ने इस बात को और भी पक्का पोढ़ा किया कि स्त्री को ‘पेल’ कर ही उसे नीचे गिराया जा सकता है संवाद के माध्यम से नही। ठीक यही स्थिति सपना चौधरी को भी लेकर हुयी थी जब उन्होंने कांग्रेस/भाजपा  ज्वाइन करने की बात की थी तब आई टी सेल से लेकर तमाम हरावल दस्ते उनको ‘पेलने’ सामूहिक रूप से टूट पड़े थे।

घर, बाहर, दफ्तर, जगह कोई भी हो स्त्री को ‘माल’ के रूप में ही देखा जाना एक ‘नेचुरल’ सी बात स्थापित होती जा रही है। अगर आप इस माल फैक्ट से हट कर बात करते हैं तो समूह में आपकी एंट्री ‘फ़क बैकवर्ड’ कह कर   कर दी जायेगी। मजेदार बात यह है कि स्त्रियाँ भी इस ‘माल आइडेंटिटी’ को स्वीकार करना एक प्रोग्रेसिव बात मानने लगी हैं और बहुत सी संख्या में ऐसी महिलायें अपने को केवल  योनि के रूप में  समझे जाने को   गौरव के रूप में लेती है बस योनि की जगह ‘सेक्सी’ शब्द  प्रयुक्त होता है।

किसी शिक्षिका , अभिनेत्री, नृत्यांगना, कवयित्री या किसी भी रूप में कार्यरत महिला की पहचान केवल महिला के रूप में ही  मानी जाती है। कार्य की अपेक्षा शरीर की चर्चा समाज में आम है। इसका एक और परिणाम होता है, शरीर के आधार पर  महिलाओं में ही विभेदीकरण बनने लगता है। कुछ लोगों को यह बात ठीक लग सकती है  कि शारीरक सौष्ठव या आकर्षण का एक स्थान है पर शरीर के आधार पर ही स्तरीकरण करना मानवीय उद्विकास पर घोर प्रश्न चिन्ह लगाता है। गली कूचे खुलते ब्यूटी पार्लर और जिम अपने शरीर के प्रति  असंतुष्टता के प्रतीक हैं कि आपकी खाल अच्छी नही आपके गाल अच्छे नही आपके शरीर का विन्यास ठीक नही है। एक अनचाहा दबाव एक स्त्री पर यह होता है कि वह मानकों के अनुरूप अपने शरीर को बनाए रखे नही तो ग्रुप से आउट होने का खतरा बना रहेगा।

सेक्सी दिखने की चाह अपने को केवल योनि/ ‘माल’ में  बदलना है। समाज  को योनि और  व्यक्ति में अंतर की परिभाषा को स्पष्ट करना होगा नही तो वह यह स्वीकार कर ले कि मनुष्य अभी भी बर्बर युग में रह रहा है सभ्यता का ‘स’ भी उसे छू नही पाया है।  

    


शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

फरवरी नोट्स ऐसे ही एक बहाव की कहानी है, जो बुरी हो कर भी मीठी लगती है

 बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जो एक बैठक में ही समाप्त हो जाती हैं। मतलब एक बार पढ़ना शुरू किये तो आप बिना खत्म किये उठ नहीं सकते। फरवरी नोट्स एक ऐसा ही उपन्यास है।

प्रेम सृष्टि की सबसे मीठी अनुभूति का नाम है। कातिक के नए गुड़ की तरह, जेठ में पेंड़ पर पके पहले आम की तरह... यह व्यक्ति को किसी भी उम्र में छुए तो प्यारा ही लगता है। कभी कभी अपने बुरे स्वरूप में आ कर सामाजिक मर्यादा को तोड़ता है, तब भी मीठा ही लगता है। व्यक्ति समझता है कि गलत हो रहा है, पर रुक नहीं पाता। बहता जाता है... फरवरी नोट्स ऐसे ही एक बहाव की कहानी है, जो बुरी हो कर भी मीठी लगती है।कहते हैं फरवरी का महीना प्रेम का महीना होता है। सबके जीवन में कोई न कोई फरवरी ऐसी जरूर होती है जिसे याद कर के वह बुढ़ापे तक मुस्कुरा उठता है। फरवरी नोट्स ऐसी ही कुछ यादों का संकलन है।
उपन्यास की कहानी है अपने अपने जीवन में खुश समर और आरती की, जो कॉलेज लाइफ की किसी फरवरी की यादों में बंध कर वर्षों बाद दुबारा मिलते हैं, और एक दूसरे का हाथ पकड़ कर कुछ कदम साथ चलते हैं। यह साथ अच्छा हो न हो, मीठा अवश्य है। इतना मीठा, कि पाठक का मन उस मिठास से भर जाता है।
हिन्दी में बहुत कम लेखक ऐसे हैं जो प्रेम लिखते समय वल्गर नहीं होते। काजल की कोठरी से बच के निकलना बड़ा कठिन होता है। डॉ पवन विजय इस मामले में अलग हैं। वे बेदाग निकल आये हैं। वे गलती लिखते समय भी गलती नहीं करते...
मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसी कहानियों का समर्थक नहीं, फिर भी मैंने फरवरी नोट्स बिना रुके एक बार में ही पढ़ी है। यह शायद हम सब के भीतर का दोहरापन है...
तो यदि आप लीक के हट कर कुछ अच्छा पढ़ना चाहते हैं, तो फरवरी नोट्स अवश्य पढ़ें। मेरा दावा है, आप निराश नहीं होंगे।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

फरवरी नोट्स : प्रेम गली अति सांकरी

 फरवरी नोट्स (प्रेम गली अति सांकरी...)

