इस पृथ्वी पर पैदा होने
वाला कोई भी मानव बच्चा किसी ना किसी संस्कृति का अटूट हिस्सा जरुर है और चाहे
बोली के स्तर पर या फिर भाषा के स्तर पर वह अपने चारों ओर बहुधा बोली जाने वाले
स्वर ज्ञान को अपनाता है जिससे न सिर्फ वह मौलिक रूप से उस संस्कृति का सदस्य
प्रदर्शित होता है बल्कि संरक्षण की विधा को भी स्वाभाविक रूप से अपनाते हुए किसी
बोली या भाषा को संरक्षित करता है | लेकिन विज्ञान के बढ़ते कदम ने जैसे जैसे मानव
जीवन को जटिलता की ओर उन्मुख किया वैसे वैसे मानव अपनी मूल संस्कृति से दूर उस
संस्कृति को सीखने के लिए भागने लगा जो उसकी नहीं थी | ऐसा करके वो अपनी संस्कृति
में एक विशिष्टता को प्राप्त होने लगा और विशिष्टता प्राप्त करने से आने वाले
परिवर्तन को देख कर ना जाने कितने लोग दूसरी संस्कृति को सीखने के लिए प्रेरित
होने लगे | इस तरह की प्रक्रिया से जो सबसे बड़ा दुष्परिणाम आया वो मूल संस्कृति का
पराभव था और उसमे भी उस संकृति की बोली या भाषा पर तुषारापात हुआ क्योकि ज्यादातर
संस्कृति ने किसी विशिष्ट ज्ञान को अपनी संस्कृति की भाषा में परवर्तित करने का
प्रयास नहीं किया और ये चिंताजनक स्थिति भारत और वह बोली जाने वाली हिंदी में
अपेक्षाकृत ज्यादा ही दृष्टिगोचर हुई | जिन संस्कृतियों ने इस मूल तत्व को समझ
लिया उन्होंने दूसरी संस्कृति की तरफ अंधी दौड़ लगाने के बजाये उस संस्कृति के
विशिष्ट तत्वों को अपनी शैली में समाहित करके अपनी ही संस्कृति कोना समृद्ध किया
बल्कि अपनी भाषा को भी समृद्ध किया जैसे फ्रेंच समाज शास्त्री इमाइल दुर्खीम ने
अपनी सारी पुस्तक फ्रेंच भाषा में ही लिखी पर उनके कार्यो की आवश्यकता को महसूस
करके अमेरिका या इंग्लॅण्ड जैसे देशो ने फ्रेंच को अपनाने के बजाये दुर्खीम के
कार्यों को अपनी आंग्ल भाषा में अनुवाद करके उसको अपने लिए प्रयोग किया और अपनी
भाषा को भी विश्व स्तर का बनाने में सहयोग किया | और आंग्ल भाषा के इसी प्रयास ने
कभी उनकी संस्कृति को समाप्त होने के बजाये उसे एक ऐसी निरंतरता प्रदान की कि
देखते देखते आंग्ल भाषा की सर्वाभौमिकता को पूरे विश्व ने स्वीकार कर लिया पर इसी
का अबहव हिंदी भाषा में मिलता है | इसी देश में संतोषम परम सुखं के भाव को हर जगह
आरोपित करके ये प्रयास कभी नहीं किया गया कि हिंदी को सार्वदेशिक और सर्वकालिक बना
दिया जाये और इसके विपरीत आंग्ल भाषा ने हिंदी के प्रभाव को कभी उतने निम्न स्तर
पर ले जाकर नही देखा जितना हिंदी भाषी लोगो ने ही करके देखा और इसी लिए ऑक्सफ़ोर्ड
जैसे प्रतिष्ठित शब्दकोश ने अपने शब्द कोष माला को समृद्ध बनाने
केलिए २०,००० ( बीस हज़ार ) से ज्यादा शब्दों को अपने में सम्मिलित किया | विश्व ने
सदैव ही हिंदी के वर्चस्व को स्वीकार किया है इसी लिए आज विश्व के सभी बड़े
विश्वविद्यालयों में हिंदी एक विषय के रूप में पढाया जाता है | यही नहीं डिस्कवरी
, एनिमल प्लैनेट , हिस्ट्री १८ , नैशनल जियोग्राफिक आदि चैनल ने अपने यहाँ से
प्रसारित कार्यकर्मो को हिंदी में भी रखा है लेकिन विदेशियों से इतर हम अपने देश
में ही हिंदी बोल कर अपने को हीन महसूस करने लगे है | हमने अपनी भूमिका एक श्रोता
की तरह समझ ली है जिसे किसी के हिंदी बोलने या लिखने पर सिर्फ तली बजानी है पर
स्वयं हिंदी को बढ़ने के लिए कुछ नहीं करना है | हम अतीत को याद करके गौरवांन्वित
होने वालों की कतार में खड़े है जो इस तथ्य पर गौरव उसू करता है कि देश का
प्रधानमंत्री हर मंच से हिंदी बोलते है और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी
के संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में दिए गए भाषण पर हमें हिंदी के उस स्थान का बोध
होता है जिसमे शायद हम खुद मान लेते है कि जिस भाषा का प्रयोग करना या उससे जुड़े
होने का तथ्य हम स्वयं के लिए स्वीकार करना पसंद नहीं करते उसी हिंदी भाषा को
