बुधवार, 29 अप्रैल 2020

धर्म और राजनीति, Religion and Politics


धर्म और राजनीति पर चर्चा करने के क्रम में धर्म को  समझना आवश्यक है। धारयति इति धर्मःजो धारण करने योग्य है वही धर्म है । यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या धारण करने योग्य है, देश काल परिस्थितियों में वह भिन्न भिन्न हो सकता है पर भिन्नता का आधार केवल रूपरेखा ही है विषयवस्तु नही। विषय वस्तु तो एक ही है और वह है निरंतर सुख पूर्वक जीना। जो भी धारण करने से निरंतर सुख मिले वही धर्म है। पानी का धर्म है प्यास बुझाना चावल का धर्म है भूख मिटाना ठीक उसी तरह मानव का धर्म है निरंतर सुख पूर्वक जीना।मानव समाज में सुखी होने के लिए अभय की आवश्यकता होती है यह अभय भौतिक वस्तुओ की उपलब्धता, आपसी सम्बन्ध और समझ पर आधारित होती है। दुनिया के सारे तौर तरीके इसी सुख  की खोज और खोजने के बाद उस सुख को बनाये रखने के क्रम में होते हैं। एक चोर भी चोरी सुखी होने के लिए करता है जिस दिन उसे समझ में आयेगा कि चोरी करके वह अभय जीवन नही जी सकता  वह चोरी करना छोड़ देगा जैसा कि डाकू रत्नाकर या अंगुलिमाल ने किया था । इसलिए भारतीय परम्परा में ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत चित से प्राप्त आनंद ही मोक्ष है ईश्वर की प्राप्ति है। उस आनंद को व्यक्तिवाचक बनाकर उसे  पाने के लिए ढेर सारे लोगों अपने अनुभव को आधार बनाकर रास्ते बनाये जिसे हम सामान्यतः आज धर्म के रूप में परिभाषित करते हैं, मसलन इन बाबाजी का रास्ता, उन बाबाजी के मार्ग, मसीहों के बताये धर्म वगैरह।  व्यक्ति के अनुभव के आधार पर मार्ग चुनने के खतरे भी बहुत हैं इनके पर्याप्त परीक्षण की आवश्यकता है जिस पर चर्चा हो सकती है  लेकिन यह बात तो प्रामाणिक  है कि धर्म सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। राज्य का अस्तित्व भी उसे सुख को सुनिश्चित करने के लिए हुआ है अब दोनों एक दूसरे से अलग नही हो सकते। राज्य धर्म से निरपेक्ष कैसे हो सकता है? धर्म के निहितार्थ कर्तव्यों के निर्वहन में है, स्वधर्मे निधनं श्रेयः  अर्थात अपने कर्तव्य पालन में मरना श्रेयस्कर है। राजा कर्तव्य पालन से विमुख कैसे हो सकता है? नही हो सकता है? राज्य प्रमुख  का धर्म,  कोई पंथ विशेष नही बल्कि उसकी जनता के प्रति जवाबदेही है। आज सविधान में  मूल कर्तव्यों की व्यवस्था है। यही कर्तव्य ही तो धर्म है।

धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत से संकट वर्तमान समाज में हमे देखने को मिलते  है लेकिन उत्तर बहुत सरल है जब तुलसी बाबा कहते हैं, ‘परहित सरिस धरम नही भाई , परपीड़ा सम नही अधमाईतो इसी एक पंक्ति में सारा निचोड़ आ जाता है, या जब वेद उद्घोष करते हैं कि आत्मवत् सर्वभूतेषु  यस्य पश्यति सह पंडितःतो भी धर्म स्पष्ट  हो जाता है कि सभी प्राणियों में मैं स्वयं को देखता हूँ सभी मेरे जैसे हैं जिस बात से मुझे कष्ट होता है उससे दूसरों को भी तकलीफ होती होगी। आत्मन प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेतअपने से प्रतिकूल कर्मों को नहीं करना धर्म है। जिन स्मृतियों  की रुढियों को लेकर इतनी आलोचनाएँ  होती हैं उन्ही में धर्म की इतनी सुंदर परिभाषा दी गयी है उतनी आजतक मैंने किसी ग्रन्थ में नही देखी,
 धृति क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह
धी विद्यासत्य्माक्रोधो दशमेकम धर्म लक्षणं
धर्म की इस परिभाषा में आप बताइए कि क्या गलत है और किसे इसका पालन नही करना चाहिए या इसमें क्या साम्प्रादायिक है ? अभी केन्द्रीय विद्यालयों में असतो माँ सद्गमय  को हटाने को लेकर एक याचिका दायर की गयी है जिसमे कहा गया है कि इस वाक्य से धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ गयी  है। यह  बात समझ से परे है कि  असत्य से सत्य की ओर जाने से धर्मनिरपेक्षता कैसे खतरे में आ जाती है।  कल को न्यायालयों में से यतो धर्मः ततो जयःको हटाने की बात की जायेगी परसों सत्यम शिवम् सुन्दरमकी बात आएगी फिर योगक्षेमपर सवाल उठाये जायेंगे, दरअसल मामला कुछ और ही है।

जिसे हमे समझाया गया और पढ़ाया है कि फलाने हमारा धर्म है वह तो है ही नही वह संगठन हो सकता है,  पंथ हो सकता है, सम्प्रदाय हो सकता है, रिलिजन हो सकता है  पर भारतीय सन्दर्भ में वह धर्म नहीं हो सकता है। उन लोगों का मानना है कि हमारे संगठन की बात मानी जाए इसलिए बार बार धर्म से निरपेक्ष होने की बात आती है। लेकिन संगठन और धर्म में फर्क है। धर्म केवल और केवल आपका विवेकयुक्त  कर्तव्य है।

एक बार विश्वामित्र घूमते हुए अकाल क्षेत्र में पहुँच गये। उन्होंने एक व्याध के घर भिक्षा मांगी तो उन्हें कुत्ते की हड्डी कि भिक्षा मिली । भूख से व्याकुल होकर जैसे ही वह उसे खाने को उद्यत हुए  व्याध  ने जब  पूछा कि आपने तो एक संत का  धर्म भ्रष्ट कर दिया। विश्वामित्र बोले संत का धर्म उसका कर्तव्य है । इस समय मेरा धर्म कहता है कि शरीर की रक्षा सर्वोपरी है क्योंकि  शरीर से ही धर्म पालन होगा अतः वह खाद्य सिर्फ देह के पालन करने के लिए था यदि मैं स्वाद के लिए उसे खाता  तो धर्म भ्रष्ट होता। आपका विवेकयुक्त कर्तव्य  आपके धर्म का निर्धारण करता है।
यही भारतीय धर्म की खूबी है जो इसे सनातन और सबकी आवाश्यकताओं  की पूर्ति  करने वाला बनाता  है जो बिना किसी फ्रेम, बिना किसी आकार, और बिना किसी प्रवर्तक के निरंतर सदानीरा की भांति प्रवाहित है। आप शाकाहारी हैं, नही हैं, आप कपडे पहनते हैं, नही पहनते, आप जप करते हैं, नही करते तब भी आप उसी धर्म का हिस्सा हैं। लोकतंत्र यह सहिष्णुता का सर्वोच्च रूप आप यहाँ पर पाते हैं जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा कि सनातन धर्म उस शर्ट के जैसे है जो भी पहनता है उसके जैसा हो जाता है। जैसा आप चाहो आपको मिलेगा। गीता में  श्रीकृष्ण इसी बात को बार बार कहते हैं कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है वह उसी भाव में उसे प्राप्त होते हैं। वैश्विक बंधुत्व का उद्घोष ही धर्म है।

राज्य को सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना चाहिए पन्थ से निरपेक्ष होना चाहिए पर धर्म से निरपेक्ष वह हो ही नही सकता। महात्मा गांधी इस बात को बड़े अच्छे तरीके से कहते हैं कि धर्मविहीन राजनीति सेवेंथ सिन’ (घोर पाप ) के समान है गांधीजी ने  राजनीति को धर्म से अलग करने के सुझाव को अस्वीकृत कर दिया , क्योंकि उन्होंने लोगों की आजीवन सेवा के माध्यम से सत्य की तलाश के रूप में धर्म को एक नई परिभाषा दी। यह विवेकानंद के विचारों का ही प्रभाव था कि गांधीजी यह कहने में समर्थ रहे कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है? गांधीजी ने यह भी कहा कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका नहीं देता हूँ । यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शों  को विकसित करना। बार-बार गांधीजी ने यह रेखांकित किया कि सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है। गांधी जी रामराज को आदर्श राज्य का माडल  मानते हैं। रामराज्य की अवधारणा का आधार ही स्वधर्म है। गांधीजी सेक्युलर बिलकुल नही हैं वह रामचरित मानस  को उद्धृत करते हैं,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। अब यहाँ पन्थ को धर्म समझने वालों की मजबूरी हो जाती है कि वे रामराज्य को सांप्रदायिक कहें और धर्म को राजनीति से दूर रखने की बात करें। यह इसलिए भी क्योंकि उससे दूसरी किस्म की नैतिकता दूसरे किस्म के तौर तरीकों को व्यवस्था उन्हें में ले आने का अवसर मिलता है।