फरवरी का महीना प्रेम का प्यार का महीना जाना जाता है , प्रेम का महीना और पूरे साल के महीनों में सबसे कम दिन वाला , शायद प्रेम से जुड़ा है इसलिए कुछ छूटा हुआ सा लगता है यह पूरे साल में।
इसी महीने के नाम पर डॉ पवन विजय जी का लिखे उपन्यास "#फरवरीनोट्स " ने अपनी तरफ ध्यान आकर्षित किया ,यह जानने की उत्सुकता हुई कि जिस सरल सहज ,स्वभाव वाले "व्यक्तित्व "से मैं मिली हूँ और जिन्होंने मुझे "अमृता प्रीतम "से जुड़े उपन्यास को लिखने के लिये प्रेरित किया था ,आखिर उन्होंने इस प्रेम विषय को कैसे अपने इस "फरवरी नोट्स उपन्यास "में शब्दों में ढाला है ,बस मेरी यही पढ़ने की उत्सुकता ने पिछले बीते सप्ताह में अमेज़ॉन से ऑर्डर करवा ही दिया। वैसे भी इस उपन्यास के बारे में इतने अच्छे सकरात्मक पोस्ट पढ़ रही थी कि लगा यह तो अब पढ़ना ही चाहिए ।
"फरवरी नोट्स "मेरे पास सर्दी की हल्की सी खुनक लिए अक्टूबर के महीने की शुरुआत में मेरे हाथ मे आयी और एक ही सिटिंग में पढ़ भी ली । बहुत समय के बाद यह एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जो दोपहर के खाने के बाद शुरू हुआ और शाम ढलते ढलते की चाय के साथ समाप्त किया ।
किसी भी उपन्यास को इतनी जल्दी पढ़ने की बेताबी तभी रहती है जब आप खुद को उस से जुड़ा हुआ महसूस करने लगते हैं। उस उपन्यास की हर घटना आपको लगता है कि आपके साथ भी कभी न कभी हो कर गुजरी है । पढ़ते हुए मुझे लगा कि समर तो "मे आई फ्रेंडशिप विद यू ,"की घटना भूल ही चुका था पर आरती उस को नहीं भूली थी , उसको वह अपनी लगातार बातचीत से और अपने पन्द्रह साल के इंतज़ार की बेताबी से याद दिलाती है । यह सब मुझे बिल्कुल ऐसी ही लगी जैसे मैंने अपनी लिखी एक लघुकथा ,"#उसनेकहाथा " में अपने ही आसपास घटे एक वाक्यात के रूप में लिखी थी । और इसमें बताई जगह भी मेरे आसपास की ही हैं, जंगपुरा मेट्रो , हुमायूँ टॉम्ब ,आदि ।
प्रेम की स्थिति सच में बहुत विचित्र होती है। मन की अनन्त गहराई से प्यार करने पर भी यदि निराशा हाथ लगे तो ना जिया जाता है ना मरा जैसे कोई रेगिस्तान की गरम रेत पर चल रहा है, जहाँ चलते चलते पैर जल रहे हैं पर चलना पड़ता है बस एक आशा मृगतृष्णा सी दिल में कही जागी रहती है ।
उम्र के उस पड़ाव पर जब ज़िन्दगी दूसरे ट्रैक पर चल चुकी हो उसको फिर से वापस उसी पुराने रास्ते पर लाना मुमकिन नहीं है । उपन्यास में लिखी यह पंक्तियाँ इसकी सहमति भी देती हैं " हम लोगों का आकाश भीगा है और धरती सूखी है । जो पुराना लिखा है ,उसे कितना भी मिटाना चाहे,नहीं मिटा सकते क्योंकि यह मिटाना दोनों के दिल गवारा नहीं कर सकते। हम क्रूर और स्वार्थी नहीं। " और यही तो जीवन का अटल सत्य है । पर आजकल के वक़्त में देखते सुनते घटनाओं को इस तरह से समझना मुश्किल भी है। क्योंकि इस तरह के प्रेम के लिए ठहराव और समझना जरूरी है ,पर आज के स्वार्थी वक़्त में यह सिर्फ पढ़े हुए किस्से सा ही लगता है ।
उपन्यास में लिखी कई पंक्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली रूप से ज़िन्दगी से ,प्रेम से जुड़े शब्दों में पिरोई गयी हैं , इन्ही में मेरी एक पंसदीदा जुड़ी पंक्तियाँ भी है कि आदमी औरत के साथ सोना तो सीख गया पर जागना नहीं सीख पाया पर तुम्हें तो किसी औरत के साथ जागना भी आ गया " अंत भी इसका सही किया है , कुछ यादें सिर्फ ज़िन्दगी में फरवरी के उन दो दिन सी बन कर रहें तो ही ज़िन्दगी चल पाती है । क्योंकि प्रेम है एक एकांत ,जो सिर्फ मन के ,दिल के एहसास में ही जीया जा सकता है ,और यही प्रेम जब नाम बनता है तो इसका एकांत खत्म हो जाता है ।
इस वक़्त जब हम सब कोरोना काल के जद्दो जहद से गुज़र रहें हैं ,ऐसे वक्त में यह उपन्यास पढ़ना एक सुखद ब्यार सा लगता है । नहीं पढ़ा है अब तक तो जरूर पढ़ें ।#amazon पर यह उपलब्ध है ।


...रंजू भाटिया
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मंगलवार, 25 अगस्त 2020

अंतस में दर्ज मधुमास के अनावरण का नाम है 'फरवरी नोट्स'


बारिशें लौटकर आती हैं, पतझड़ और वसंत लौटकर आता है, ठीक इसी तरह पहला प्यार भी जीवन के किसी ना किसी मोड़ पर अवश्य लौटकर आता है, चाहे वह स्मृतियों के रूप में या सदेह हो। मन के श्याम पट्ट पर स्नेह के श्वेत अक्षरों में लिखे गये शब्द समय के डस्टर से मिटाए नही मिटते। जीवन की आपा धापी में जब वे अक्षर हमारी देहरी पर आकर खड़े होते हैं तो लगता है कि एक बार फिर फरवरी ने दिल के द्वार खटखटा दिए हों।

                         


मधुमास के नुपुर खनखनाने लगते हैं. घर और दफ्तर का शोर अतीत की मधुर ध्वनियों में विलीन होने लगता है उस पार जाने के लिए वर्तमान की खाई के ऊपर पुल बनने लगता हैं। फरवरी हर साल आती है लेकिन जिस पर हमने कोई हर्फ़ लिखा है वह फरवरी जीवन में एक ही बार आती है। फिर से उसके वासंती पन्नों पर कुछ नोट्स लिखने की कोशिश होती है पर जैसे लिखे को मिटाना मुश्किल है वैसे ही धुंधले हो चुके अक्षरों के ऊपर लिखना भी मुश्किल होता है। फरवरी नोट्सइन्ही मुश्किलों, नेह छोह के संबंधों और मन की छटपटाहटों की कहानी समेटे हुए है। यह कहानी मेरी है, यह कहानी आपकी है, यह कहानी हर उस व्यक्ति की है जिसके हृदय में स्पंदन है और स्मृतियों में कोई धुंधली सी याद जो एक निश्छल मुस्कुराहट का कारण बन जाती है।

