गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

भूमंडलीकरण के अजगर ने बाजार के सहारे हमारी लोक संस्कृति को निगल लिया है।

अगहनी अरहर फूली है। पीली पंखुड़ियों की संगत नम खेतों में पके धान खूब दे रहे हैं।


अरहर के फूलो पे उतरी /कार्तिक की पियराई सांझ ।
लौटे वंशी के स्वर /बन की गंध समेटे /सिंदूरी बादल से /चम्पई हुयी दिशाएं 
हलधर के हल पर उतरी /थकी हुयी मटमैली सांझ।

बजड़ी, तिल, पटसन और पेड़ी वाली ऊख के खेतों को देख कर करेजा जुड़ा जाता है। पोखर की तली में बुलबुले छोड़ते शैवालों जैसे हम बच्चों के मन में भी खुशियों के बुलबुले उठते है आखिर दीवाली का त्यौहार जो आने वाला है। बँसवारी के उस पार बड़े ताल में डूबता सूरज धीरे धीरे पूरे गाँव को सोने में सान देता है।

आलू की बुवाई की तैयारियां चल रही हैं। भईया मिट्टी और पसीने से सने हेंगा घेर्राते हुये बैलों के साथ आते दिखाई देते हैं। मैं दौड़ कर उनके हाथ से 'पिटना' ले लेता हूँ। कई दिनों से मेरा बल्ला सिरी लोहार के यहाँ बन रहा है तब तक क्रिकेट खेलने के लिए उस 'पिटने' से ही काम चला रहा हूँ। पीछे पीछे छटंका और झोन्नर कहार भी आ रहे है। झोन्नर हल चलाते हैं और छटंका हराई में दाना बोती जाती हैं। अम्मा जल्दी से उनके लिए मीठा पानी की व्यवस्था करती हैं।

झोन्नर गुणा भाग करते है 'इस बार दिवाली में पीपल वाले बरम बाबा को सिद्ध करूँगा।' छटंका चुटकी काटती है 'उस बरम को मऊवाली तेली के दूकान में भेज देना बरम दूकान की रक्सा करेगा ई सारे बलॉक वाले उसका पईसा खा जाते हैं।' फिर दोनों हो हो हो कर हँसते है। तभी बड़के बाबू इनारा से आते हैं नऊछी से हाथ पोंछते बोले " का हो राजू सबेरे जल्दी उठि जाया अन्तरदेसी में भइकरा भोरहरे पहुंचे के लिखे रहेन।" भईया सिर हिला देते हैं।

कालि बाबू अईहै ना? हम अम्मा से पूछते हैं। अम्मा हमें कोरां में लेकर माथा चूम लेती हैं। 
यह परदेसियों के घर वापस लौटने का बखत है।

फूटी मन में फुलझड़िया पूरण होगी आस,
परदेसी पिऊ आ गए गोरी छुए अकास।



मतोली कोहार खांचा भर दियली, कोसा, घंटी, खिलौना, गुल्लक लिए दरवाजे बइठे हैं। बच्चों की रूचि बार बार घंटी बजाने और मिटटी के खिलौनों को देखने और छूने में है। बीच बीच में मतोली डपट लगाते जा रहे हां हां गदेला लोगन खेलौना जादा छू छा जिनि करा टूटि जाये । आवा हे मलिकिनीया हाली हाली लेई देई ला लम्मे लम्मे बांटे के बा। अम्मा दियली वगैरह लेकर उसे सिराने चली जाती हैं। मतोली का नाती खेत में धान के बोझ गिनने गया है। ग्रेजुएशन के दौरान समाजशास्त्री वाईजर की 'जजमानी प्रथा' पढ़ने से पहले ही इस किसिम की परंपरा से परिचय हो गया था।

सड़क पर प्रत्येक मोटर रुक रही है कोई न कोई परदेसिया उतर रहा है। हमारे गांव से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या सात गुजरता है। सड़क से होकर एक शारदा सहायक नहर मेरे गांव समेत कई गांवों को जोड़ती है। जैसे ही किसी के यहाँ का कोई नहर पर आता दिखाई देता है घर के सारे बच्चे दौड़ लगा देते हैं।