राज्य चार चीजों से मिलकर बनता है क्षेत्र लोग सरकार और संप्रभुता राज्य के ठीक से चलने के लिए जरूरी है कि राज्य की सीमाए ठीक हों लोगों का आचरण ठीक हो सरकार न्यायप्रिय हो। उसकी संप्रभुता को बाकी के देश मानें। इनमें से सभी से महत्वपूर्ण है लोगों का आचरण यदि आचरण दुरुस्त है तो राज्य संगठित है विकास कर पायगा। कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक नीति  प्रगति में बाधक हैं मैं एक उदाहरण  देता हूँ एक नीति   कार्य ही पूजा है।यह नीति  किस तरह राज्य को आगे बढ़ने में मदद करते हैं इसे समझा जा सकता है । औद्योगीकरण के लिए यह जरूरी कि अधिक मात्रा में उत्पादन हो उसके लिए कार्य का ठीक तरीके से होना जरूरी है। अब लोगों के मूल्य कार्योंमुख होने से औद्योगीकरण को गति मिलती है इससे राज्य तेजी से विकास की ओर बढ़ता है। धर्म  नैतिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से राज्य को संगठित करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें धर्म  नही चाहिए। दरअसल  वे पुरखों की विरासत को समझने में नाकाम रहते हैं ये लोग हाथी की पूंछ को छूकर मानते हैं कि अनुभव के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि हाथी झाडू जैसा होता है और इसी बात को सभी माने क्योंकि  यही प्रत्यक्षवाद है। ये वो लोग हैं जो धर्म को अफीम मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुनिया को चलाने का पुरजोर समर्थन करते हैं। दरअसल धर्म को रुढ़िवादी घोषित कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर इस दुनिया का जितना नुकसान  पिछले १०० सालों में किया गया है उतना जब से मानव सभ्यता अपने अस्तित्व में आई कभी नही हुआ। विज्ञान के नाम पर हमने अपनी नदियों को दूषित कर दिया हवा मिटटी सबको गंदा कर दिया। विज्ञान ने हमे दो विश्व युद्ध थमा दिए तीसरे के मुहाने पर दुनिया बैठी है। जो सबसे विकसित और वैज्ञानिक देश होने का दावा करता है उस अमेरिका ने तीस बार दुनिया को नष्ट करने के लिए परमाणु हथियार बना कर रखे हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें विज्ञान की क्या गलती तो यही बात धर्म पर लागू होती है।

जब धर्म राज्य के विस्तार का साधन बन जाए तो वह धर्म नही होता है, धर्म मानव के आत्म विस्तार का साधन है। बाहर के मुल्कों का घोषित धर्म केवल राज्य के विस्तार का साधन मात्र था जबकि भारत का धर्म  अध्यात्म है। आज आवश्यकता है कि धर्म के मूल को बड़े सरल तरीके से समझकर उसके आधार पर राजनीति करने की ताकि हर भारतीय  अपने सर्वोच्च  मूल्य को प्राप्त कर सके।

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पर तन का अनुराग प्रबल है

पानी को पानी से मिलना जीवन तो सांसों का छल है ।
मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।

युगों युगों  की एक कहानी 
तृष्णा मन की बहुत पुरानी 
प्राणों की है प्यास बुझाना,
लेकिन नए स्वाद भी पाना 

पतन हुआ था जिसको पाकर, मांगे वही स्वर्ग का फल है ।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है।

स्वर्ण हिरण की अभिलाषा में
मोह की मारीचिक आशा में 
स्वर्ण मयी लंका मिलती है ,
यद्यपि मान रहित होती है 

अनुकरणीय उसी का पथ है, जो भटका जंगल जंगल है।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।


 परिवर्तन आखिर सीमित है 
धरती की गति भी नियमित है 
किसी ठौर पर रुकना होगा,
मर्यादा पर झुकना होगा 

चलते जाने वालों सुन लो, थीरता ही जीवन संबल है।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।


बुधवार, 15 अप्रैल 2020

याचना से प्रिये कुछ मिलेगा नही

याचना से प्रिये कुछ मिलेगा नही,
एक ही मार्ग है मुझपे अधिकार कर लो।

 फूल फिर भी नही कोई खिल पायेगा
शाख पर छाये कितने भी मधुमास हों।
 प्राण की प्यास ऐसे यथावत रही
 सप्त सैन्धव निरंतर भले पास हों ।।

 जो अहम् से भरा ये हृदय है मेरा,
 मान गल जाएगा मुझको अंकवार भर लो।

 सब प्रतीक्षित दिवस हैं बिना मोल के
स्वप्न में बीतती यामिनी व्यर्थ है।
दे सके ना जो प्रतिदान विश्वास के
 ऐसे पाषाण का क्या कोई अर्थ है।।

 चाह मन में हो मुझसे मिलन की शुभे,
अर्चना छोड़ कर अपना सिंगार कर लो।

 कब कलाई में कंगन है स्थिर हुआ
 कब रुकी है लहर तट पे आएगी ही।
 किसके रोके रुकी है ये पागल हवा
 कोई अंकुश नही बदरी छाएगी ही।।

 तुमको आदेश की तो जरूरत नही,
 मानिनी जब भी चाहो मुझे प्यार कर लो।

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

को नही जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो।

हनुमान जी लोकनायक हैं। जन संकटमोचक हैं। जनांदोलन की शक्ति हैं। महादेवी वर्मा का कथन है,' राम के कथाक्रमों को संगठित करने वाला मूल सूत्र हनुमान जी ही हैं जिनके बिना सीता राम के बीच समुद्र ही लहराता होता और रावण के प्रखर प्रताप के सम्मुख राम के शौर्य की दीप्ति मलिन हो जाती । राम और सीता को मिलाने वाले, सुग्रीव को राज्य दिलाना हो, विभीषण का दुख दारिद्र्य दूर करना हो, लक्ष्मण की जान बचानी हो, नागपाश से मुक्ति, अहिरावण से मुक्ति, अर्जुन की सहायता से लेकर गोस्वामी जी के माध्यम से त्रस्त तत्कालीन जनता में राम नाम की शक्ति भरने वाले बजरंग बली की महिमा का कोई पारावार नही है। लोक मानस के कण कण में बजरंग बली व्याप्त हैं।प्रत्येक ग्राम में चाहे कोई और देवालय हो या ना हो हनुमान जी का विग्रह अवश्य होगा। उनके लिए खुला आकाश ही मंदिर है। राम कथाे हनुमान जी के बिना पूर्ण नही है। जहां राम कथा होती है वहां हनुमान जी अवश्य उपस्थित रहते हैं। भगवान राम जब संपूर्ण प्रजा सहित बैकुंठ जा रहे थे तब हनुमान जी उनके साथ नहीं गए। राम से पृथ्वी पर रहकर राम कथा श्रवण का ही वरदान मांगा जो उन्हें दिया गया। इसलिए जहां भी रामकथा होती है वहां एक लाल कपड़ा बिछाकर पहले हनुमान जी का आवाहन किया जाता है और कथा की समाप्ति पर उनकी विदा। प्रारम्भ: कथा आरंभ होत है, सुनो वीर हनुमान राम लखन अरु जानकी सदा करें कल्याण विदा: कथा समापन होत है सुनो वीर हनुमान जो जहां से आयहू सो तह करें पयान युवा शक्ति जागरण बिना बजरंग पूजन के सम्भव ही नही। अखाड़े जहां युवा शक्ति तराशी जाती है वहां हनुमान की ध्वजा अवश्य होती है स्वयं गोस्वामी जी ने हनुमान जी के बारह मंदिर बनाए थे । जनसंस्कृति और सरलता हनुमान मंदिरों की प्रमुख विशेषता है। विग्रह न हो तो भी सिंदूर से रंगी एक पिंडी ही काफी है। लोक देवता के रूप में हनुमान जी की उपासना दुर्गा माता के साथ होती है। हनुमान जी पर गोस्वामी जी ने कुछ छोटी-छोटी अति प्रसिद्ध रचनाएं लिखी हैं जिन्हें विशेषज्ञ उनकी मान्यता देने में संकोच करते हैं उनका कहना है यह तुलसी के स्तर की नहीं जैसे कि हनुमान चालीसा और बजरंग बाण। निरक्षर लोगों को भी वह कंठस्थ है और भारतीय मनीषा में उसकी पंक्तियां मंत्रों का दर्जा प्राप्त है। बुद्धिजीवी लोग यह भूल जाते हैं कि गोस्वामी जी ने सिर्फ साहित्य की रचना नहीं की उन्होंने भारतीय चेतना को भी रचा उसके लिए इसी प्रकार के जन साहित्य की आवश्यकता थी । हम बात तो बहुत करते हैं जन साहित्य की परंतु हमने ऐसा क्या रचा जिसे जनता ने समग्र भाव से अपनाया, जैसे कि हनुमान चालीसा और बजरंग बाण जो शब्दों का रूपांतरण क्रियाओं में कर सकें । प्रत्येक महान संत लोक की चेतना जागृत करने के लिए सर्जन का प्रयास करता है और वह रचना अपने रचनाकार के नाम के बिना भी युगों युगों तक यात्रा करती है । स्वामी रामानंद की रची आरती है, 'आरति कीजे हनुमान लला की दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ' घर घर गाई जाती है कितने लोग जानते हैं? लोककल्याण में स्तरीकरण के ब्यूरोक्रेटिक मॉडल नही चलते। यहां भावना हर प्रकार के स्तरीकरण को अप्रासंगिक कर देता है। इसी भावना के आधार पर तुलसी का रामराज्य निर्मित है जिसे वह हनुमान जी के माध्यम से पाना चाहते हैं। जय बजरंग बली।