प्रकाशक : हर्फ़ पब्लिकेशन 

मूल्य २०० रूपये अमेज़न लिंक 

 
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सोमवार, 27 जुलाई 2020

प्रेम में पड़ी स्त्रियाँ


प्रेम में पड़ी स्त्रियाँ हो जाती हैं
गोमुख से निकली गंगा
जिसके घाटों पर बुझती है
प्यासों की प्यास
लहरों पर पलते हैं धर्म
स्पर्श मात्र से तर जाती हैं पीढ़ियाँ
कंकर कंकर शंकर
हरियरा उठते हैं खेत
भर जाते हैं कोठार अन्न से



प्रेम में पड़ी स्त्रियों को चुकाना होता
प्रेम में नदी बन जाने का मोल
अपने आँचल में विष्ठा समेटे
तेजाब और जहर में डूबी
मर चुकी होती हैं
सागर तक पहुंचने से पहले
सागर भी कोई कसर कहाँ छोड़ता है
प्रेम में पड़ी स्त्रियों के हरे घावों पर
लगा देता है खारेपन का नमक

प्रेम में पड़ी स्त्रियों!!
अपना घर नही छोड़ना
प्रेम में नदी मत होना

सोमवार, 20 जुलाई 2020

डार्क सर्किल

स्त्री की सुंदरता देखनी है
उसकी आँखों में नही
आँखों के नीचे बने काले घेरों में देखो
ये घेरे इस बात के साक्षी हैं
कि उसकी सुंदरता आरोपित नही है
उसकी सुंदरता रात रात में अपने बच्चे को लोरी सुनाने और उसका बिस्तर बदलने से आई है
उसकी सुंदरता किसी को आंखों में बसाने से आई है
वे लोग बहुत सौभाग्यशाली होते हैं
जिन्हें एक स्त्री नींद के बदले अपने नयनों में जगह देती है
उसकी सुंदरता गृहस्थी के पाट में पिसकर आई है
ये आँख के नीचे घिरे काले बादल
सींचते हैं हर व्यक्ति को
क्या आपने भी इन घेरों में स्नान किया है?
इन्हें प्रणाम करिए
ये नीलकंठ से भी आदरणीय हैं
सत्य, शिव और सुंदर है
इन्होंने रात को पीकर
सुबह की है

शनिवार, 18 जुलाई 2020

कुछ सच्ची कुछ झूठी : हमारी आपकी कहानी


'कभी हसरत थी आसमां छूने की अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की',ओपनिंग लाइन है डॉ. कुमारेंद्र सिंह सेंगर आत्मकथा  'कुछ सच्ची और कुछ झूठी की'   शुरुआती पंक्तियों से ही पता चल जाता है कि लेखक ठहराव वाले मिज़ाज का  व्यक्ति नहीं है।   अपनी आत्मकथा के बारे में कुमारेंद्र लिखते हैं कि  इसकी कल्पना उन्होंने तब  की थी जब वह बचपन में महापुरुषों की जीवनी/संस्मरण पढ़ते थे और उनके मन में ख्याल आता था कभी ऐसी ही उनकी जीवनी या संस्मरण लोग पढ़ेंगे   एक  तरीके से उनकी आत्मकथा, उनके द्वारा बचपन में देखे गए स्वप्न के  यथार्थ में परिणीति है।   वैसे तो पुस्तक का नाम 'कुछ सच्ची कुछ झूठीहै किंतु कुमारेंद्र शुरू में ही स्पष्ट कर देते हैं सब कुछ  सच्ची है कुछ भी झूठी नहीं है। वह कहते हैं कि ये जो झूठी बात है दरअसल वह सत्य ही है पर किसी और तरीके से कही गयी बात है। शायद समाज के मापदंड और कुमारेन्द्र की छवि उस सत्य  के अनुरूप नही है इसलिये कुछ बातों को झूठ के खोल में प्रस्तुत किया गया है।  

यह  लेखक की ईमानदारी है जो पहले ही स्वीकार कर लेता है कि झूठ झूठ नही है। इस पुस्तक को कुल अठहत्तर शीर्षकों  में समेटा गया है।  यह सारे शीर्षक कुमारेंद्र के जीवन से जुड़े हुए वे  मोड़ हैं जहाँ  पर उन्होंने जीवन के महत्वपूर्ण हिस्सों को बिताया    है।   कुछ शीर्षक  उनके जीवन दर्शन से जुड़े हुए हैं जो चालीस वर्ष  के अनुभवों से प्राप्त हुए। कुमारेन्द्र लिखते हैं कोई इंसान संपूर्ण नहीं होता, कोई अपने में परिपूर्ण नहीं होता, खुद की कमियाँ  जान कर खुद को सुधारने का प्रयास करते  रहना  चाहिए जो अपने हैं उन्हें अपने से दूर ना होने देने की कोशिश  इसी जिंदगी में करना है क्योंकि यह जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। यही लेखक की संवेदनशीलता और फलसफा दोनों है।  

अमूमन आत्मकथा में लेखक वह सभी  बातें लिखता है जो उसके जीवन में दबी  छुपी हुई होती खासतौर से व्यक्तिगत जीवन में आए उतार-चढ़ाव के बारे में।   कुमारेंद्र स्वयं लिखते हैं कि   बात आत्मकथा की हो तो लोगों की यह जानने की इच्छा रहती है लेखक के जीवन की व्यक्तिगत संबंधों को सार्वजनिक किया जाए किंतु जब लेखक यानी कुमारेंद्र  के जीवन में घटित प्रेम कहानियों की बात हो  थोड़ी निराशा होती है।   उन्होंने यह स्वीकार तो किया है कि  उनके प्रेम संबंध ढेर सारे लोगों से रहे हैं पर किसी विशेष घटना किसी विशेष व्यक्ति का संदर्भ देने से लेखक ने स्वयं को बचा लिया शायद यहाँ सोशल स्टिग्मा आड़े आ गया।   यहाँ पर प्रेम कहानियों की जगह पाठक को प्रेम के दर्शन से रूबरू होना पड़ता है।   

