सोमवार, 9 मई 2016

डॉ पवन विजय के मुक्तक



मुक्तक 

  १. 
मैं बांच भागवत देता हूँ तुम मौन में जो कुछ कहती हो।
मैं विश्वरूप बन  जाता  हूँ मेरे आस पास जो रहती हो।
संतापित  मन मेघ बन  गया सुनकर के मल्हारी गीता,
मैं अर्जुन सा हो जाता हूँ  तुम  माधव जैसी लगती हो।


२. 
लहर पर बिछलाती है नाव।
धूप पर  बादल   डाले छाँव।
दिन असाढ़ के भीग रहे जैसे,
तुम्हारे  पायल  वाले  पाँव।।


३. 
पानियों में सिमटती रहीं बिजलियाँ।
मेरे छत पर सुलगती रहीं बदलियाँ।
अबके सावन की बूंदों में है खारापन,
बारिशों को भिगोती रहीं सिसकियाँ।


४. 
स्वाभिमान से  जीना  है तो लाचारी से दूर रहो 
रोटी   दाल  भली है पूड़ी  तरकारी से   दूर रहो 
चैन मिलेगा पैर पसारो जितनी लम्बी चादर है, 
उम्मीदों सपनों  को बेंचते   व्यापारी से दूर रहो