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

कोरोना : प्रकृति का संदेश



मानव की  पाषाण काल से लेकर वर्तमान में लॉकडाउन युग की यात्रा बड़ी विचित्र रही है।  अक्सर यह बताया जाता है कि प्रगति रेखीय होती है परन्तु यदि प्रगति प्रकृति के नियमों में अनुरूप न हो तो यह  हमेशा चक्रीय ही होती है।  प्रकृति हमें वापस उसी जगह लाकर पटक देती है जहाँ से हम यात्रा प्रारम्भ करते हैं।  गुफा युग की वापसी इस बाद की तस्दीक करती है कि निश्चय ही प्रकृति हमें पुनः उसी जगह वापस लाना चाहती है जहाँ से हमने सभ्यता की शुरुआत की थी पर जैसे जैसे यात्रा बढती गयी हम निरंतर जाहिल होते गये और जाहिलियत इतनी बढ़ी कि धरती का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया।  आज हम घरों में उसी तरह दुबक कर बैठे हैं जैसे आदि मानव अपनी गुफाओं में दुबक कर रहता था।  यह मनुष्य के निरंतर जाहिल होने का प्रमाण है कि धरती को गंदा कर, मानव का मानव के प्रति घृणा बढाकर अपने को सभ्य होने का खोखला प्रलाप करता रहा।  मनुष्य ने ऐसे अनेकानेक अनावश्यक डर, सुविधाएं, व्यवस्थाएं और विचारधाराएँ बनाई जिसके भार को थामने को ही वह अपना सामर्थ्य समझता रहा।  
आज जब लोग घर में हैं एक दूसरे की देखभाल कर रहे हैं आस पास के लोगों की सहायता कर रहे हैं तब यह समझ में आता है कि हम जिसे होशियारी समझ कर अपने सीने से चिपकाए थे वह तो मात्र कूड़े का एक ढेर था।  जिस गंगा यमुना के सफाई के लिए अरबों रूपये खर्च कर दिए गये, तमाम संसाधन होम कर दिए गये वो तो बिना किसी प्रयास के मात्र दस दिन गंदगी न फेंकने की वजह से स्वच्छ हो रही हैं।  अस्पतालों में , शमशानों और कब्रिस्तानों में दुर्घटना एवं बीमारी की वजह से मरने वालों की संख्या में कमी आई है।  पारिवारिक ताने बाने, नाते रिश्ते मजबूत हुए हैं।  हवायें दुर्गंध छोड़ कर  ताजगी महक रही हैं।  सबसे खूबसूरत बात जिसका जिक्र 1854 में एक अंग्रेज ने किया था वह यह है कि जालंधर के लोगों को उनके जीवन काल में पहली बार अपने घर की छतों से हिमालय की चोटियां साफ दिखाई दे रही हैं, रात में चमकते तारों और चन्द्रमा को देखकर फिर से माताएं दूध कटोरा की लोरी याद करने लगी हैं   उत्तराखंड में हाथी, नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस में नीलगाय, बरसों  बाद उड़ीसा के तट पर दिन में भी अपने अंडों के पास आते  ऑलिव रिडली कछुए,  चंडीगढ़ में कुलांचे भरते  सांभर,  मुंबई के मरीन ड्राइव और मालाबार हिल्स पर ख़ुशी से उतराती डॉल्फिन, सड़कों पर मस्ती करते एन्डेंजर्ड सिवेट और  पक्षियों की चहचाहट वापस लौट आई है।  
प्रकृति शायद आखिरी बार मनुष्य को मौक़ा देना चाहती है और इसीलिए वह अपने तरीके से यह संदेश डे रही है कि मानव  अपनी कुत्सित  लिप्सा  से मुक्त होकर आनंद पूर्वक जीवन की तरफ लौटे।  अब धरती पर और अत्याचार नहीं धरती सबकी जरूरत को पूरा कर सकती है पर किसी एक के लालच को नही।  हमें अपनी जरूरतों को पहचानना होगा।  याद रखिये जरूरत से ज्यादा उपभोग धरती पर केवल और केवल दबाव ही बढ़ाता है।  आपके द्वारा किया गया अपरिग्रह और प्राकृतिक नियमों के अनुकूल जीवन यापन ही मानव सभ्यता को आगे जीवित रख सकता है।  यदि हम प्रकृति के इस सन्देश को नही समझे तो उत्तर  कोरोना काल के बाद धरती पर पेड़ पौधे नदियाँ पहाड़ सभी मौजूद होंगे पर मनुष्य नही होगा।   

शनिवार, 21 मार्च 2020

हमें रुकना होगा


 मानव सभ्यता में पिछले  डेढ़ सौ  सालों में जितने परिवर्तन आये ख़ास तौर से अगर हम पिछले पचास सालों की बात करें तो उसकी तुलना में पिछले पांच हजार साल में आये परिवर्तन अपने  अर्थ ही खो बैठते हैं।  जब हम प्रकृति में आये बदलाव से मनुष्य के सामाजिक सांस्कृतिक प्रौद्योगिकी बदलावों से तुलना करते हैं तो एकबारगी लगता है कि प्रकृति कहीं पीछे छूट  गयी है।  मनुष्य बहुत आगे निकलता जा रहा है।  यह प्राकृतिक विलम्बना आज के समय में मानव विकास के रूप में परिभाषित किया  जा रहा है।  

प्रश्न इस बात का है कि यह विकास क्यों? किसके लिए उत्तर मिलता है मनुष्य के लिए।  फिर बाकी प्रजातियों का क्या ? क्या वह धरती पर जीवन का हिस्सा नही? और  मानव के लिए  किया जाने वाला विकास भी क्या समस्त मानवों के लिए है? इन सबका उत्तर हमें निराश ही करता है।  दूर गमन दूर श्रवण और दूर दर्शन ही विकास है? सहजीवन का क्या हुआ? संवेदनाओं का क्या हुआ? क्या मनुष्य अपनी लोलुपता , क्रूरता , अज्ञानता को कम कर पाया? ये भी सवाल आज तक अपना जवाब हाँ में नही ढूंढ पाए हैं।  

आज के समय में जो भाग नही पाया वह कुचल दिया जा रहा है।  जो स्मार्ट नही हो पाया वह पीछे छोड़ दिया जा रहा है।  यदि यही विकास है तो विनाश की परिभाषा क्या होगी? हमने हथियार बनाये।  पहले हाथ में पत्थर था आज परमाणु बम है।  किसके लिए? स्वयं के संहार के लिए।  अर्थात संहार ही विकास है।  चौबीस घंटे भागमभाग किसके लिए ? हमने रुकना होगा।  हमें रुक कर देखना होगा कि हम कहाँ जा रहे हैं।  हमें रुक कर देखना होगा कि हम अकेले तो नही हो गये।  हम नदियों, पहाड़ों, चिड़ियों, जानवरों, फूलों के साथ सहजीवन में हैं या नही हमें रुक कर देखना होगा।  हमें रुक कर देखना होगा कि हमारे भाई बहन मान बाप सगे  संबंधी बच्चे ये सब हमसे दूर तो नही हो गये।

 क्या हुआ अगर हम रुक गये? रुकना मौत है चलना ज़िन्दगी यही कहकर हमें चलने के लिए प्रेरित किया जाता है पर वह समय आ गया है जब रूककर आराम करना ज़िन्दगी और भागमभाग मौत के रूप में परिभाषित किया जायेगा।  मनुष्य को अपनी गति कम करनी ही पड़ेगी।  प्रकृति के साथ कदमताल करना ही पड़ेगा।  अगर मनुष्य अपने विवेक से नही रुका तो प्रकृति रोकेगी।  जिसे विद्वान प्राकृतिक  आपदा  कहते हैं दरअसल वह प्रकृति द्वारा संतुलन बनाने की एक प्रक्रिया ही है।  