कुमारेंद्र अपनी आत्मकथा में जब अपने बचपन  की बात कर रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि वह सभी के बचपन की बात कर रहे हो।  पहले दिन स्कूल जाने की बात, इस स्कूल में शिक्षकों की बात दोस्तों की बात खेलों की बात खिलौनों की बात सारी बातें ऐसी लगती हैं कि वह हमारी कहानी हो और उसे तुम्हारे अपनी आत्मकथा के माध्यम से लिख रहे हो दूरदर्शन का प्रारंभिक दौर  का वर्णन कुमारेंद्र ने बड़ी खूबसूरती के साथ अपनी कथा में किया।   ऐसे ही एक कहानी साइकिल के बारे में है । कुमारेन्द्र  अपने अपने दो दोस्तों के साथ  चार आने  किराए पर साइकिल   पूरे दिन उसे चलाते रहे फिर शाम को घर ले गए।   दोस्तों ने साइकिल को अपने पास रखने से मना कर दिया(कितने चालाक दोस्तों के साथ दोस्ती रही ) तो वह  उसे अपने घर ले गए और छत पर छिपा दिया ।   शाम को साइकिल वाला कुमारेंद्र के घर पहुँच गया तो उन्हें  लगा कि  पिताजी अब पिटाई करेंगे पर जब उन्होंने सच  सच बात पिताजी को बताई  तो पिताजी ने कुमारेन्द्र  से कुछ नहीं कहा।   बहुत सारे बच्चे झूठ बोलकर किसी समस्या से बचने का प्रयास करते हैं  पर कुमारेंद्र सच बोलकर समस्याओं को सुलझाने की कोशिश बचपन से ही करने लगे।    ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, नानी के गांव की बात, क्रिकेट की बात, लोकल फोन  से पहले पहली बार बात  करना, पहली बार  रोटी बनाने की बात और कुछ बहुत कोमल बातें हैं जैसे अपने साथ पढ़ने वाली लड़की जो कि गाने में बहुत अच्छी थी उसकी चर्चा कुमारेन्द्र अत्यंत सतर्कता से करते हैं ।  इसके साथ-साथ  खिड़की वाले भूत की बातें, रक्तदान की बातें और पहली बार दुनाली चलाने वाली बात का उल्लेख उन्होंने विशेष तौर पर किया है।   आज हम कुमारेंद्र का एक यूट्यूब चैनल देखते हैं जो कि ‘दुनाली’ के नाम पर है तो यह लगता है उन्हें इसकी प्रेरणा उन्हें पहली बार  फायर किए हुए दुनाली से मिली।  

कुमारेन्द्र  की आत्मकथा पढ़ते हुए  हुए उनके रूबरू होने का मौका मिलता है चाहे वह उनका दबंग रूप हो या उनके कोमल मनोभाव हों  अथवा  गैर बराबरी के विरुद्ध मन में आए आक्रोश की बात, कुमारेंद्र हर समय न्याय के पक्ष में ही खड़े मिले ।   कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने के लिए  कुमारेंद्र ने 1998 में  अजन्मी  बेटियों को बचाने के लिए अभियान छेड़ा ।  वह उस समय  प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते थे, बिना किसी की मदद के  खुद इस पर काम करने का फैसला किया    कोई फंडिंग नहीं, कोई प्रशासनिक सहयोग नहीं  पर  इन्होंने  अपना राष्ट्रव्यापी अभियान  बिटोली’  शुरू कर दिया  और आज उसी को व्यापक जनसमर्थन  मिलता हम देख सकते हैं।  आत्मकथा के बीच- बीच में  लेखक के सुकोमल संवेदनाओं के भी चित्र हमें दिखते हैं  जैसे अगस्त के रविवार को आने वाले फोन को लेकर कुमारेंद्र की प्रतीक्षा आज भी निरंतर जारी है।   कोई कितना बड़ा भी लेखक  हो जाए लेकिन पहली बार उसके लेखन धर्म को स्वीकृति मिलना और साथ ही  उसका सम्मान होना उसे कभी नहीं भूलता।   

कुमारेंद्र के जीवन में  दो ऐसी घटनाएं हैं जो कि उनके  मजबूत इच्छाशक्ति से परिचित कराती है ।  पहला उनके  पिताजी का देहांत और दूसरा कुमारेंद्र की ट्रेन के साथ दुर्घटना ।   पिता के आदर्शों को मन में बसाए  और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लेकर  कुमारेंद्र आज भी निरंतर कार्यरत हैं।   वह कहते हैं कि जब आज भी वह आंखें बंद करते हैं तो अपने आसपास अपने पिता का होना पाते हैं, दुविधा के समय वह अपने पिताजी को याद करते हैं सोचते हैं कि पिताजी  होते तो ऐसा करते, किंतु  अब बस यादें है,  कुछ गुदगुदाती, कुछ हँसातीं  तो कुछ  आंखें नम कर देती हैं ।   दूसरी घटना दुर्घटना से जुड़ी हुई है।   ऑपरेशन थिएटर में कटे पैर को लगाने की बात सुनकर  कुमारेंद्र अंदर तक हिल  जाते हैं लेकिन ऐसे वक्त पर उनका मित्र रवि चट्टान  बन कर उनके साथ खड़ा रहता है।  कुमारेन्द्र अपने मित्र के लिए विह्वल हैं वह कहते हैं, काश  ऐसी दोस्ती हर जन्म मिले और सभी को मिले।  दुर्घटना के बारे में बताते हुए कुमारेंद्र कहते हैं  कि चंद पलों की अपनी विषम स्थिति में ऊपर से गुजरती ट्रेन की गति से भी तेज गति से न जाने क्या-क्या सोच लिया।    सही बात है एक एथलीट्स जो कभी मैदान पर दस हजार  मीटर की दूरी को हंसते-हंसते नाप लेता था आज एलिम्को में दो स्टील छड़ों  के सहारे चलने का अभ्यास कर रहा है ।    लेकिन यहीं पर  कुमारेंद्र पूरी जिजीविषा और मजबूत इरादे के साथ  सामने आते हैं और वह फिर जिंदगी को दुबारा और बेहतर ढंग से जीने के लिए तैयार खड़े होते हैं।   

