रविवार, 27 जुलाई 2014

बरसो रे बादल हरहरा के बरसो।

बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
सावन में धरती नें
खोल दिये केशराशि 
पोर पोर भिगो देना
अमृत बूंदों से,
बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
माटी की गंध लिये
नाचती है पुरवा
कांपती उंगलियों से
मालिनी ने छू लिया
देव के ललाट को,
बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
थिरकती शिप्रा की लहरें
कसमसाते से तटबन्ध
मांझी गीत गाया आज
अधरों ने फिर से,
बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
++pawan++

हमारे प्रिय प्रधानमंत्री जी! हम १० साला परम्परा के वारिस बनने से इंकार करते हैं।

हे भारत की जनता के नए सेवक भाई नरेंद्र मोदी !

लोगों में शिकायत है कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला कठपुतली मात्र बन कर रह जाता है। हमने इतिहास में तुर्कों मुगलों के बहादुर शाह जफ़र टाइप से लेकर अंग्रेजों के वायसराय होते हुए डॉ मनमोहन तक के शासक देखें जिनके मुंह में जबान नहीं हुआ करती थी।

आपको चुना। दिल से चुना।

माना कि प्रशासन आप प्रशासन को चुस्त दुरुस्त करने में लगे हुए हैं और सोशल साइट्स के माध्यम से अपनी बात रख रहें हैं। नगरों की ३० प्रतिशत जनता उसे देख रही है किन्तु ७० प्रतिशत जनता गांवों में है जो आपके ट्विटर और फेसबुक को नहीं पढ़ सकती। वह तो चौपाल लगाती जिसमे रेडिओ चलता है। चुनावो के दौरान सिंह गर्जना सुनने को आदी बनाने वाले हे मौन मोहन सिंह के वारिस जो १० साल से "कम्युनिकेशन गैप" की परम्परा थी कम से कम उसे जारी रखने के लिए वोट नही दिया गया था। आज हर जगह सौगंध मुझे इस मिटटी वाले गीत(जो कि एक करोड़ पति भाट ने पईसे लेकर लिखा होगा ) की जगह एक गांव जवार के कवि (नाम याद नहीं आ रहा ) की पंक्तियाँ हवाओं में तैर रही हैं।

पूँछ उठा के परजा नचलिन,
उछलिन कुदलिन खुस्स।
++
राजा अईंली राजा अईंली
राजा कईंली फुस्स।।

इस हवा को महसूस करिये। ये उसी भारत की अवाम की आवाज है जिसने आपकी दहाड़ में अपने स्वाभिमान की गूँज सुनी थी। आज उसे वो आवाज सुनायी नहीं दे रही है। उसे अपनी आवाज वापस चाहिए। उसे आश्वस्ति चाहिए जो उसे पूर्व में " भाइयों बहनों" को सुनकर होती थी। हमें आप पर पूरा भरोसा है। पूरा समर्थन है। हम सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं लेकिन १० साला परम्परा के वारिस बनने से इंकार करते हैं।

हमारे प्रिय प्रधानमंत्री जी उम्मीद है कि आप जनभावनाओं से अवगत होंगे।

…पवन विजय