प्रकृति मनुष्य को मनुष्य बनने को कह रही है।  रुकिए, मनुष्य बनिए।   

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

दिल्ली में उड़नतश्तरी देखी गयी है।



समीरलाल 'उड़नतश्तरी'  जी का दिल्ली आगमन आनन फानन में ब्लॉग मीट के आयोजन का हेतु बन गया और इसके निमित्त बने भाई राजीव तनेजा । हिंदी ब्लॉगिंग  जब अपने शिखर पर थी तो हर ब्लॉग चाहे वह एक दिन पहले ही क्यों न बना हो या ब्लॉगर कोई अनचीन्हा हो या पोस्ट में कितना कच्चापन  क्यों न हो पोस्ट पर एक टीप 'उम्दा' की अवश्य होती थी, और जब उस टिप्पणीकार के ब्लॉग को देखते तो वह ब्लॉग उस समय के सबसे लोकप्रिय ब्लॉगर समीरलाल जी 'उड़नतश्तरी' का हुआ करता था। आज की मीट में 'उन दिनों' को याद किया गया।

डॉ अमर याद आये, जीके अवधिया, अविनाश वाचस्पति, अलबेला खत्री याद किये गए। ब्लॉगिंग में खोंच लगाने वाले भी याद किये गए। याद किया गया कि किस तरह एक पोस्ट तैयार होती थी फिर उस पर कमेंट का इंतजार किया जाता था। परिकल्पना के अंतरराष्ट्रीय मीट भी याद किये गए। रवींद्र प्रभात, रश्मि प्रभा योगेश समदर्शी की चर्चा हुई। खुशदीप भाई का ब्लॉग को छोड़ना, दिल्ली का ब्लॉग मीट फिर लखनऊ के किस्से कहानी, ब्लॉग पर धक्कामुक्की, बीच बीच मे ब्लॉग के फिलर किलर झपाटा, बेनामी वगैरह की भी चर्चा होती रही। महफूज अली को खासतौर से याद किया गया। नारी ब्लॉग समेत तमाम साझे ब्लॉग के लेखन की चर्चा हुई।

ट्रैवलर नीरज जाट, ललित शर्मा और दो तीन नाम उनके कारनामे हंस हंस के याद किये गए। सतीश सक्सेना जी की धमकी याद की गई। रूप चंद्र शास्त्री जी को उनके लगातार ब्लॉग लिखने की प्रतिबद्धता को सराहा गया। अनवर जमाल को मैंने बड़े प्रेम से याद किया 😊😊 । मासूम भाई को अमन के पैगाम के लिए याद किया गया।ताऊ रामपुरिया, जाट देवता की बातें, अनूप शुक्ल दद्दू की लंबी पोस्ट पर चर्चा की गई। दिगम्बर नासवा, तारकेश्वर गिरी,बाबू पद्म सिंह, डॉ कुमारेन्द्र सिंह सेंगर , काजल कुमार, केके यादव सुनीता शानू, अर्चना चावजी की बातें हुईं।

बीच बीच मे खुशदीप भाई और शाहनवाज में राजनीतिक चर्चा होने लगती टी एस दराल साहब भी उसमें शामिल हो जाते तो वंदना जी को उन्हें वापस साहित्यिक बातों पर लाना पड़ता। संजू जी बीच बीच मे खाने का भी इंतजामात किये हुए थीं। फिर क्या ब्लॉग अकादमी का प्रस्ताव तुरत फुरत खुशदीप भाई की तरफ से आया जिसका मैंने उसी तेजी से अनुमोदन कर दिया। प्रस्ताव ध्वनिमत के साथ पारित हो गया।  चूंकि कार्यक्रम बहुत जल्दी में बनाया गया तो अधिकांशतः ब्लॉगर आ नही पाए लेकिन उन्हें निराश होने की कोई भी जरूरत नही। एक मार्च को रेखा जी की पुस्तक का विमोचन और ब्लॉग चर्चा का आयोजन 973 मुखर्जी नगर में प्रस्तावित है। सभी अपने ब्लॉग को पुनर्जीवित कर लें क्योंकि एक मार्च को आप सभी ब्लॉगर्स लिए कुछ उत्साहजनक सूचनाएँ मिलेंगी।


शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

नोटबंदी : मिथ और यथार्थ



                                  

