शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

कस्तूरी उस घाट मिलेगी


 शायद दरजा सात या आठ की बात होगी, सूरदास के पद पढने के बाद हृदय ऐसा पिघला कि मन के मानसरोवर से भाव गंगा बह निकली, तब से भाव यात्रा आजतक अनवरत चल रही है। इस भाव नदी के तट पर बने घाट कच्चे हैं, उन घाटों को आधुनिकता का पंकिल स्पर्श से बचाकर रखने की कवायद खूब करता हूँ ताकि मिटटी का गीलापन, उस पर पदचिन्ह और किनारे किनारे निर्दोष हरियर दूब को कंक्रीट और कोलतार से बचा सकूँ। मुझे हर उस चीज से असहजता है जो स्वाभाविक अभिव्यक्ति और प्रवाह को बाधित करती है आधुनिक बोध के जाल से लगभग बचते हुए ‘कस्तूरी उस घाट मिलेगी’ की रचना की गयी है।

नदी का अपने उद्गम स्थल छोड़ कर घाट पर आना ठीक वैसे ही है जैसे मायके को छोडकर कोई ब्याहता ससुराल जाती है, घाट पर उस नदी के जल में तमाम अनचीन्हे और अनचाहे पदार्थ मिलते हैं, नदी मुड़ नही सकती, घाट उसके साथ चल नही सकता। ठीक इसी तरह हमारी सांसारिक विवशताएँ, दुविधाएं होती हैं, हम घर छोड़ कर नदी बन घाट घाट बहते रहते हैं, कस्तूरी की तलाश में। किस घाट किसी के अंतर्मन की सुगंध आकर्षित कर ले, पता नही होता है। पर एक तलाश में हर कोई घूम रहा है। उसी तलाश को आधार बनाते हुए रचनाएं आपको इस काव्य संग्रह में पढने को मिलेंगी। उम्र का एक दौर कच्चेपन का होता है, उन कच्चे भावों को इस पुस्तक में सहेजने का प्रयास है।
मुख्यतः अतुकांत, मुक्तक, गीत और गजल के रूप में आपके समक्ष रचनाएं प्रस्तुत हैं। एक विशेष बात यह है कि पारम्परिक मीटर या छंद के हिसाब से शायद रचना खरी न उतरे पर भाव आपसे जरूर जुड़ेगा ऐसा मेरा विश्वास है।

डॉ पवन विजय