मंगलवार, 7 मार्च 2017

भभूती की दुलहिन और महिला दिवस

भभूती के दुलहिन की पहचान भभूती से १०० गुना ज्यादा है। मै आज तक भभूती को नहीं पहचान पाता हूँ पर भभूती की दुलहिन सारे गांव के दुःख सुख की साथी है। कोइ भी काम हो भभूती की दुलहिन बिना ना नुकुर किये हँसते  हुए हाजिर हो जाती थी अपनी साथिनों के साथ। आख़िरी बार उसके साथ मैंने १९९८ में पानी लगे हुए खेतों में धान रोपे थे। वह अक्सर मुझे चिढ़ाया करती थी कहती कि तुम मेंड़ पर बैठो... खामखा काम किये जा रहे ये सब हम मजूरों का काम है।मुझे मालूम था उसकी चतुराई.... वह एक और मजूर बढ़ाकर अपनी एक और  साथिन को काम पर लगाना चाहती थी। पूरे दलित बस्ती की नेता थी भभूती की दुलहिन। बाबू को देखकर चट्ट से घुंघुट काढ़ लेती थी पर हाथ हिला हिला कर ५ किलो गेहू एक दिन की मजूरी भी तय कर लेती थी। मजूरी से समझौता नही।

भभूती की दुलहिन को अपने जांगर पर भरोसा था पर भभूती  दिल्ली में कहीं गुलामी करने भाग गए थे । घर पर वही स्त्री अपने बच्चों की पिता भी थी। पर स्त्री का मन पुरुष न हुआ यही स्त्रीत्व की थिरता थी।

कछाड़ मारे एक दिन जब वह तलैया से करेमुआ का साग खोंट रही थी तभी  पीछे से जगलाली ने आवाज दी...
"अरे का रे दुलहिनिया संझौती क बखत होइगे घर चलु।"
"का घरे जाई अइया घरा त डिल्ली चला ग।"  कह कर भभूती की दुलहिन हाली हाली साग अपने कोंछ में डालने लगी।
जगलाली ने गहरी सांस ली और अस्फुट स्वरों में गुनगुनाने लगी...

सेर भर गोंहुआ बरिस भर खईबे,
तोहके जाइ न देबे हो।
रखिबे अंखिया के हजुरवा,
तोहके जाइ न देबे हो।।।

तलैया का  लालछिमा पानी खारा होने लगा..... जाने कितने लालछिमहे तालों का पानी खारा होता रहा । जाने कितने भभूती दिल्ली के होते गए पर उस औरत का मीठापन गाढ़ा होता रहा। इस बार गाँव गये तो उन्होंने हमें पहचान लिया हुलस कर मिलने आईं व्यथा कथा के साथ पर उसमे कही दारिद्र्य बोध या लाचारी नही बल्कि आत्म गौरव था पूरी ठसक के साथ आदिहूँ से सब कथा सुनाई। हम चुपचाप सुनते रहे।

पानी फिर से खारा होता रहा।

ऐसे ही एक महिला थी "कलुई" हम लोग उन्हें कलुआ फुआ कहते थे। राखी के दिन वह सारे गांव को राखी बांधती थी और नमकीन खिलाती थी। अपने पति की हिंसा और आचरण हीनता के खिलाफ उन्होंने यह तय किया कि वे ससुराल नही जायेगी और मायके में पिता के ऊपर बोझ नही बनेगी। बाभन कुल में पैदा होने के बाद भी उन्होंने हंसिया उठा कर मेहनत मजूरी को जीवन का सहारा बना लिया। गांव के बच्चे उन्हें चिढ़ाते " हे फुआ फुफा कहा गए" वह नकली नाराजगी लाते हुए मारने का अभिनय करती। जिंदगी भर उस आदमी (पति ) का मुंह नही देखा।

एक और स्मरण याद आता है। एक थीं मलाइन । उनकी शादी हमारे गाँव में हुयी थी। एक बच्चा पैदा होने के कुछ दिन बाद उनके पति की मृत्यु हो गयी। उन्होंने गाँव नही छोड़ा और न ही विधवा जीवन की लाचारगी स्वीकार की । दूसरी शादी की पूरे रोब के साथ। गाँव वाले लानत मलानत करते रहे पर वह निश्चल रहीं। आखिर थोड़े दिन बाद सब शांत हो गया और पूरा जीवन उन्होंने पूरी गरिमा के साथ जिया।

मै तब महिला सशक्तिकरण के मायने नही जानता था शायद अब भी बहुत कुछ नही जानता लेकिन एक बात अच्छी तरह जानता हूँ कि ये महिलाये स्वाभाविक सशक्तिकरण के सर्वोच्च उदाहरण है। आज वीमेन एम्पावरमेंट फैशन बनता जा रहा। फैशन से स्वाभाविकता नष्ट होती है।

लोग महिलाओ को डॉक्टर श्रमिक टीचर मॉडल एक्टर इत्यादि नही समझते बल्कि केवल एक औरत के नजरिये से देखते है और औरत को देखने का एक ही दृष्टिकोण है: देह

इस नजरिये से मुक्ति ही महिलाओ के सशक्त होने का मार्ग प्रशस्त करेगी महिला दिवस की अग्रिम  शुभकामनाये।

डॉ पवन विजय