नोटबंदी  को लेकर रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट आने के बाद जिस तरह का देश में माहौल बनाया जा रहा है वह विघटनकारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह के कड़े और साहसिक फैसले लिए उससे पारम्परिक राजनीति बुरी तरह तिलमिलाई हुयी है।  सब्सिडी और तुष्टिकरण के सहारे वोट बैंक को साधने वाली पारंपरिक राजनीति को  इस किस्म के निर्णय रास नही आते है। नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर सत्ता में आये थे अतः भ्रष्टाचार के खिलाफ  नोटबंदी के रूप में  कारगर कदम उठाना कोई हैरत की बात नही थी।  
भ्रष्टाचार , कालाधन , नकली नोट, आतंकवादी गतिविधियों और  मंहगाई को नियंत्रित  के लिए ही नोटबंदी का  कदम उठाया गया लेकिन भारत  नोटबंदी करने वाला पहला देश नही है। अभी हाल के वर्षों में देखें तो जिम्बाब्वे में 2015  में नोटबंदी की गयी। जब यूरोप यूनियन  बना तब उन्होंने यूरो नाम की नई मुद्रा  चलाई थी और सारे पुराने नोट बैंकों में जमा करवाए गये थे। भारत में पहली बार वर्ष 1946 में नोटबंदी की गई थी। मोरार जी देसाई की सरकार द्वारा जनवरी 1978 में 1000, 5000 , और 10,000 के नोटों को बंद किया गया था। 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने भी 2005 से पहले के 500 के नोटों को बदलवा दिया था। छोटे सिक्कों जैसे 5, 10, 20, 25, 50 पैसों का प्रयोग नहीं करते हैं उन्हें भी बंद किया गया था। लेकिन आठ नवम्बर 2016 को जिस तरह से  500 और 1000 नोटों को बंद किया गया वह उपर्युक्त बातों से अलग था। 500 और 1000 के नोट  भारतीय अर्थव्यवस्था के 86 प्रतिशत  भाग में प्रचलित थे  इसी वजह से इसका इतना  बड़ा प्रभाव लोगों पर  हुआ। 
नोटबंदी  की सफलता असफलता को रिज़र्व बैंक में वापस आये नोटों से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। माना जा रहा है 16000 करोड़ रु बैंक में वापस  नही आये,  नोटबंदी के विरोधियों का  मानना है कि नोटबंदी तभी सफल मानी जाती जब लगभग तीन लाख करोड़ रूपये  रिज़र्व बैंक में वापस न आते। ऐसा क्यों हुआ  इसे थोड़ा विस्तार में जानने की कोशिश करते हैं। नोटबंदी के दौरान अनिल अम्बानी या कोई भी धन्नासेठ लाइन में नही लगा बल्कि उसने अपने  लोगों के द्वारा नोट बदलवाए। नोटबंदी के दौरान  लाखों की संख्या में खाली पड़े बैंक खाते  अचानक भरने लगे । बहुतायत  लोगों ने दूसरों के पैसे अपने खाते में जमा किये। बड़े बड़े स्कूलों, बड़ी कंपनियों, उद्योगों के मालिकों द्वारा उनके कर्मचारियों के खाते में साल भर या दो साल के वेतन के एवज में पैसे डलवाकर कालेधन को सफ़ेद करने का खेल खूब चला। यही वजह रही कि किसी न किसी माध्यम से रिज़र्व बैंक के पास पैसे वापस आये । दरअसल जिन लोगों को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के  लिए नोटबंदी की गयी थी उन्ही लोगों ने भ्रष्टाचार करके नोटबंदी को असफल बनाने में अथक प्रयास किया।
हर व्यक्ति भ्रष्टाचार से खुद को पीड़ित बताता है और सरकार को इसे न ख़त्म कर पाने के लिए दिन रात कोसता  है किन्तु जब सरकार ने उसे ख़त्म करने का फैसला लिया तो उन्होंने  भ्रष्टाचारियों से मिलकर सरकार की मूल मंशा पर पानी फेरने का काम किया । हालांकि इसके अलावा  और भी अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू हैं जिसके बिना इसका सही मूल्यांकन हो ही नही पायेगा।  नोटबंदी के बाद  बैंकों में लगभग तीन लाख करोड़ रूपये अतिरक्त जमा हुए, 56 लाख नए कर  दाता जुड़े। पहले से 24.7 प्रतिशत  ज़्यादा टैक्स रिटर्न फ़ाइल हुई। सबसे ज्यादा फायदा डिजिटल इंडिया अभियान को हुआ, आंकड़ों में देखें तो  कार्ड से लेन देन 65 प्रतिशत तक  बढ़ा और कैशलेस डिजिटल पेमेंट  में 56 प्रतिशत  की वृद्धि हुयी । नोटबंदी के बाद सरकार ने कालाधन रखने वालों को एक मौका दिया था। जिसके अनुसार  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत अपने  धन का खुलासा कर टैक्स और पेनेल्टी भरकर लोग अपना पैसा बचा सकते थे। इस प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत 21000 लोगों ने 4900 करोड़ रुपए के कालाधन की घोषणा की। कालेधन का एक प्रमुख स्रोत शैल कम्पनियां हैं । आमतौर पर ये कंपनियां एक मीडियम के माध्यम से काले धन  को सफ़ेद  करने का काम करती हैं। इन कंपनियों में टैक्स को पूरी तरह से बचाने या कम से कम रखने की व्यवस्था होती है। इसमें पूरे पैसे को खर्च  के तौर पर दिखाया जाता है, जिससे टैक्स भी नहीं लगता है।  नोटबंदी के बाद ऑपरेशन क्लीन मनी  के तहत 18 लाख से ज़्यादा खाते जांच के दायरे में लाये गये और 2.1 लाख शैल  कंपनियों का लाइसेंस रद्द कर दिया गया जिससे आर्थिक व्यवस्था के पुनर्शोधन में बड़ी मदद मिली। नोटबंदी से भ्रष्टाचार पर भी तगड़ी चोट पहुंची अब तक कुल जमा किये गये पैसों में  4.73 लाख बैंक ट्रांजिक्शन  संदिग्ध है और जांच के दायरे में हैं । तीन लाख  रूपये से ऊपर के सभी जमाराशि  की जांच चल रही है। 34 बड़ी सीए कंपनियों को संदिग्ध घोषित किया गया । 460 बैंक कर्मी घोटाले करते पकड़े गए । 5800 ऐसी कंपनियां  जांच के दायरे में हैं जिन्होंने नोटबन्दी के बाद रातों रात 4573 करोड़ रु अपने खातों में जमा कराए और फिर निकाल लिए ।  25 लाख से ज़्यादा जमा करने वाले 1.16 लाख लोगों को नोटिस  दिया गया है । 5.56 लाख ऐसे लोग चिन्हित किये गये हैं  जिनकी  जमा राशि  उनकी ज्ञात आय के स्रोतों से अधिक थी। लगभग 33,028 करोड़ रूपये की अघोषित रकम को  आयकर  विभाग ने पकड़ी।
वित्त मंत्री अरुण जेटली  के मुताबिक़  बैंकिंग सिस्टम से बाहर मौजूद करंसी को अमान्य करना ही नोटबंदी का एकमात्र लक्ष्य नहीं था।  नोटबंदी का एक बड़ा उद्देश्य भारत को 'गैर कर अनुपालन' समाज से ‘कर अनुपालन’ में बदलना था। इसका लक्ष्य अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना और कालेधन पर प्रहार भी था। जब कैश बैंक में जमा किया जाता है तो इसके स्वामित्व की गुमनामी खत्म हो जाती है। जमा कैश के मालिकों की पहचान हो गई है इनकी जांच चल रही है कि जमा की गई रकम उनकी आमदनी के मुताबिक है या नहीं। बैंकों में जमा कैश का मतलब यह नहीं है कि सारा पैसा सफेद ही है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का भी मानना है  कि नोटबंदी का उद्देश्य  बैंकों में पैसा जमा  करना था।  जिन  3 से 4 लाख करोड़ रुपयों के बारे में रिज़र्व बैंक को कुछ पता ही नही था वह पैसे  बैंकों में वापस आए और टैक्स अथॉरिटी की जांच के दायरे में हैं।   उन्होंने यह भी कहा कि करंसी ब्लैक से वाइट में नहीं आई होगी, लेकिन यह ग्रे में जरुर आ गई है। कैश ट्रांजैक्शन में भी कमी आई है। गलत तरीके से कैश ट्रांजैक्शन को लेकर लोगों में डर बना है।     
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर  निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि देश सुधार की दिशा में बढ़ा है और लोगों के व्यवहार प्रतिमानों में बदलाव आ रहे हैंयह बात सही है  नोटों को बदलना अपने आप में अत्यंत  कठिन काम तो था पर सरकार के पास नये नोट छापने की चुनौती भी कम नही थी। नोटबंदी के  दौरान  और उसके बाद देश में अफरातफरी का माहौल न बने इस बात को भी सुनिश्चित करना था। इस काम की जिम्मेदारी एकमात्र सरकार की ही नही थी विपक्षी दलों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका  थी किन्तु विपक्षी दलों ने जनता को गुमराह करने उन्हें भड़काने के अलावा सरकार को  कोई भी सकारात्मक सहयोग नही दिया पर देश की जनता ने जिस धैर्य और समझदारी का परिचय दिया वह इस बात का परिचायक है कि हर नागरिक के लिए देश सर्वोपरि है।


बुधवार, 14 नवंबर 2018

तुम्हारे शक्ल जैसी एक लड़की रोज मिलती है

तुम्हारी ज़ुल्फ़ से गिरती मेरे कंधे भिगोती है,
बिना बादल बिना मौसम के ये बरसात कैसी है।

सियाही ख़त्म होती है मगर पन्ने नही भरते,
तुम्हे पाकर तुम्हे खोना कहानी बस ज़रा सी है।

उधर होंटों पे पाबन्दी इधर अल्फाज़ रूठे से ,
हमारे बीच खामोशी की इक दीवार उठती है ।

बना कर बाँध क्या करते नही इक बूँद पानी की,
कभी कोई नदी थी अब जहां पर रेत रहती है।

मुहब्बत फिर से हो जाए खता मेरी नही होगी,
तुम्हारे शक्ल जैसी एक लड़की रोज मिलती है।

बुधवार, 31 जनवरी 2018

'Bolo Gangaputra' deals questions of history, power truth and dharma : Tarinee

The tradition of reconsidering and recasting characters from Indian epics in(to) contemporary genric forms, and considering contemporary problems through them is hardly a new phenomenon. Not only do Indian epics form the source material for a wide range of texts in premodern India, but literature and other media during the pre- and post-Independence periods have also relied on these characters to grapple with and express contemporary questions. 

Dr. Pawan Vijay’s novel is located within this pre-existing tradition. Taking a sympathetic view towards Mahābhārata characters generally portrayed as a darker grey than the others (there is hardly any black or white in the Mahābhārata) has also been a trend within a lot of more recent literature. Of course, at one point there was a school of scholarly thought that held that the present-day Mahābhārata is in fact a reworked version of an epic which was actually in praise of the Kauravas. Of course, this has been contested and is rarely held; in any case, it is the Mahābhārata as we have it is what has constituted as one of the foundational narratives for our arts and literatures. 

Vijay’s novel is set after the Mahābhārata war is over, as Bhīṣma lies alone in the battlefield; this, too, has illustrious precursors, not least in ‘Dinkar’, whose long poem in seven cantos, Kurukshetra, also revolves around a conversation with Bhīṣma. However, in Vijay’s novel, the interlocuter is Time/Death himself, and Bhīṣma is the protagonist. Through sharp questions, which perhaps Bhīṣma was already grappling with, Kala compels Bhīṣma to think carefully about the decisions he made through his long, illustrious life.  Vijay has tried to bring in the relationship between narrative and teleology, and argues that the reason why the Pāṇḍavas are deemed to be on the side of dharma is that they won the war. Of course, this seems to overlook the way the Mahābhārata ends; the point of the Mahābhārata is precisely that nobody won the war, even the victors. The text and the tradition which surrounds it also censures the Pāṇḍavas in great measure, rendering parts of Vijay’s critique a little blunt. Some of Bhīṣma’s criticism of Vidura also seems a little contrived.

Conceptually, he has tried to make a point for privileging emotion over the intellect. This, however, is somewhat undermined by Kala’s earlier exhortation for Bhīṣma to view things objectively rather than subjectively. There is also a larger stylistic and narrative choice Vijay makes, which seems to potentially confuse matters. For the most part, the novel deals with larger questions of history, power, truth, dharma et cetera. However, it often slips into the specifics of the Mahābhārata plot and the specific socio-cultural or customary factors that may have determined decisions in the time. These parts suffer from a lack of rigour in terms of the existing literature on these questions. One can’t but wonder if the novel might have read better if it refrained from getting into these matters. 