आत्मकथा में लेखन की चर्चा काफी रोचकता लिए हुए है ।   दस  वर्ष की उम्र से  कविता लेखन और उसके  प्रकाशन के साथ-साथ कुमारेंद्र के अंदर का लेखक समय के साथ  युवा होता चला गया, परिपक्व होता चला गया।   कुमारेंद्र भारी-भरकम रीतिकालीन  शब्दावली से दूरी बनाकर आम बोलचाल की भाषा में कहानी कविता ग़ज़ल लिखने लगे।   वह लिखते हैं कि छपास के चलते ही  ब्लॉगर बन गये।    आज ब्लॉगजगत ‘रायटोक्रेट कुमारेन्द्र’  किसी परिचय का मोहताज नही है।    लगभग सभी विधाओं में स्वाभाविक अधिकारपूर्ण लेखन करते हुए विभिन्न विषयों पर लगभग लेखक की  दो दर्जन  पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी ।  कुमारेंद्र  फोटोग्राफी, पेंटिंग, स्केचिंग  का भी शौक रखते हैं।    इन्होंने सोशल मीडिया में व्यंग्य की अत्यंत लोकप्रिय लघुकथन  को भी विकसित किया है जिसे आप ‘छीछालेदर रस’  के नाम से जानते हैं।   

 कुमारेंद्र का जीवन संघर्ष का पर्याय  रहा है ।   परिवार को साथ लेकर (यहां परिवार का तात्पर्य पति पत्नी से नहीं बल्कि पिता के बाद संपूर्ण पारिवारिक सदस्य ) पारिवारिक सदस्यों को सहारा देना, पढ़ाना, आगे बढ़ाना, खुद दो-दो विषयों में पीएचडी करना, अपने आप में संघर्ष की पराकाष्ठा  को परिलक्षित करता है।    इन सबके बावजूद कुमारेंद्र  ने  गंभीर मुद्रा को कभी वरीयता नहीं दी बल्कि जिंदगी को मौज मस्ती के अंदाज में जीते रहे।    अपनी आत्मकथा में कुमारेंद्र एक बात का खास तौर पर उल्लेख करते हैं जब  वह सीएसडीएस से जुड़े तो  इसकी कार्यप्रणाली के दोहरे मापदंड के बारे में  कुमारेंद्र ने जब  कर्ता-धर्ताओं  से चर्चा की परिणामस्वरूप उन्होंने  संस्था से कुमारेंद्र को टर्मिनेट कर दिया।   पूरा प्रकरण यह बताता है कि चैरिटी, अध्ययन के नाम पर किस तरह के नरेटिव सेट किये जाने का काम होता है और मनी मोब्लाइजेशन का काम तो साइड में चलता ही रहता है ।  इन सब के बावजूद कुमारेंद्र की जिंदादिली में कोई अंतर नहीं आया।    अपने कथा का आखरी पन्ना वह अपने यारों को समर्पित करते हैं और कहते हैं, ‘यात्रा में अच्छे बुरे कड़वे मीठे अनुभवों का स्वाद चखने को मिला ।   सपनों का बनना बिगड़ना रहा।    वास्तविकता और कल्पना की सत्यता का आभास होता रहा।    कई बार जीवन सरल और जाना पहचाना लगा तो कई बार अबूझ पहेली की तरह सामने आकर खड़ा हो गया लेकिन अंधेरों के सामने दिखने पर उसको अपने भीतर समेट सब कुछ रोशनी में बदल देने की शक्ति भी प्रस्फुटित होने  लगती।    ऐसा क्यों होता? किसके कारण होता? ना जाने कितने सवालों के दोराहे  तिराहे चौराहे से गुजरते हुए यदि कोई जीवन शक्ति सदा साथ रहे तो वह हमारे दोस्तों की शक्ति।‘    पुराने दोस्तों की दोस्ती और नए मित्रों का संग,  सभी  नए पुराने रंगों को मिलाकर जीवन एक खूबसूरत कोलाज बनाने की कोशिश की गयी है।   ईश्वर करे   इस कोलाज के रंग हर दिन गहरे होते जायें।    हम उम्मीद करेंगे कि कुमारेंद्र अपनी आगामी संस्मरण या आत्मकथ्य पुस्तक में उन तमाम रंगों का उद्घाटन करेंगे जो अभी श्वेत प्रकाश में सप्तरंग जैसे छुपे हैं ।   

शुभकामनाओं के साथ
डॉ पवन विजय



मंगलवार, 30 जून 2020

पारले जी : एक विरासत




मैं चाहता हूँ कि 
'पारले जी' कभी न बदले
वही पैकेजिंग
वही स्वाद
वही दाम
(सरकार सब्सिडी दे इसके लिए)
न उसके खाने में हो
कोई इनोवेशन

चाय में डुबा डुबा,
या चाय का हलवा बना
या पानी के साथ
यात्रा में, पिकनिक पर,
नाश्ते में, शाम को कविता सुनते
या स्टडी टेबल पर 
ठीक वैसे जैसे हम बचपन में इसे खाते थे
सायकल चलाते हुए,
रेस लगाते हुए,
स्कूल पीरियड में अध्यापक की नज़र बचाकर
बिस्कुट खाने के रिस्क का आनंद 
नही बदलना चाहिए

दफ़्तर से घर लौटे पिता को  
चाय के साथ दो बिस्कुट देती माँ
सुकून भी परोसती है
बिना दांतों वाली दादी बताती है
बिस्कुट पिया कैसे जाता है

हॉस्टल हो या परिवार
बिना 'पारले जी' के 
सम्पूर्ण कहाँ होता है

'पारले जी' कोई उत्पाद नही
यह एक संस्कृति है
थाती है विरासत है

बचपन की अल्हड़ता 
कैशोर्य के उत्सव 
कॉलेज की टी पार्टीज 
उसी संस्कृति के ही स्वरूप हैं

