सोमवार, 27 जुलाई 2020

प्रेम में पड़ी स्त्रियाँ


प्रेम में पड़ी स्त्रियाँ हो जाती हैं
गोमुख से निकली गंगा
जिसके घाटों पर बुझती है
प्यासों की प्यास
लहरों पर पलते हैं धर्म
स्पर्श मात्र से तर जाती हैं पीढ़ियाँ
कंकर कंकर शंकर
हरियरा उठते हैं खेत
भर जाते हैं कोठार अन्न से



प्रेम में पड़ी स्त्रियों को चुकाना होता
प्रेम में नदी बन जाने का मोल
अपने आँचल में विष्ठा समेटे
तेजाब और जहर में डूबी
मर चुकी होती हैं
सागर तक पहुंचने से पहले
सागर भी कोई कसर कहाँ छोड़ता है
प्रेम में पड़ी स्त्रियों के हरे घावों पर
लगा देता है खारेपन का नमक

प्रेम में पड़ी स्त्रियों!!
अपना घर नही छोड़ना
प्रेम में नदी मत होना

6 टिप्‍पणियां:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

सागर समेट लेता है उनको
कर लेता है अंगीकार
उनकी विष्टा, तेजाब, जहर के साथ

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

दिगम्बर नासवा ने कहा…

वाह ... प्रेम में डूब जाने में बाद क्या स्त्री होना याद रह जाता है ... प्रेम वाला तो ईश्वर हो जाता है ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-07-2020) को     "कोरोना वार्तालाप"   (चर्चा अंक-3777)     पर भी होगी। 
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
--

अनीता सैनी ने कहा…

लाजवाब सृजन।
प्रेम में पड़ी स्त्रियों!!
अपना घर नही छोड़ना
प्रेम में नदी मत होना..मन को छूती पंक्तियाँ।

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

सुंदर पंक्तियाँ....