जिस देश में कोस कोस पे पानी
और चार कोस पे बानी की बात कही जाती है, जहां १७९ भाषाओं ५४४ बोलिया हैं बावजूद
इसके देश का राजकाज सात समंदर पार एक अदने
से देश की भाषा में हो रहा है , इस तथ्य पर मंथन होना चाहिए I भारतीय भाषायें अभी भी खुले आकाश में सांस लेने
की बाट जोह रही हैं I हिन्दी को इसके वास्तविक
स्थान पर स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी सर्वस्वीकार्यता हो I यह स्वीकार्यता आंदोलनों या क्रांतियों से नही
आने वाला है I इसके लिए हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के रूप में
विकसित करना होगा साथ ही अनुवादों और मानकीकरण के जरिए इसे और समृद्धता और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा I
हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं की
समृद्धता को उपयोगिता में बदलकर ही
हम उन्हें शेष विश्व से प्रतियोगिता के लिए तैयार कर सकते हैं I हिन्दी में सभी भाषाओं के समन्वय की विशेष
क्षमता है लगभग ढाई लाख मूल शब्द हिन्दी में है जोकि किसी अन्य भाषा में नही हैI हिन्दी के
अकादमिक व्यावसायिक स्वरुप के मानकीकरण से ही आगे के रास्ते खुलेंगेI हिन्दी
का भाषाई और तकनीकी रूप से अन्य भाषाओं के साथ कोई विरोध नही हैI बल्कि यह तो सभी भारतीय भाषाओं को पिरोनी वाली
माला के धागे के रूप में है जिसमे समस्त भारतीय बोली भाषा के फूल टाँके हुए हैंI
दूसरी भाषाओं के प्रति असुरक्षा का माहौल बना
देना शुद्ध रूप से राजनीतिक मसला हैI इस मसले
को दिल्ली के गलियारे से निकल कर देश की
जनता के सामने रखा जाना चाहिए ताकि
वह इसे हल करने के लिए आगे आए I एक उदाहरण से इसे और स्पष्ट तरीके से समझ सकते
हैं, जब चुनाव होते हैं तो हर नेता अपने क्षेत्र की जुबान में वोट मांगता हैI इसका मतलब है कि जनता से सीधे जुड़ाव उनकी अपनी
भाषा में ही हो सकता हैI ठीक यही कोशिश होनी चाहिए जिससे आजादी के उनहत्तर साल बाद
देश को उसकी कोई एक जुबान मिल जाए, यह देश
अपनी भाषा में बोलने लग जाएI
भारत की भाषाओं को संवर्धित करने के लिए केंद्र
और राज्यों ने अनेको संस्थाओं अकादमियों का गठन किया हुआ है किन्तु ये संस्थाएं
कुछ निहित व्यक्तिगत राजनीतिक कारणों के चलते भाषा को वह योगदान नही दे पायी जिसके लिए
इन्हें स्थापित किया गया थाI आपस में समुचित तालमेल न होने के कारण इन
संस्थाओं के मध्य संघर्ष की स्थिति बनी रही फलस्वरूप भाषा के मुद्दे कहीं पीछे
छूटते गये I मेरा स्पष्ट मत है कि हिन्दी अकादमियों, क्रांतियों और आंदोलनों, कवि सम्मेलनों, पुस्तक विमोचनों अथवा विभिन्न अनुदानों के सहारे मात्र से आगे नही बढ़ सकती है I बिना आधार के सुधार की कल्पना भी नही की
जा सकती I हिन्दी की सशक्तता इस के रोजगार, विज्ञान और तकनीकी की भाषा होने में
निहित हैI हिन्दी की सम्पूर्ण भारत में
सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार्यता और क्षेत्रीय भाषाओं के अधिकार को लेकर चेतनात्मक परिचर्चा का आयोजन
न केवल चौदह सितम्बर बल्कि सम्पूर्ण वर्ष भर चलनी चाहिए I विभिन्न बोलियों भाषाओं का परिरक्षण, संवर्धन और विकास करने, ज्ञान की विभिन्न शाखाओं से
सम्बद्ध भारत तथा विश्व की विभिन्न भाषाओँ में उपलब्ध सामग्री का मानक हिंदी
अनुवाद की व्यवस्था, सृजनात्मक साहित्य के प्रोत्साहन एवं प्रकाशन हिन्दी समेत सभी
भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ ग्रन्थ बनाना इत्यादि
ऐसे आधार हैं जिन पर खड़ी होकर हिन्दी राष्ट्रभाषा के साथ विश्वभाषा का
दर्जा प्राप्त कर सकती हैI
हिन्दी को केन्द्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए देश भर में
व्यापक संवाद हो। हिन्दी के प्रति जो भी पूर्वाग्रह फैले हैं या
फैलाए गये हैं उन्हें ढूंढ कर उनका उन्मूलन अति आवश्यक है तभी हिन्दी
भाषा की पुनर्स्थापना तभी हो सकती है I
क्रमशः