व्याख्या और पुनर्व्याख्या की सुस्थापित भारतीय परम्परा में एक और प्रस्तुति हमारे हाथ में है। पाठ और प्रघटना की व्याख्या-पुनर्व्याख्या सहज मानवीय स्वभाव है, किन्तु अपने सर्वाधिक सुव्यवस्थित एवं सहज स्वीकार्य रूप में इसे भारतीय परम्परा में ही देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति के जिस सातत्य ने सदा अध्येताओं का ध्यान आकृष्ट किया है उसका मूल कारण व्याख्या - पुनर्व्याख्या का यहाँ संस्थात्मक रूप में स्थापित रहना ही है। विभिन्न ऐतिहासिक युगों में संक्रमण का आधार यहाँ युद्ध से अधिक वैचारिक मंथन रहा है। अश्वमेध यज्ञ हुए हैं तो धर्मचक्र प्रवर्तन और शंकर के दिग्विजय की भी भूमिका रही है। इस परम्परा का सुन्दरतम उदाहरण महाभारत के रूप में प्राप्त होता है। महाभारत को समझने का प्रयास समस्त भारतीय परम्परा के बोध का सबसे सीधा रास्ता है। महाभारत एक ग्रन्थ या पाठ के रूप में और एक घटना के रूप में सदा जीवंत है। यह उच्चतम सिद्धांतों से लेकर निरक्षर जन तक हेतु एक सन्दर्भ बिंदु है। महाभारत मात्र अठारह अक्षौहिणी योद्धाओं का युद्ध नही वरन यह कुरुक्षेत्र तो गाँव गली घर से व्यक्ति के अंतर्मन तक व्याप्त है। आज भी जब एक अति सामान्य व्यक्ति कहता है – “आज घर में महाभारत हो गया है”, तो कथन किसी व्याख्या की मांग नही करता । हजारों वर्षों से जन मन में रचा बसा ऐसा पाठ और ऐसी घटना अन्यत्र दुर्लभ ही है।
महाभारत का सारग्राही स्वरुप इसे महान ही नही बल्कि सर्वोपयोगी बनाता है। महाभारत(रामायण सहित) वे महाकाव्य हैं जो पुस्तकों और विद्वानों के मष्तिष्क में नही बल्कि कोटि कोटि हृदयों में नित रचे और समाये जाते हैं जैसा कि ए. के. रामानुजन मानते हैं कि भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में कोई भी कभी रामायण या महाभारत को पहली बार नही पढता, कथाएं वहां पहले से ही मौजूद होती हैं। कहने की आवश्यकता नही कि कथन उपर्युक्त की जीवन्तता उसकी पुनर्व्याख्या पर निर्भर है।
पुनर्व्याख्या की प्राचीन परम्परा को आगे बढाते हुए पवन ने भी इस जीवन्तता में योगदान दिया है । प्रत्येक कथाकार, प्रत्येक व्याख्याता अपने इर्द गिर्द की महाभारत के आईने से सर्वाधिक कथा की पुनर्रचना करता है। कथाकार के चहुँ ओर व्याप्त महाभारत ही एक नये महाभारत की रचना करवाता है। अबकी बार कुरुक्षेत्र में अर्जुन नही बल्कि मृत्युजयी भीष्म सवालों के घेरे में खड़े हैं। कालजय और अमरत्व की तृष्णाओं का आविर्भाव होता है। सवालों के जवाब खोजने का प्रयास होता है। जवाब मिलते हैं , नही भी मिलते हैं, प्रश्न तिरोहित होते हैं पुनः अवतरित होते हैं – युद्ध हो रहा है। महाभारत जारी है । काल अपनी गति के साथ यात्रा कर रहा है।
सहिष्णुता और असहिष्णुता की मौजूदा बहस के दौर में महाभारत के प्रचलित आदर्शों मान्यताओं और निष्कर्षों पर डॉ. पवन ने जिस तरह से सवाल उठाये हैं वह एक महत्वपूर्ण बात है। दरअसल ये सवाल आम जन मानस में पहले से ही हैं किन्तु उन्हें जानने और समझने की जगह नेपथ्य ही रहा है। पहली बार लेखक ने उन्हें मंच प्रदान किया है अब यह सुधी पाठकों और समीक्षकों पर निर्भर करता है कि वह इस नये दृष्टिकोण को किस तरह से पुनर्व्याख्या करते हैं।
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डॉ. प्रशांत त्रिपाठी
(विभागाध्यक्ष: समाजशास्त्र एवं प्रख्यात भारत विद्याशास्त्री )