Vijay has tried to combine a Sanskritized Hindi with a relatively more familiar idiom, and there are times when the former seems somewhat belaboured. It is perhaps when Krishna is being spoken of that Vijay really shines, and as in the Sanskrit Bhagavadgītā itself, it is there that the contradictions of Vijay’s position seem to resolve themselves, in surrender. This surrender, which characterizes the Bhagavadgītā as well, marks the end of the novel, and opens up the possibility of transcending the conflicts which taint Bhīṣma’s last days. Even so, there doesn’t emerge a way of conducting oneself through life as Bhīṣma does in death, either for Bhīṣma, or from him.  Vijay’s true merit lies in his participation in the tradition of recasting epic traditions, and his ability to bring in his post-structuralist, anti-foundationalist, tendencies in this recasting, while at the same time preserving the sacred; Vijay’s Bhīṣma embodies the contradictions of the post-colonial intellectual perfectly.

Tarinee Awasthi
Cornell University
USA. 
Book is available on Amazon link
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गुरुवार, 4 जनवरी 2018

महाभारत जारी है: 'बोलो गंगापुत्र' (bolo gangaputra)पर डॉ. प्रशांत त्रिपाठी की टिप्पणी



व्याख्या और पुनर्व्याख्या की सुस्थापित भारतीय परम्परा में एक और प्रस्तुति हमारे हाथ में है। पाठ और प्रघटना की व्याख्या-पुनर्व्याख्या सहज मानवीय स्वभाव है, किन्तु अपने सर्वाधिक सुव्यवस्थित एवं सहज स्वीकार्य रूप में इसे भारतीय परम्परा में ही देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति के जिस सातत्य ने सदा अध्येताओं का ध्यान आकृष्ट किया है उसका मूल कारण व्याख्या - पुनर्व्याख्या का यहाँ संस्थात्मक रूप में स्थापित रहना ही है। विभिन्न ऐतिहासिक युगों में संक्रमण का आधार यहाँ युद्ध से अधिक वैचारिक मंथन रहा है। अश्वमेध यज्ञ हुए हैं तो धर्मचक्र प्रवर्तन और शंकर के दिग्विजय की भी भूमिका रही है। इस परम्परा का सुन्दरतम उदाहरण महाभारत के रूप में प्राप्त होता है। महाभारत को समझने का प्रयास समस्त भारतीय परम्परा के बोध का सबसे सीधा रास्ता है। महाभारत एक ग्रन्थ या पाठ के रूप में और एक घटना के रूप में सदा जीवंत है। यह उच्चतम सिद्धांतों से लेकर निरक्षर जन तक हेतु एक सन्दर्भ बिंदु है। महाभारत मात्र अठारह अक्षौहिणी योद्धाओं का युद्ध नही वरन यह कुरुक्षेत्र तो गाँव गली घर से व्यक्ति के अंतर्मन तक व्याप्त है। आज भी जब एक अति सामान्य व्यक्ति कहता है – “आज घर में महाभारत हो गया है”, तो कथन किसी व्याख्या की मांग नही करता । हजारों वर्षों से जन मन में रचा बसा ऐसा पाठ और ऐसी घटना अन्यत्र दुर्लभ ही है।

महाभारत का सारग्राही स्वरुप इसे महान ही नही बल्कि सर्वोपयोगी बनाता है। महाभारत(रामायण सहित) वे महाकाव्य हैं जो पुस्तकों और विद्वानों के मष्तिष्क में नही बल्कि कोटि कोटि हृदयों में नित रचे और समाये जाते हैं जैसा कि ए. के. रामानुजन मानते हैं कि भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में कोई भी कभी रामायण या महाभारत को पहली बार नही पढता, कथाएं वहां पहले से ही मौजूद होती हैं। कहने की आवश्यकता नही कि कथन उपर्युक्त की जीवन्तता उसकी पुनर्व्याख्या पर निर्भर है।

पुनर्व्याख्या की प्राचीन परम्परा को आगे बढाते हुए पवन ने भी इस जीवन्तता में योगदान दिया है । प्रत्येक कथाकार, प्रत्येक व्याख्याता अपने इर्द गिर्द की महाभारत के आईने से सर्वाधिक कथा की पुनर्रचना करता है। कथाकार के चहुँ ओर व्याप्त महाभारत ही एक नये महाभारत की रचना करवाता है। अबकी बार कुरुक्षेत्र में अर्जुन नही बल्कि मृत्युजयी भीष्म सवालों के घेरे में खड़े हैं। कालजय और अमरत्व की तृष्णाओं का आविर्भाव होता है। सवालों के जवाब खोजने का प्रयास होता है। जवाब मिलते हैं , नही भी मिलते हैं, प्रश्न तिरोहित होते हैं पुनः अवतरित होते हैं – युद्ध हो रहा है। महाभारत जारी है । काल अपनी गति के साथ यात्रा कर रहा है।

सहिष्णुता और असहिष्णुता की मौजूदा बहस के दौर में महाभारत के प्रचलित आदर्शों मान्यताओं और निष्कर्षों पर डॉ. पवन ने जिस तरह से सवाल उठाये हैं वह एक महत्वपूर्ण बात है। दरअसल ये सवाल आम जन मानस में पहले से ही हैं किन्तु उन्हें जानने और समझने की जगह नेपथ्य ही रहा है। पहली बार लेखक ने उन्हें मंच प्रदान किया है अब यह सुधी पाठकों और समीक्षकों पर निर्भर करता है कि वह इस नये दृष्टिकोण को किस तरह से पुनर्व्याख्या करते हैं।

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डॉ. प्रशांत त्रिपाठी


(विभागाध्यक्ष: समाजशास्त्र एवं प्रख्यात भारत विद्याशास्त्री )

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

'बोलो गंगापुत्र!'




'बोलो गंगापुत्र!'
डॉ पवन विजय
‘अंत में धर्म की विजय होती है।’, ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि अन्तिम परिणाम को न्यायोचित ठहराया जा सके। वस्तुत: राजनीति में ‘विजय ही धर्म’ है। राजकुल में सत्ता ही सत्य, धर्म और नैतिकता है। जब हम इसका अवलोकन, महाभारत के सन्दर्भ में देखते हैं, तो सत्ता के कुचाल स्पष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाम पर, वचन के नाम पर, और राज्य की सुरक्षा के नाम पर जितने अधर्म कुरुवंश में किये गये, उसका अन्यत्र उदाहरण मिलना दुष्कर है। गंगापुत्र भीष्म - जिनके संरक्षण में द्रौपदी को परिवारी जनों के सामने नग्न करने का प्रयास किया गया, एकलव्य का अँगूठा कटवा लिया जाता है, दुर्योधन को एक उद्दण्ड, हठी चरित्र बनाकर घृणा का पात्र बना दिया जाता है, इतना बड़ा नरसंहार होता है, और कुरु कुल का विनाश हो जाता है; वह गंगापुत्र, काल के प्रश्नों सामने अधीर हैं, किन्तु काल के प्रश्न उनके शरीर में बाणों की तरह धँसे हैं, जिनका उत्तर उन्हें देना ही है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें, कि धर्म की ओर कौन सा पक्ष था। दरबारी इतिहासकारों द्वारा जो लिखा होता है, वह मात्र सत्ता का महिमामण्डन होता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सत्ता के इतर लिखने वालों को सत्ता समाप्त कर देती है; नहीं तो यह कैसे हो सकता है कि जयसंहिता में जो कुछ आठ हजार आठ सौ श्लोकों में लिखा गया, उसे बढ़ाकर, एक लाख श्लोक का महाभारत बना दिया जाता है। सत्ता द्वारा धर्म और सत्य को, जाने कितने क्षेपकों की दीवारों में चुनवा दिया गया। कुलप्रमुख धृतराष्ट्र और भीष्म के पूर्वाग्रहों में आश्चर्यजनक एकरूपता है... एक का दुर्योधन के प्रति, तथा दूसरे का पाण्डवों के लिए आग्रह है।
‘बोलो गंगापुत्र!’ में काल, अपने कपाल पर लिखे सत्य का साक्षात्कार भीष्म से कराता है। अबकी बार कुरुक्षेत्र में अर्जुन नहीं, बल्कि मृत्युजयी गंगापुत्र भीष्म दुविधाग्रस्त हैं, सवालों के घेरे में हैं। पुस्तक, संवाद के क्रम में है, जिसके द्वारा लेखक ने सामान्य लौकिक मानवीय प्रश्नों को अत्यंत सहजता से उठाया है, और उसके सरलतम उत्तर भी पात्रों के माध्यम से देने का प्रयास किया है।