बड़े बाबूजी बरधा बाँध रहे लेकिन आँख कान सड़क की ओर है। मन ही मन बुदबुदाते जा रहे 'आजुकालि बसिया के कौनो निस्चित समे नाई रहिग। भेनसारे से दस बजिग अबे आयेन नाई।' अचानक उत्तर प्रदेश परिवहन की एक बस रूकती है। भईया चिल्ला उठते हैं ' बाबू आई गयेन'। हम में जो जहाँ था जो काम कर रहा था सब छोड़ कर नहर की और अपनी पूरी ताकत के साथ भागा हर कोई जल्दी से पिताजी के पास पहुँच कर बैग और सामान लेना चाहता था।

पूरे घर में रौशनी फ़ैल गयी थी। सबके चेहरे जगमगाने लगे। गुड और घी के अग्निहोत्री सुगंध वातावरण में संतुष्टि और समृद्धि के भाव लिए मन में खुशियाँ भरने लगती है।


अग्निहोत्र के बाद दियलियों को प्रकाशित किया जाता है। बड़के बाबू सारा निर्वाह करते हैं और हम सब उनका अनुसरण। पूजा के पश्चात परसाध। बड़े भईया घूरे पर जमराज के यहाँ दिया जलाने जाते हैं फिर सारे खेतों में दिया रखा जाता है। गौरीशंकर और चौरा धाम को भी दिए गए हैं। सबका ख्याल। आज के दिन हर कोने उजाला भेजने की कोशिश है। बिना पड़ाके के कैसी दीवाली। बच्चालाल के बम्म का जवाब एटमबम से देना है। सरगबान सीसी में डाल खूब छुड़ाये जा रहे। बहन को चुटपुटिया और छुड़छुड़ी वाले पटाखे दिए है हैं। कुछ कल दगाने के लिए बचा के रख लिए जाते हैं।

दसो दिशाओं में घुली भीनी-भीनी गंध,
कण-कण पुलकित हो उठे लूट रहे आनंद

आज के दिन सबको सूरन (जमींकन्द) खाना है। जो नहीं खायेगा वो अगले जनम में छछूंदर बनता है ऐसा दादी कहती थी। खाना पीना के बाद हम बच्चे विद्या जगाने के लिए किताब कापी लेकर बैठ जाते। ऐसा माना जाता है कि इस दिन किये गए कार्यों का असर पूरे साल बना रहता है। रात में कजरौटा से ताजा काजर आँख में अम्मा लगाती थीं। फिर दीवाली के उजाले आँखों में बसाये हम सूरज के उजाले में आँख खोलते। 

दीवाली के अगले दिन पूरा आकाश एकदम नीला दिखाई देता। हम बच्चे दियली इकठ्ठा करते फिर उससे तराजू बनाते। क्या दिन थे जब हमारी परम्पराएँ हमें जीवन देती थीं। बाज़ार हमारी जरूरतों को पूरा करता था उन्हें बढ़ाता नहीं था। क्या दिन थे जब थोड़ी सी तनखाह में सबके पेट और मन भर जाते थे। क्या दिन थे जब परिवार माने ढेर सारे रिश्ते होते थे। क्या दिन थे जब मिठाईयां घर पर बनती थी। क्या दिन थे जब सब लोग अपने थे

दीवाली ने कर दिया ज्योतिर्मय संसार,
सबके आँगन में खिले सुख समृद्धि अपार

सच तो यह है कि दीवाली धन से ज्यादा आपसी प्रेम, स्वास्थ्य और पर्यावरण पर आधारित त्योहार है ।गोवर्धन पूजा गोरू बछेरू के पालन पोषण और पर्वतो के संरक्षण से सम्बन्धित है। दीपोत्सव के धार्मिक निहितार्थ सामाजिक व्यवस्था और अध्यात्मिक उन्नति मे अत्यंत सहायक है । सभी मित्रो से करबद्ध निवेदन है कि प्रतीको को इतना महत्व ना दे कि किरदार ही बौना हो जाय।

भूमंडलीकरण के अजगर ने बाजार के सहारे हमारी लोक संस्कृति को निगल लिया है।अघासुर के वध की जरुरत है।