बकौल गोपेश्वर
सिंह हिन्दी में जिस विधा की सर्वाधिक दुर्गति हुई है, वह है पुस्तक समीक्षा। फिलहाल पुस्तक समीक्षा लिखने-लिखाने
का आलम प्राय: जुगाड़ उद्योग-सा है। पत्र-पत्रिकाओं के इस जरूरी हिस्से में
खानापूरी-सी की जाती है। पुस्तक समीक्षा अब सीखने-सिखाने के लिए नहीं, बल्कि किसी को उठाने-गिराने के लिए की जाती है। आलोचना के क्षेत्र में यही
प्रक्रिया पिछले दो दशकों से निर्बाध रूप से साहित्य जगत में
विद्यमान रही है। आचार्य राम चन्द्र शुक्ल से लेकर आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ।
राम विलास शर्मा, देवी शंकर अवस्थी, नलिन विलोचन शर्मा, साही और नामवर सिंह जैसे कुछ गिने चुने नाम ही समीक्षा,
आलोचना, समालोचना के नाम पर हिन्दी साहित्य
को मिले। इनकी कलम से हिन्दी को फणीश्वर नाथ रेणु , सूर्यकांत त्रिपाठी
‘निराला’ जैसे लेखक दिग्गज साहित्यकारों के रूप में स्थापित हुए। जाने अनजाने में
यह बात हिन्दी लेखकों और पाठकों को समझ
में आने लगी कि फलां समीक्षक यदि फलां पुस्तक की समीक्षा में दो अच्छे शब्द लिखे
तो पुस्तक जरुर पठन योग्य होगी। इस बात ने पाठकों को पुस्तक खरीदने में “चूजी” बना
दिया। शुरुआत में नि:संदेह रूप से इस तथ्य का फ़ायदा पाठकों को मिला। उन्हें
समीक्षा पढ़कर यह पता चल जाता था कि कौन सी पुस्तक कथ्य शिल्प और भाव के दृष्टिकोण
से रूचि के अनुसार पढ़ी जानी चाहिए। इस समय
तक समीक्षक भी निर्भीकता और प्रामाणिकता के साथ पुस्तकों का निर्ममता के साथ
विवेचन कर रहे थे किन्तु जैसे ही प्रारम्भिक समीक्षकों की पहली खेप ने साहित्य जगत
को अलविदा कहा उनकी जगह लेने वाले उस
परम्परा के साथ न्याय नही कर पाए और गोपेश्वर सिंह को उपर्युक्त पंक्तियों में
समीक्षा के प्रति अपने भाव व्यक्त करने पड़े।
उससे सबसे ज्यादा नुकसान लेखक और लेखन
को ही हुआ। समीक्षक, सम्पादक और रचनाकारों की मिलीभगत से आम जनता हिन्दी पुस्तक पाठन से दूर होती चली गयी। लेखक और पाठक
के बीच समीक्षक नामक जीवों की मठाधीशी से हिन्दी लेखन सिकुड़ता गया और जो हुआ भी
उसके अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक
निहितार्थ रहे। इन्टरनेट के आने के बाद आम जन ब्लॉगिंग तथा अन्य माध्यमों जिसे बाद
में सोशल मीडिया कहा गया, से अपना मत रखने का साहस करने लगा। धीरे धीरे
पांडित्यपूर्ण और भारी भरकम समीक्षाओं पर एक ब्लॉगर या फेसबुकिये की संक्षिप्त
टिप्पणी भारी पड़ने लगी। यही वह वक्त था जब
लेखक और पाठक के बीच सीधा संवाद स्थापित
होना शुरू हुआ। सही मायनों में साहित्य में उत्तर आधुनिक प्रवृत्तियों का
परावर्तन देखने को मिलने लगा जब वृहद् संरचनाओं की बजाय सूक्ष्म संरचनाएं ज्यादा प्रभावकारी भूमिका
निर्वहन करने लगीं। साहित्य जगत में खासतौर से हिन्दी लेखन में सोशल मीडिया पर
सक्रिय रचनाकारों ने इस प्रवृत्ति को परम्परा के रूप में स्थापित
किया। स्याह –सफेद समीक्षा लेखन अब तथाकथित किसी भारी भरकम नाम का मोहताज न होकर एक
सामान्य नाम होने की संभावना यथार्थ में परिवर्तित होने जा रही है ।
साहित्य की जीवन्तता तभी है जब वह पाठक तक पहुचे और पाठक उसे पढ़ कर उस पर अपनी
प्रतिक्रिया दे। पुस्तक के बारे में अच्छा बुरा जो भी लिखे। समीक्षा के क्या मानक
है यह अलहदा विषय है। आम पाठक ने पुस्तक पढ़कर क्या लिखा यह महत्वपूर्ण है। दरअसल
मानक स्थापित करने के क्रम में फिर वही
व्यक्ति विशेष के ठप्पे की आवश्यकता होती है और साहित्य केन्द्रित और संकुचित होता
जाता है। इस मायने में फेसबुक के माध्यम
से पुस्तकों पर आई टिप्पणियाँ और सपाट
समीक्षाएं भविष्य में इस बात के लिए जानी
जायेगी कि उसने पाठक से सीधा संवाद कर साहित्य के विकेंद्रीकरण का रास्ता खोला। मेरे ख़याल से
काव्य/कथा संग्रह या अन्य किसी विधा में लिखी गयी साहित्यिक कृति पर आधारित समीक्षाओं ने पुस्तकों को पढने मात्र अथवा शेल्फ या पुस्तकालय की शोभा बढाने की बजाय उस
पर अध्ययन करने की नई प्रवृत्ति का सूचक
है।
अज्ञेय ने १९४३ में तार सप्तक के प्रकाशन के साथ हिन्दी में प्रयोग वाद को
स्पष्ट आकार दिया जो छायावाद और प्रगतिवाद की रुढियों की प्रतिक्रिया का परिणाम था।
हिन्दी साहित्य के प्रयोगवादी दौर के पश्चात
टिप्पणी वाद युग की शुरुआत हो रही है जो
कि साहित्य में उस लौह पिंजरे के विरुद्ध प्रतिक्रिया का परिणाम है जिसमे साहित्य
एक विशेष वर्ग के केंद्र में जमा हो जाता है। यह टिप्पणी वाद कोई तयशुदा मानक
बनाने के पक्ष में नही है यह तो उस धारा
की हिमाकत करता है जिसके अंतर्गत आम जनता बड़े से बड़े रचनाकार की रचना की समीक्षा
कर उसे पठनीय या अपठनीय निर्धारित करेगी न कि कुछ विशेष लोग अपनी साहित्यिक
रुचियों और समझ के आधार पर जनता पर अपनी राय आरोपित करेंगे। जनता जो राय बनाए उसके
आधार पर साहित्यिक लोकतंत्र की स्थापना हो हिन्दी साहित्य को इससे बेहतर अवदान भला
और क्या हो सकता है।