मैं चाहता हूँ कि
यह थाती अनवरत बनी रहे
इस संस्कृति का, विरासत का 
हस्तांतरण हो
पीढ़ी दर पीढ़ी
बिना किसी बदलाव के
क्योंकि,
कुछ चीजे कभी नही बदलनी चाहिए
जैसे धरती, हवा, पानी, और
'पारले जी'

...डॉ. पवन विजय

शुक्रवार, 15 मई 2020

दुःखों की वसीयत

दुःखों की वसीयत

जब बंट रहे थे 
खेत खलिहान दुआर मोहार
गोरु बछेरु बरतन भांड़े 
ताल तलैया बाग बगीचे

जब बंट रहे थे
हाथी घोड़े जर जमीन
लाल मोहर गिन्नी  अशर्फी रुपिया 
यहां तक कि जब हुआ
ठाकुर जी का बंटवारा
कितने दिन किसके यहां रहेंगे
जब इस बात को भी तय किया गया कि
बाबा की बुढ़ौती किसके यहां 
कितने महीने में कटेगी
तब भी मैं चुप बैठा था

आखिर सभी अपने अपने हिस्से लेकर
रखने संभालने का जतन करने लगे
डंड़वारें डाली जाने लगीं
खूंटे गाड़े जाने लगे
बरतनों की गिनाई शुरू हो गयी
तब भी घुटनों पर कुहनियां टिकाए
मैं चुप था

सामान अंदर हो गए
बालकों को भी बता दिया गया
अपना पराया क्या है
दरवाजों के अंदर से सिटकनी दे दी गयी
जोड़ घटाव का दौर जारी था 
लिस्ट मिलाई जा रही थी

लाई खाते रस पीते बही देखते  
अंत में एक पंच ने आवाज लगाई
शायद मेरी बारी आई है
पर अब बचा क्या है
सब तो बंट गया है
पंच मुझसे मुखातिब होकर बोला
तुम्हारे तुम्हे वसीयत में दुःख मिला है

जब एक चम्मच के लिए किए जाएंगे 
लज्जित माँ बाप
एक सूत जमीन के लिए तारे जाएंगे
पुरखे देवता थान पवान
जरा सी बात पर तार तार होंगी
परंपराएं मूल्य प्रतिमान 
तो उनसे उत्पन्न दुःखों के आकाश की वसीयत
तुम्हारे नाम की गयी है

तुम्हे  दिया गया है पूर्वजों की
आशाओं अभिलाषाओं का कोष

वे दुःख जिन पर गीत बने
वे दुःख जिन्हें पीढ़ी वहन करती आई है
वे दुःख जिन्हें देवता भी धारण न कर सके
उन दुःखो की थाती तुम्हे मिली है

यह कह पंच उठ गया 

मैं दुःखों के वसीयत की पोटली खोलने लगा

...पवन विजय

बुधवार, 13 मई 2020

हर कोई अपने घर लौटना चाहता है


जब जीवन की थकन
उदासियों के बोझ 
तोड़ने लगते हैं कंधे 
तो लगता है लौट जाएं अपने घर
जहां जीवन से भरी गेहूँ की बालियाँ
अब भी चैता गाती होंगी
नेह छोह के रंग अभी भी छपे होंगे
फागुन की दीवार पर
असाढ़ के भीगे दिन
सावन को गीत गाने आमंत्रित करते होंगे
भादों झरता होगा दालान की ओरी से
अब भी राह टेरती माँ
उसे देखते ही दूध भात लेकर आएगी
बाबा की आश्वस्ति भरी आंखें
मानस के स्वर
लालटेम की टिमटिमाती लौ
निरबंसियों के मटियारे गीत
सभी तो यथावत होंगे
बड़े घर का ऊंचा दरवाजा
वहीं कहीं देहरी पर दिया अब भी जल रहा होगा
जिसे बाल कर छोड़ आये थे
फलों से लदे बाग
जल से लहलहाता ताल
पनघट की रौनक
पकी फसलों वाले खेत
अन्न से भरे बखार
सब के सब समय की छीजन से अछूते होंगे

गांव कभी नही भूलता अपने बच्चों को
चौपालों में हर रोज उन्हें याद किया जाता है
जो एक एक कर चले गए होंगे
अभी भी उनके नाम के गीत गाये जाते हैं 

कोलतार की तपती सड़कों पर जलते तलुओं को
कच्चे मेड़ों की ठंडक चाहिए
बस सबको अपना गांव वाला घर चाहिए

हर कोई लौट जाना चाहता है अपने घर को

जैसे घोंसले में लौटती है बया
जैसे सांझ को लौटती हैं गायें
जैसे बाजार से लौटते हैं पिता
जैसे मायके में आती हैं बेटियां
जैसे अयोध्या लौट आये थे राम चौदह बरस बनवास से
जैसे लौट आता है पंछी फिर से जहाज पर आकाश से

पर सनद रहे
लौटना तो बादल बनकर
खेत बनकर
ताल बनकर
फूल बनकर बाग बनकर
गेंहू और धान बनकर
गीत बनकर थाप बनकर
स्नेह और विश्वास बनकर

अगर ऐसे नही  लौट पाए तो
लौटना चले जाने से भी बदतर होगा


गुरुवार, 7 मई 2020

अपना मिलना तय है


शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

सुनना सांध्य गगन तारे से,
सुनना मौसम हरकारे से।
द्वार तुम्हारे जोगी आया,
सुनना उसके इकतारे से।

अहो कामिनी! मिलन यामिनी,
लेकर आता हुआ समय है।।
शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

हर पल तुमसे संवादित हूँ,
तुम्हे सोचकर आह्लादित हूँ।
अर्थ दिए जो मृदुल नेह के,
उसी भाव में अनुवादित हूँ।

अधरों के प्रेमिल सत्रों से,
जीवन का हर कण मधुमय है।।
शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

तनिक नही तुम होना चिंतित
किंचित मैं हूँ जरा विलम्बित
फूल नही वे मुरझा सकते
जिसे किया है हमने सिंचित

अरुणारे नयनों को एक दिन,
मद से भर जाना निश्चय है।।
शिलालेख पर यह अक्षय है,
मधुरे! अपना मिलना तय है।।