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

मानव होने के अधिकार से वंचित किन्नर

                
सामान्यतः हम जिस परिवेश में रहते हैं उसी के हिसाब से हमारे तौर तरीके विकसित हो जाते हैं जिसके अनुसार  हम ताउम्र व्यवहार करते हैं या सोचते हैं।  मनुष्य की आदतें उसके सीखने और सामंजस्य करने पर आधारित होती हैं।  जो एक बार सीख गया या जीवन में जहां जैसे भी सामंजस्य बिठा लिया उसी के मुताबिक़ वह आदत बना लेता है और  जिसे बदलना या बदलने के लिए सोचना उसके लिए बहुत मुश्किल होता है।  सदियों से लैंगिंक विभेद के रूप में पुरुष और स्त्री का विमर्श चला आ रहा है। उभय लिंग और नपुंसक लिंग की भी चर्चा गाहे बगाहे हो जाती है किन्तु पुरुषों या स्त्रियों की लैंगिक विकृतता को लेकर कोई  विमर्श या चर्चा नही अगर होती है तो भी उसे हास परिहास में टाल दिया जाता है । इस प्रकार के लोगों को तीसरी श्रेणी के लोग कहकर औपचारिकता का निर्वहन कर लिया गया।  तीसरी श्रेणी के लोगों ने भी समाज की इस रीति के साथ सामंजस्य बनाकर जीना सीख लिया।  समाज ने किन्नरों को सामजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्य, खेल  समेत  सारे मामलों में हाशिये पर रखा।  सामजिक व्यवस्था ऐसी है जिसमे  मात्र लैंगिक विकृति के चलते किसी व्यक्ति को मानव होने के लायक ही नही समझा जाता।  किन्नर होना अपराधी, घृणित और अस्पृश्य होना समझा गया या उन्हें देवत्व से जोड़कर समाज से बाहर रखने का पूरा इंतजाम किया गया।  किसी परिवार में यदि कोई विकलांग बच्चा जन्म लेता है तो उसे परिवार उसके जीवनपर्यंत सामजिक सुरक्षा देता है जबकि लैंगिक विकलांग के पैदा होते ही उसके माता पिता उसे त्याग देते हैं या त्यागने पर मजबूर हो जाते हैं।  किन्नरों के लिए बधाई समूह ही एकमात्र विकल्प है जिसमे रह कर वे अपना जीवन निर्वाह कर सकते हैं।  समाज ने गाने बजाने  वाले किन्नरों को मान्यता दी तथा उन्हें शुभ बताया ताकि वह अपने पेशे को दैवीय समझें और उसी में ही लिप्त रहें।  
यहाँ इस बात को जानना अत्यधिक जरुरी है कि क्या वाकई में किन्नरों को  तृतीय लिंग कहना चाहिए।  तृतीय लिंगकी संविधानिक अवधारणा और कानूनी मान्यता के अनुसार  “स्व-पहचानीकृत लिंग या तो पुरुषया महिलाया एक तृतीय लिंग हो सकता है। किन्नर  तृतीय लिंग के रूप में ही जाने जाते हैं, न कि पुरुष अथवा स्त्री के रूप में। इसलिए इनकी अपनी लिंगीय अक्षमता को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूह के कारण एक तृतीय लिंग के रूप में विचारित किया जाना चाहिए।“ किन्तु लिंगीय अक्षमता तो अनेक पुरुष और महिला दोनों हो सकते हैं तो क्या उन्हें भी तृतीय लिंग में शामिल कर लेना चाहिए।  जाहिर है कि किन्नर के लैंगिक  पहचान को लेकर विरोधाभास है।  वस्तुतः किन्नर गर्भ में शरीर के विकास क्रम की वह अवस्था है जब किसी  एक लिंग के निर्धारण की प्रक्रिया होते होते रुक जाती है या कुछ समय बाद दूसरे लिंग का विकास होना शुरू हो जाता है।  इस प्रकार किन्नर के अंग में पुरुष या स्त्री के अंग अविकसित रह जाते हैं या दोनों अंगों का मिलावटी स्वरुप हो जाता है।  स्पष्ट है कि इन्हें तीसरे लिंग में रखना एक कामचलाऊ बात है।  किन्नर होना एक लैंगिक विकृति है न कि कोई  अलग लिंग का प्राणी होना है।  जब हम इन्हें अलग से तीसरे लिंग  की कोटि में रखते हैं तो अनजाने में ही उन्हें यह जताते  है कि वह सामान्य मानव नही हैं बल्कि कुछ विचित्र किस्म के लोग हैं।
शरीर की बनावट के आधार पर समाज की मुख्यधारा से दूर किन्नरों को महिला का वेश बनाकर रहना और उनके जैसी बोली भाषा और व्याकरण का प्रयोग करने की बाध्यता भी उन्हें दलित बनाती है. स्त्री को दोयम दर्जा देने के बाद लगभग उसी तरीके से किन्नरों को लांक्षित अपमानित कर उन पर निर्योग्यताएं लादी गयीं और यह सुनिश्चित किया गया कि वह उन निर्योग्यताओं का अनुपालन करेगे. इस आधार पर अच्छे बुरे किन्नरों का निर्धारण किया गया. मध्यकाल में किन्नरों से शासक वर्ग को कुछ सहूलियतें मिलीं खासतौर से मुग़ल शासनकाल के दौरान उन्हें हरम में जगह इसलिए मिली ताकि निश्चिंतता के साथ वहाँ का देखरेख और निगरानी की जा सके. वर्तमान समय में संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को लिंग के आधार पर भेदभाव से मुक्ति दिलाने की बात करता है परन्तु सामाजिक व्यवस्था और सोच कुछ इस तरह की है कि उससे पार पाना अत्यंत मुश्किल काम  है. सबसे कठिन काम प्रचलित परिदृश्य को बदलना है जिसमे किन्नर को एक विचित्र प्राणी समझा जाता है. किन्नरों पर यह विचित्रता समाज द्वारा आरोपित है जिसे उस वर्ग ने स्वीकार कर उसके मुताबिक़ अपने जीवन को ढाल लिया है और परिणाम यह कि हजारों वर्षों  से वह मानव जीवन को महसूस करने के प्रथम मानवाधिकार से वंचित है।  

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रविवार, 13 अगस्त 2017

मैं पूजित होने के लिए कब तक अभिशप्त रहूंगा

मैं पत्थर हूँ 
न देखता हूँ न सुनता हूँ 
न ही कोई संवेदना महसूस करता हूँ 
किसी के दुःख निवारण  की बात तो दूर 
मैं इतना असहाय हूँ कि पड़ा हुआ हूँ सदियों से एक ही  जगह बारहों मौसम 
सोचो मुझे पूजने वालों 
अगर मैं कहने सुनने समझने और  करने वाला होता तो पत्थर  क्यों होता 
इंसान क्यों न होता 
जिस दिन मुझे बोलना आ गया 
उसी दिन मंदिर से बाहर फेंक दिया जाऊंगा और देवत्व से भी च्युत कर दिया जाऊंगा 
क्योंकि बोलते बोलते मुझे चिल्लाना होगा  और चिल्लाते चिल्लाते हांफने लगूंगा 
पसीने से तरबतर 
लेकिन देवताओ को तो  पसीना आता ही नही 
मेरी देह  से पसीना बहते देख लोग समझ जाएंगे कि 
यह देवता नही कोई इंसान  है 
और लात मारकर निकाल देंगे अपने अपने घर के पवित्र कोनों से
बोलने  वाले माँ  बाप की तरह 
सुनो मुझे पूजने वालों 
मैं पूजित होने के लिए कब तक अभिशप्त रहूंगा 
मुझे मुक्त होना है 
इस गूंगे बहरे लूले लंगड़े और निहायत ही लिजलिजे  और निर्जीव  देवत्व से
मैं सांस लेना चाहता हूँ 
हँसना चाहता हूँ रोना चाहता हूँ 
मुझे पूजने वालों 
मैं तुम जैसा होना चाहता हूँ  

रविवार, 2 जुलाई 2017

प्राण नगरी छोड़ आया

जो रचे थे स्वप्न सारे चित्र उनको तोड़ आया।
देह केवल शेष है मैं प्राण नगरी छोड़ आया।

उम्र  भर  की वेदना  श्वांसों  में  है
बांसुरी अपनी कथा किससे कहेगी
मोर  पंखों  ने  समेटा  चन्द्रमा  को
वृंदावन  में राधिका  पागल फिरेगी

पूर्णिमा को युग युगांतर अमावस से जोड़ आया
देह  केवल   शेष  है  मैं प्राण नगरी छोड़ आया।

फूल से छलनी  हृदय  की  अकथ  पीड़ा
रो  पड़ा  है  सुन  के  जाता  एक  बादल
स्नेह की  इक बूँद  को  दल  में  समेटे
ताल में कुम्हला गया धूप से भींगा कमल

पार जाती  नाव  की  मैं  पाल को  मरोड़ आया
देह   केवल  शेष है मैं  प्राण  नगरी छोड़ आया।

