मानव सभ्यता में पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने परिवर्तन आये ख़ास तौर से अगर हम पिछले पचास सालों की बात करें तो उसकी तुलना में पिछले पांच हजार साल में आये परिवर्तन अपने अर्थ ही खो बैठते हैं। जब हम प्रकृति में आये बदलाव से मनुष्य के सामाजिक सांस्कृतिक प्रौद्योगिकी बदलावों से तुलना करते हैं तो एकबारगी लगता है कि प्रकृति कहीं पीछे छूट गयी है। मनुष्य बहुत आगे निकलता जा रहा है। यह प्राकृतिक विलम्बना आज के समय में मानव विकास के रूप में परिभाषित किया जा रहा है।
प्रश्न इस बात का है कि यह विकास क्यों? किसके लिए उत्तर मिलता है मनुष्य के लिए। फिर बाकी प्रजातियों का क्या ? क्या वह धरती पर जीवन का हिस्सा नही? और मानव के लिए किया जाने वाला विकास भी क्या समस्त मानवों के लिए है? इन सबका उत्तर हमें निराश ही करता है। दूर गमन दूर श्रवण और दूर दर्शन ही विकास है? सहजीवन का क्या हुआ? संवेदनाओं का क्या हुआ? क्या मनुष्य अपनी लोलुपता , क्रूरता , अज्ञानता को कम कर पाया? ये भी सवाल आज तक अपना जवाब हाँ में नही ढूंढ पाए हैं।
आज के समय में जो भाग नही पाया वह कुचल दिया जा रहा है। जो स्मार्ट नही हो पाया वह पीछे छोड़ दिया जा रहा है। यदि यही विकास है तो विनाश की परिभाषा क्या होगी? हमने हथियार बनाये। पहले हाथ में पत्थर था आज परमाणु बम है। किसके लिए? स्वयं के संहार के लिए। अर्थात संहार ही विकास है। चौबीस घंटे भागमभाग किसके लिए ? हमने रुकना होगा। हमें रुक कर देखना होगा कि हम कहाँ जा रहे हैं। हमें रुक कर देखना होगा कि हम अकेले तो नही हो गये। हम नदियों, पहाड़ों, चिड़ियों, जानवरों, फूलों के साथ सहजीवन में हैं या नही हमें रुक कर देखना होगा। हमें रुक कर देखना होगा कि हमारे भाई बहन मान बाप सगे संबंधी बच्चे ये सब हमसे दूर तो नही हो गये।
क्या हुआ अगर हम रुक गये? रुकना मौत है चलना ज़िन्दगी यही कहकर हमें चलने के लिए प्रेरित किया जाता है पर वह समय आ गया है जब रूककर आराम करना ज़िन्दगी और भागमभाग मौत के रूप में परिभाषित किया जायेगा। मनुष्य को अपनी गति कम करनी ही पड़ेगी। प्रकृति के साथ कदमताल करना ही पड़ेगा। अगर मनुष्य अपने विवेक से नही रुका तो प्रकृति रोकेगी। जिसे विद्वान प्राकृतिक आपदा कहते हैं दरअसल वह प्रकृति द्वारा संतुलन बनाने की एक प्रक्रिया ही है।
प्रकृति मनुष्य को मनुष्य बनने को कह रही है। रुकिए, मनुष्य बनिए।