शुक्रवार, 15 मई 2020

दुःखों की वसीयत

दुःखों की वसीयत

जब बंट रहे थे 
खेत खलिहान दुआर मोहार
गोरु बछेरु बरतन भांड़े 
ताल तलैया बाग बगीचे

जब बंट रहे थे
हाथी घोड़े जर जमीन
लाल मोहर गिन्नी  अशर्फी रुपिया 
यहां तक कि जब हुआ
ठाकुर जी का बंटवारा
कितने दिन किसके यहां रहेंगे
जब इस बात को भी तय किया गया कि
बाबा की बुढ़ौती किसके यहां 
कितने महीने में कटेगी
तब भी मैं चुप बैठा था

आखिर सभी अपने अपने हिस्से लेकर
रखने संभालने का जतन करने लगे
डंड़वारें डाली जाने लगीं
खूंटे गाड़े जाने लगे
बरतनों की गिनाई शुरू हो गयी
तब भी घुटनों पर कुहनियां टिकाए
मैं चुप था

सामान अंदर हो गए
बालकों को भी बता दिया गया
अपना पराया क्या है
दरवाजों के अंदर से सिटकनी दे दी गयी
जोड़ घटाव का दौर जारी था 
लिस्ट मिलाई जा रही थी

लाई खाते रस पीते बही देखते  
अंत में एक पंच ने आवाज लगाई
शायद मेरी बारी आई है
पर अब बचा क्या है
सब तो बंट गया है
पंच मुझसे मुखातिब होकर बोला
तुम्हारे तुम्हे वसीयत में दुःख मिला है

जब एक चम्मच के लिए किए जाएंगे 
लज्जित माँ बाप
एक सूत जमीन के लिए तारे जाएंगे
पुरखे देवता थान पवान
जरा सी बात पर तार तार होंगी
परंपराएं मूल्य प्रतिमान 
तो उनसे उत्पन्न दुःखों के आकाश की वसीयत
तुम्हारे नाम की गयी है

तुम्हे  दिया गया है पूर्वजों की
आशाओं अभिलाषाओं का कोष

वे दुःख जिन पर गीत बने
वे दुःख जिन्हें पीढ़ी वहन करती आई है
वे दुःख जिन्हें देवता भी धारण न कर सके
उन दुःखो की थाती तुम्हे मिली है

यह कह पंच उठ गया 

मैं दुःखों के वसीयत की पोटली खोलने लगा

...पवन विजय

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत मार्मिक व्यथा की रचना।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

आज का सच , लेकिन ये दुख ढोना हमारा प्रारब्ध है । बहुत सुन्दर भाव ।

अजय कुमार झा ने कहा…

उफ़ , दुखों की वसीयत होती आज पहली बार देखी सुनी | सच को शब्दों में पिरो दिया आपने तो | शानदार पंक्तियाँ सर

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बेहद मार्मिक और भावपूर्ण रचना.