डॉ. पवन विजय 

(चित्र: गूगल साभार)

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

धर्म और राजनीति, Religion and Politics


धर्म और राजनीति पर चर्चा करने के क्रम में धर्म को  समझना आवश्यक है। धारयति इति धर्मःजो धारण करने योग्य है वही धर्म है । यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या धारण करने योग्य है, देश काल परिस्थितियों में वह भिन्न भिन्न हो सकता है पर भिन्नता का आधार केवल रूपरेखा ही है विषयवस्तु नही। विषय वस्तु तो एक ही है और वह है निरंतर सुख पूर्वक जीना। जो भी धारण करने से निरंतर सुख मिले वही धर्म है। पानी का धर्म है प्यास बुझाना चावल का धर्म है भूख मिटाना ठीक उसी तरह मानव का धर्म है निरंतर सुख पूर्वक जीना।मानव समाज में सुखी होने के लिए अभय की आवश्यकता होती है यह अभय भौतिक वस्तुओ की उपलब्धता, आपसी सम्बन्ध और समझ पर आधारित होती है। दुनिया के सारे तौर तरीके इसी सुख  की खोज और खोजने के बाद उस सुख को बनाये रखने के क्रम में होते हैं। एक चोर भी चोरी सुखी होने के लिए करता है जिस दिन उसे समझ में आयेगा कि चोरी करके वह अभय जीवन नही जी सकता  वह चोरी करना छोड़ देगा जैसा कि डाकू रत्नाकर या अंगुलिमाल ने किया था । इसलिए भारतीय परम्परा में ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत चित से प्राप्त आनंद ही मोक्ष है ईश्वर की प्राप्ति है। उस आनंद को व्यक्तिवाचक बनाकर उसे  पाने के लिए ढेर सारे लोगों अपने अनुभव को आधार बनाकर रास्ते बनाये जिसे हम सामान्यतः आज धर्म के रूप में परिभाषित करते हैं, मसलन इन बाबाजी का रास्ता, उन बाबाजी के मार्ग, मसीहों के बताये धर्म वगैरह।  व्यक्ति के अनुभव के आधार पर मार्ग चुनने के खतरे भी बहुत हैं इनके पर्याप्त परीक्षण की आवश्यकता है जिस पर चर्चा हो सकती है  लेकिन यह बात तो प्रामाणिक  है कि धर्म सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। राज्य का अस्तित्व भी उसे सुख को सुनिश्चित करने के लिए हुआ है अब दोनों एक दूसरे से अलग नही हो सकते। राज्य धर्म से निरपेक्ष कैसे हो सकता है? धर्म के निहितार्थ कर्तव्यों के निर्वहन में है, स्वधर्मे निधनं श्रेयः  अर्थात अपने कर्तव्य पालन में मरना श्रेयस्कर है। राजा कर्तव्य पालन से विमुख कैसे हो सकता है? नही हो सकता है? राज्य प्रमुख  का धर्म,  कोई पंथ विशेष नही बल्कि उसकी जनता के प्रति जवाबदेही है। आज सविधान में  मूल कर्तव्यों की व्यवस्था है। यही कर्तव्य ही तो धर्म है।

धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत से संकट वर्तमान समाज में हमे देखने को मिलते  है लेकिन उत्तर बहुत सरल है जब तुलसी बाबा कहते हैं, ‘परहित सरिस धरम नही भाई , परपीड़ा सम नही अधमाईतो इसी एक पंक्ति में सारा निचोड़ आ जाता है, या जब वेद उद्घोष करते हैं कि आत्मवत् सर्वभूतेषु  यस्य पश्यति सह पंडितःतो भी धर्म स्पष्ट  हो जाता है कि सभी प्राणियों में मैं स्वयं को देखता हूँ सभी मेरे जैसे हैं जिस बात से मुझे कष्ट होता है उससे दूसरों को भी तकलीफ होती होगी। आत्मन प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेतअपने से प्रतिकूल कर्मों को नहीं करना धर्म है। जिन स्मृतियों  की रुढियों को लेकर इतनी आलोचनाएँ  होती हैं उन्ही में धर्म की इतनी सुंदर परिभाषा दी गयी है उतनी आजतक मैंने किसी ग्रन्थ में नही देखी,
 धृति क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह
धी विद्यासत्य्माक्रोधो दशमेकम धर्म लक्षणं
धर्म की इस परिभाषा में आप बताइए कि क्या गलत है और किसे इसका पालन नही करना चाहिए या इसमें क्या साम्प्रादायिक है ? अभी केन्द्रीय विद्यालयों में असतो माँ सद्गमय  को हटाने को लेकर एक याचिका दायर की गयी है जिसमे कहा गया है कि इस वाक्य से धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ गयी  है। यह  बात समझ से परे है कि  असत्य से सत्य की ओर जाने से धर्मनिरपेक्षता कैसे खतरे में आ जाती है।  कल को न्यायालयों में से यतो धर्मः ततो जयःको हटाने की बात की जायेगी परसों सत्यम शिवम् सुन्दरमकी बात आएगी फिर योगक्षेमपर सवाल उठाये जायेंगे, दरअसल मामला कुछ और ही है।

जिसे हमे समझाया गया और पढ़ाया है कि फलाने हमारा धर्म है वह तो है ही नही वह संगठन हो सकता है,  पंथ हो सकता है, सम्प्रदाय हो सकता है, रिलिजन हो सकता है  पर भारतीय सन्दर्भ में वह धर्म नहीं हो सकता है। उन लोगों का मानना है कि हमारे संगठन की बात मानी जाए इसलिए बार बार धर्म से निरपेक्ष होने की बात आती है। लेकिन संगठन और धर्म में फर्क है। धर्म केवल और केवल आपका विवेकयुक्त  कर्तव्य है।

