आज मेरे साथ काम करने वाले चिखुरी राम जी ताजा ताजा बियाह कई के आये है। जौनपुरै के हैं। मुझे तीव्र इच्छा थी कि सुबह कलेवा खाते समय मंडवे में गारी खाये थे कि नही , जब पूछा तो बोले कैसी गाली किसी कि हिम्मत नही कि जो मुझे गाली दे। मैंने पूछा रात में गरियाये गए थे कि नही ? बोले नही। मुझे समझ में आ गया कि अब ये "गारी" भी रेड डेटा बुक में आ गयी है।
जब दुलहा द्वारचार पर आता था खाने आता था तब गारी गाने की रसम होती थी। बड़ी मीठी मीठी गारिया महिलाये हाथ हिला हिला घुघुट लेकर गाती थी।
रात के खाने के समय तो इतने " सीताराम " भजे जाते थे कि क्या कहने।
सखी गाओ मंगलचार
लागे ला दुवरा के चार
दुलहा के फूआ बड़ी सिलबिल्ली
खोजे है बड़का सियार
खोजे है बड़का सियार
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दुलहा भी साले
बलहा भी साले
साले बरतिया वाले हो कि
सीताराम से भजो
बलहा भी साले
साले बरतिया वाले हो कि
सीताराम से भजो
सुबह कलेवा खाने जाता तो एक रसम होती थी " रिसियाने" की। घर पर अम्मा दादी फूआ सब दुलहे को सिखा कर भेजती थी कि बिना सिकड़ी लिए कलेवा जूठा न करना। खैर मान मनुव्वल होता। उसके बाद जइसे ही दुलहेराम दही से मुंह जूठा करते महिलाये बज्जर गारी देना शुरू कर देती
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जउ न होत हमरे भंइसी के दहिया
काउ दुलहे खात काउ दुलहे अँचऊता
माई >>>> खात बहिन >>>>> अँचऊता
बेचारा दुलहा और सहिबालेराम जल्दी जल्दी खा कर वहा से निकलने की कोशिश करते पर औरते खेद खेद कर गरियाती थी।
और सुनने वाले हंस हंस कर लोट पोट।
सम्बन्धो के पानी में ये गालियाँ गुड जैसे होती थी जो रस घोलने और सम्बन्धो को गाढ़ा करती थी।
आज सम्बन्ध न तो रसीले रहे न गाढ़े। इस लिए अब गारी का क्या काम ? सब लोग मॉडर्न हो गए। ये सब हम जाहिल लोगो का फितूर है जो इसे आज भी याद करते है।