संयुक्त राष्ट्र में बोलना बड़ी बात है मानो हमने संविधान में प्रदत मौलिक अधिकारों
में अनुच्छेद १७ के अश्पृश्यता की समाप्ति
को मानव के लिए तो स्वीकार कर लिए पर उसको हिंदी भाषा के तरफ सरका दिया और जो भी
आज के दौर में हिंदी बोलता दिखाई पद जाता है उसकी स्तर और शिक्षा और प्रगति करने
की संभावना आदि पर स्वतः ही प्रश्न चिन्ह
लग जाता है | इंदिरा गाँधी मुक्त राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के किसी भी
साक्षात्कार के पत्र में स्पष्ट लिखा रहता है कि अभ्यर्थी साक्षात्कार हिंदी में
देना चाहते हो तो स्पष्ट रूप से लिखे | पर ज्यादातर लोग इस अवसर को सिर्फ इस लिए
उठाने में हिचकते है क्योकि इसमें ये भी भाव रहता है कि उनको अंग्रेजी नहीं आती है
जबकि इस तरह के लाभ से हिंदी के लिए माहौल बनने में सहायता मिलती है | इसके
अतिरिक्त अभ्यर्थी इस लिए भी हिंदी में साक्षात्कार के विकल्प को चुनने से डरता है
क्योकि उसे भय रहता है कि कही साक्षात्कार सदस्य इस लिए उसका चयन ना करें क्योकि
उसे अंग्रेजी ही नहीं आती है | और इसी लिए सामान्यतया हिंदी की मृत्यु हो जाती है
| कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के एक प्रतिष्ठान में एक महिला को
उसके अधिकारीयों ने एक पत्र आंग्ल भाषामे दिया पर उस महिला ने ये कह कर लेने से
लेने मना कर दिया कि पत्र हिंदी में दिया जाया क्योकि आंग्ल भाषा में एक शब्द के
तीन चार मतलब निकलते है जो मुझे नुकसान पंहुचा सकते है | लिखित रूप से दिए जाने पर
उस महिला को अधिकारीयों ने बुलाया और कहा कि देखिये आपकी जो शिक्षा है उससे ये नही
कह सकती कि आपको अंग्रेजी नहीं आती और फिर आगे आपके जो भी कार्य होंगे वो आपको इस
लिए नुकसान पंहुचा सकते है क्योकि आपने लिखित रूप में कहा है कि मुझे पत्र हिंदी
में दिए जाये | महिला ने कहा कि मैंने कही नहीं कहा कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती और
हिंदी में बात करना लिखना किस नियम में बुरा है | मैं तो सिर्फ हिंदी के लिए
प्रयास कर रही हूँ | अभी तक मामला लंबित है |
हिंदी को संविधान के
अनुच्छेद ३४३ में राज भाषा का दर्जा दिया गया ना कि राष्ट्रीय भाषा का और इसी लिए
आज तक देश एक सूत्र में नहीं बंध पाया | भारत विविधताओ का देश होते हुए भी जैसे
रेल की पटरी किसी राज्य के सीमा विवाद से परे स्वतंत्र है और इसी लिए भारतीय रेल आसानी से पूरे देश को
पटरियों के सहारे एक सूत्र में जोड़े रहती है उसी तरह प्रदेश की सीमओं से परे हिंदी
को सबसे ज्यादा लोगो और राज भाषा होने के कारण राष्ट्रीय भाषा का गौरव दे देना
चाहिए ताकि कश्मीर से कन्या कुमारी तक लोग एक दूसरे को समझ सके और अपने को समझा
सकें | लेकिन ऐसा अभी दिवा स्वप्न सा है क्योकि मजबूत इच्छा शक्ति की कमी ,
राजनैतिक लोलुपता , राष्ट्रीयता के प्रति उदासीनता , अपनी धरोहर हो बचाने की
उत्कंठा रहित सामजिक सोच और भाषा के महत्व को समझाने के आवश्यक जागरूकता की कमी
आदि ऐसे महत्वपूर्ण कारक है जो हिंदी को पतन की ओर ले जा रहे है | हिंदी के महत्व
को जितना विदेशियों ने समझा है उतना ही हम सबको समझना होगा और मानवधिकार के अवयवों
में घर , प्यास , भोजन , स्वास्थ्य के अनुरूप ही भाषा के अधिकार को भी मानवधिकार
के सबसे महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में सम्मिल्लित किया जाये क्योकि भाषाई संहार को
रोकना एक देश को बचाने से कम नहीं है | भारतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियों “ निज
भाषा उन्नति ....” को समाहित करना ही
हमारा सबसे बड़ा काम होना चाहिए और सरकार को हिंदी अनुवाद का काम राष्ट्रीय स्तर पर
करना चाहिए जैसे हमारे पुरानो , उपनिषदों आदि का अनुवाद अंग्रेजी में हो रहा है और
सभी स्कूल , कालेज , विश्वविधायालय में पढाई पुस्तक आदि हिंदी में अवश्य हो और इसी
प्रयास से हम हिन्दी को अपनों के बीच से अश्पृश्य होने से बचा लेंगे |