एक बार विश्वामित्र घूमते हुए अकाल क्षेत्र में पहुँच गये। उन्होंने एक व्याध के घर भिक्षा मांगी तो उन्हें कुत्ते की हड्डी कि भिक्षा मिली । भूख से व्याकुल होकर जैसे ही वह उसे खाने को उद्यत हुए  व्याध  ने जब  पूछा कि आपने तो एक संत का  धर्म भ्रष्ट कर दिया। विश्वामित्र बोले संत का धर्म उसका कर्तव्य है । इस समय मेरा धर्म कहता है कि शरीर की रक्षा सर्वोपरी है क्योंकि  शरीर से ही धर्म पालन होगा अतः वह खाद्य सिर्फ देह के पालन करने के लिए था यदि मैं स्वाद के लिए उसे खाता  तो धर्म भ्रष्ट होता। आपका विवेकयुक्त कर्तव्य  आपके धर्म का निर्धारण करता है।
यही भारतीय धर्म की खूबी है जो इसे सनातन और सबकी आवाश्यकताओं  की पूर्ति  करने वाला बनाता  है जो बिना किसी फ्रेम, बिना किसी आकार, और बिना किसी प्रवर्तक के निरंतर सदानीरा की भांति प्रवाहित है। आप शाकाहारी हैं, नही हैं, आप कपडे पहनते हैं, नही पहनते, आप जप करते हैं, नही करते तब भी आप उसी धर्म का हिस्सा हैं। लोकतंत्र यह सहिष्णुता का सर्वोच्च रूप आप यहाँ पर पाते हैं जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा कि सनातन धर्म उस शर्ट के जैसे है जो भी पहनता है उसके जैसा हो जाता है। जैसा आप चाहो आपको मिलेगा। गीता में  श्रीकृष्ण इसी बात को बार बार कहते हैं कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है वह उसी भाव में उसे प्राप्त होते हैं। वैश्विक बंधुत्व का उद्घोष ही धर्म है।

राज्य को सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना चाहिए पन्थ से निरपेक्ष होना चाहिए पर धर्म से निरपेक्ष वह हो ही नही सकता। महात्मा गांधी इस बात को बड़े अच्छे तरीके से कहते हैं कि धर्मविहीन राजनीति सेवेंथ सिन’ (घोर पाप ) के समान है गांधीजी ने  राजनीति को धर्म से अलग करने के सुझाव को अस्वीकृत कर दिया , क्योंकि उन्होंने लोगों की आजीवन सेवा के माध्यम से सत्य की तलाश के रूप में धर्म को एक नई परिभाषा दी। यह विवेकानंद के विचारों का ही प्रभाव था कि गांधीजी यह कहने में समर्थ रहे कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है? गांधीजी ने यह भी कहा कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका नहीं देता हूँ । यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शों  को विकसित करना। बार-बार गांधीजी ने यह रेखांकित किया कि सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है। गांधी जी रामराज को आदर्श राज्य का माडल  मानते हैं। रामराज्य की अवधारणा का आधार ही स्वधर्म है। गांधीजी सेक्युलर बिलकुल नही हैं वह रामचरित मानस  को उद्धृत करते हैं,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। अब यहाँ पन्थ को धर्म समझने वालों की मजबूरी हो जाती है कि वे रामराज्य को सांप्रदायिक कहें और धर्म को राजनीति से दूर रखने की बात करें। यह इसलिए भी क्योंकि उससे दूसरी किस्म की नैतिकता दूसरे किस्म के तौर तरीकों को व्यवस्था उन्हें में ले आने का अवसर मिलता है।

राज्य चार चीजों से मिलकर बनता है क्षेत्र लोग सरकार और संप्रभुता राज्य के ठीक से चलने के लिए जरूरी है कि राज्य की सीमाए ठीक हों लोगों का आचरण ठीक हो सरकार न्यायप्रिय हो। उसकी संप्रभुता को बाकी के देश मानें। इनमें से सभी से महत्वपूर्ण है लोगों का आचरण यदि आचरण दुरुस्त है तो राज्य संगठित है विकास कर पायगा। कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक नीति  प्रगति में बाधक हैं मैं एक उदाहरण  देता हूँ एक नीति   कार्य ही पूजा है।यह नीति  किस तरह राज्य को आगे बढ़ने में मदद करते हैं इसे समझा जा सकता है । औद्योगीकरण के लिए यह जरूरी कि अधिक मात्रा में उत्पादन हो उसके लिए कार्य का ठीक तरीके से होना जरूरी है। अब लोगों के मूल्य कार्योंमुख होने से औद्योगीकरण को गति मिलती है इससे राज्य तेजी से विकास की ओर बढ़ता है। धर्म  नैतिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से राज्य को संगठित करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें धर्म  नही चाहिए। दरअसल  वे पुरखों की विरासत को समझने में नाकाम रहते हैं ये लोग हाथी की पूंछ को छूकर मानते हैं कि अनुभव के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि हाथी झाडू जैसा होता है और इसी बात को सभी माने क्योंकि  यही प्रत्यक्षवाद है। ये वो लोग हैं जो धर्म को अफीम मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुनिया को चलाने का पुरजोर समर्थन करते हैं। दरअसल धर्म को रुढ़िवादी घोषित कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर इस दुनिया का जितना नुकसान  पिछले १०० सालों में किया गया है उतना जब से मानव सभ्यता अपने अस्तित्व में आई कभी नही हुआ। विज्ञान के नाम पर हमने अपनी नदियों को दूषित कर दिया हवा मिटटी सबको गंदा कर दिया। विज्ञान ने हमे दो विश्व युद्ध थमा दिए तीसरे के मुहाने पर दुनिया बैठी है। जो सबसे विकसित और वैज्ञानिक देश होने का दावा करता है उस अमेरिका ने तीस बार दुनिया को नष्ट करने के लिए परमाणु हथियार बना कर रखे हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें विज्ञान की क्या गलती तो यही बात धर्म पर लागू होती है।

जब धर्म राज्य के विस्तार का साधन बन जाए तो वह धर्म नही होता है, धर्म मानव के आत्म विस्तार का साधन है। बाहर के मुल्कों का घोषित धर्म केवल राज्य के विस्तार का साधन मात्र था जबकि भारत का धर्म  अध्यात्म है। आज आवश्यकता है कि धर्म के मूल को बड़े सरल तरीके से समझकर उसके आधार पर राजनीति करने की ताकि हर भारतीय  अपने सर्वोच्च  मूल्य को प्राप्त कर सके।