प्यास  ही  तैरेगी  अधरों पर निरंतर
शाप से मुरझा गया जल आचमन का
यह  प्रतीक्षा  है प्रलय  की रात  तक
पायलें  देंगी  संदेशा  आगमन   का

जा रही सागर को गंगा फिर हिमालय मोड़ आया
देह  केवल  शेष  है  मैं प्राण  नगरी  छोड़  आया।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

सम्मान, गुटिंग, और टोपाबाजी छोड़ो, ब्लॉगिंग से नाता जोड़ो

आदमी लेथन फैलाने से बाज नहीं आता।  अगर आ गया तो उसकी कोटि बदल जाती है।  चाहे धरतीलोक पर रहे या चंद्र लोक पर या कल्पनालोक किसी भी लोक में रहे अपनी खुराफात से बराबर सिद्ध किये  रहता है कि वो आदमी ही है।  हमारे मास्साब बाबू लालमणि सिंह अक्सर कहते थे कि गलती कर सुधरने वाला प्राणी आदमी ही होता है।  जिसे गलती की समझ नहीं वह गदहा होता है।  क्लास में ऐसे कितने गदहों के नाम वह एक सांस में गिना देते थे।  आज का दिन  हिंदी  ब्लॉगिंग  दिवस के रूप में मनाया  जा रहा है तो एक बात तो तय है कि आज अगर बाबू लालमणि सिंह मौजूद होते तो गिन कर बताते कि 'कितने आदमी थे ' ।   

गब्बर सिंह भी यही बार बार पूछते रहे पर कालिया में तो बाबू लालमणि की आत्मा घुसी थी सो दुइये बता पाए काहे से कि जय और वीरू को अपनी गलती का एहसास हो गया था बेचारे खुद को सुधारना चाहते थे पर इस चक्कर में कालिया का बलिदान हो गया। खैर ब्लॉग जगत  कालिया की गति को प्राप्त होने वाला था कि अपने साम्भा यानी खुशदीप भाई ने दूरबीन लगाके देख लिया कि 'रामगढ़' में रामपुरिया  जैसे आदमी हैं। वहीँ से ललकार लगाई और सारे जोधा  फटाक से तुरतई  आदमी बन गए  और फटाफट  ब्लॉग दिवस का ताना बाना बन गया। 


सारे लोग टंकी से उतर आओ।  जइसे एक फेसबूकिया ब्लॉग लिखने लगे समझो ब्लॉग का सतजुग आई गवा।  तुरतई समझो कि गदहे आदमी बन रहे हैं।  अरे हियाँ लिखकर कुछ कमाई धमाई भी हुई जाए।  फिर बसंती के तांगे  पर बैठ के गाना गाते रहना... टेशन से गाडी जब छूट जाती है ... पर पहिले पोस्टिया ल्यो फिर कोई उधम मचईयेगा। ब्लॉग से भागने का एक  कारण ये भी था कि सम्मान, गुटिंग, और टोपाबाजी चरम पर पहुँच गयी थी।  ये सब बातें खेलने कूदने  तक के लिए ठीक हैं पर इन्ही को लेकर पोस्ट पे पोस्ट पेलने और कुतरपात करने ब्लॉगिंग स्खलित हुयी है सुन ल्यो।  सो इन सब से बच गए तो ब्लॉगिंग  के पुराने  और सुहाने  दौर की नदी पुनर्जीवित हो जायेगी। 



बाकी हम आपन जुम्मेदारी लेते तुम पंचन के तुम जानो । 

जय जोहार जय ब्लॉगिंग।  


#हिंदी_ब्लॉगिंग 

शुक्रवार, 30 जून 2017

मंगल ग्रह की बातें सब

ख्वाब देखने की जिद थी लेकिन आँखों में नींद नही
उन्ही  सवालों पर दिल  हारे  उत्तर  की उम्मीद नही ।

मुझको भी तो इश्क हुआ था पर कैसे साबित कर दूँ
चिट्ठी जो तुम तक भेजी थी उसकी कोई रसीद नही।

ये रानाई  जलसे  महफ़िल  मंगल  ग्रह की बातें सब
चाँद  फुलाकर  मुंह  बैठा  है  यह तो कोई ईद नही ।

मौसम  जैसेे  चले  गये  तुम  ऐसे  कोई  जाता  क्या
मुड़ कर भी इक बार न देखा कोई भी ताकीद नही।

रात  चाँदनी  सबा  सुहानी  लहरें  अब  भी उठती हैं
वही समन्दर वही किनारे पर अब  कोई  मुरीद नही।


बुधवार, 28 जून 2017

बारिश,बाइक और चाह।

पूरब में  घुमड़ते बादल गहराते जा रहे थे। गंगा का कछार अभी खत्म नही हुआ था कि हल्की हल्की बूंदे तेज बहती हवाओं के साथ मेरे चेहरे पर पड़ने लगीं। बाइक की रफ़्तार तेज थी। तुम्हारे काले बाल खुलकर हवा में लहराने लगे। एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाने के अनुपात में ही मेरी कमर पर तुम्हारी बाहों की कसावट बढती जा रही थी। कछार पीछे छूट गया सामने सागौन के दरख्त सड़क के दोनों तरफ हवाओं में झूमते नजर आए। बाइक सड़क पर फर्राटा भर रही थी। अब तक मैं सिर से लेकर पैर तक भीग चुका था ठंडी हवाएं बदन को छूकर बरफ बनाने पर तुली थीं पर तुम्हारे धडकनों  की गर्माहट से उनका मकसद बार बार असफल हो जाता। आखिर बादलों के सब्र का पैमाना छलक पड़ा। जोर से बिजली कौंधी और बारिश तेज हो गयी। मेरे कानों में हल्की आवाज आई। बाइक रोक लो फिसलने का डर है। मैंने पीछे मुंह कर के तुमसे कहा, ‘अब भी फिसलने का डर है तुम्हे’। तुमने मुस्कुरा कर सिर पेरी पीठ पर टिका लिया। 

बाइक अपनी रफ़्तार से भागती रही। धुप्प अंधेरा सा छा गया। सड़क पानी से भर गयी। मैंने बाइक को पहली गियर में डाला और  कभी एक्सेलेटर लेते हुए कभी पैर नीचे टिकाते हुए संभाल कर चलाने लगा। तुम मुझसे  अमरबेल सी लिपटी हुयी कभी अपने गीले बालों को पीछे कर रही थी कभी अपने मुंह से पानी हटा रही थी कभी मेरे मुंह से पानी साफ़ कर रही थी। तुम्हारे गीले गेसुओं को देखकर एक ही बात जेहन में आ रहीं थी...

'बरसात का मज़ा तेरे गेसू दिखा गए,
अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए'। 

थोड़ी देर बाद बारिश मद्धिम पड़ी। सागौन के पेड़ों के पार धान के खेत दिखे। धान के पौधे पानी में डुबकी लगा कर पुलक उठे थे। सड़क से लगा  एक कच्चा रास्ता था जहां से  थोड़ी दूर पर एक छप्पर दिख रहा था। मैंने बाइक वहीँ रोकी और तुम्हारा हाथ पकड़े कच्चे रास्ते पर चल दिया। रास्ते पर घास थी इस वजह से चलने में दिक्कत नही थी। वहाँ छप्पर में एक बूढा अंगीठी पर चाय उबाल रहा था। कोयले सील गये थे पर बूढा अंगीठी फूंक  फूंक कर आग को जलाए रखने का प्रयास जारी रखे था।

बाबा  चाय कैसे पिलाए , मैंने पूछा। उसने हम दोनों को देखा और  मुस्कुराया  बोला,  'चाय  नही चाह पिलाता हूँ बैठो'। एक गीली बेंच पर हम बैठ गये। तुम अपनी चुन्नी निचोड़ने लगी। वह बूढा  तेजी से  अंगीठी में फूंक मारने में जुट गया । तुम्हारे होंठ ठंड से काँप रहे थे। मैंने कहा बाबा जल्दी। बूढ़े ने तुम्हे देखा फिर उसने चाय में कूंची हुयी अदरक डाला और छानकर तुम्हे दिया। मैंने कहा रहने दो बाबा अब हम एक ही प्याली में चाह पी  लेंगे। वह फिर मुस्कुराया। हम प्याली में चाय पीते रहे। थोड़ी गर्माहट आई। छप्पर से पानी टपक रहा था। अंगीठी के धुएं की आड़ से बूढा हमें देखे जा रहा था। हमने चाय पीने के बाद उसे पैसे देने चाहे पर उसने नही लिया। बोला तुम लोग इस चाह को याद रखना। 

पानी बंद हो गया था। शाम होने को थी बादल पतले होकर लाल होने लगे। थोड़ी देर में हमारी बाइक शहर में दाखिला ले रही थी।