बुधवार, 29 अप्रैल 2020

धर्म और राजनीति, Religion and Politics


धर्म और राजनीति पर चर्चा करने के क्रम में धर्म को  समझना आवश्यक है। धारयति इति धर्मःजो धारण करने योग्य है वही धर्म है । यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या धारण करने योग्य है, देश काल परिस्थितियों में वह भिन्न भिन्न हो सकता है पर भिन्नता का आधार केवल रूपरेखा ही है विषयवस्तु नही। विषय वस्तु तो एक ही है और वह है निरंतर सुख पूर्वक जीना। जो भी धारण करने से निरंतर सुख मिले वही धर्म है। पानी का धर्म है प्यास बुझाना चावल का धर्म है भूख मिटाना ठीक उसी तरह मानव का धर्म है निरंतर सुख पूर्वक जीना।मानव समाज में सुखी होने के लिए अभय की आवश्यकता होती है यह अभय भौतिक वस्तुओ की उपलब्धता, आपसी सम्बन्ध और समझ पर आधारित होती है। दुनिया के सारे तौर तरीके इसी सुख  की खोज और खोजने के बाद उस सुख को बनाये रखने के क्रम में होते हैं। एक चोर भी चोरी सुखी होने के लिए करता है जिस दिन उसे समझ में आयेगा कि चोरी करके वह अभय जीवन नही जी सकता  वह चोरी करना छोड़ देगा जैसा कि डाकू रत्नाकर या अंगुलिमाल ने किया था । इसलिए भारतीय परम्परा में ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत चित से प्राप्त आनंद ही मोक्ष है ईश्वर की प्राप्ति है। उस आनंद को व्यक्तिवाचक बनाकर उसे  पाने के लिए ढेर सारे लोगों अपने अनुभव को आधार बनाकर रास्ते बनाये जिसे हम सामान्यतः आज धर्म के रूप में परिभाषित करते हैं, मसलन इन बाबाजी का रास्ता, उन बाबाजी के मार्ग, मसीहों के बताये धर्म वगैरह।  व्यक्ति के अनुभव के आधार पर मार्ग चुनने के खतरे भी बहुत हैं इनके पर्याप्त परीक्षण की आवश्यकता है जिस पर चर्चा हो सकती है  लेकिन यह बात तो प्रामाणिक  है कि धर्म सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। राज्य का अस्तित्व भी उसे सुख को सुनिश्चित करने के लिए हुआ है अब दोनों एक दूसरे से अलग नही हो सकते। राज्य धर्म से निरपेक्ष कैसे हो सकता है? धर्म के निहितार्थ कर्तव्यों के निर्वहन में है, स्वधर्मे निधनं श्रेयः  अर्थात अपने कर्तव्य पालन में मरना श्रेयस्कर है। राजा कर्तव्य पालन से विमुख कैसे हो सकता है? नही हो सकता है? राज्य प्रमुख  का धर्म,  कोई पंथ विशेष नही बल्कि उसकी जनता के प्रति जवाबदेही है। आज सविधान में  मूल कर्तव्यों की व्यवस्था है। यही कर्तव्य ही तो धर्म है।

धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत से संकट वर्तमान समाज में हमे देखने को मिलते  है लेकिन उत्तर बहुत सरल है जब तुलसी बाबा कहते हैं, ‘परहित सरिस धरम नही भाई , परपीड़ा सम नही अधमाईतो इसी एक पंक्ति में सारा निचोड़ आ जाता है, या जब वेद उद्घोष करते हैं कि आत्मवत् सर्वभूतेषु  यस्य पश्यति सह पंडितःतो भी धर्म स्पष्ट  हो जाता है कि सभी प्राणियों में मैं स्वयं को देखता हूँ सभी मेरे जैसे हैं जिस बात से मुझे कष्ट होता है उससे दूसरों को भी तकलीफ होती होगी। आत्मन प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेतअपने से प्रतिकूल कर्मों को नहीं करना धर्म है। जिन स्मृतियों  की रुढियों को लेकर इतनी आलोचनाएँ  होती हैं उन्ही में धर्म की इतनी सुंदर परिभाषा दी गयी है उतनी आजतक मैंने किसी ग्रन्थ में नही देखी,
 धृति क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह
धी विद्यासत्य्माक्रोधो दशमेकम धर्म लक्षणं
धर्म की इस परिभाषा में आप बताइए कि क्या गलत है और किसे इसका पालन नही करना चाहिए या इसमें क्या साम्प्रादायिक है ? अभी केन्द्रीय विद्यालयों में असतो माँ सद्गमय  को हटाने को लेकर एक याचिका दायर की गयी है जिसमे कहा गया है कि इस वाक्य से धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ गयी  है। यह  बात समझ से परे है कि  असत्य से सत्य की ओर जाने से धर्मनिरपेक्षता कैसे खतरे में आ जाती है।  कल को न्यायालयों में से यतो धर्मः ततो जयःको हटाने की बात की जायेगी परसों सत्यम शिवम् सुन्दरमकी बात आएगी फिर योगक्षेमपर सवाल उठाये जायेंगे, दरअसल मामला कुछ और ही है।

जिसे हमे समझाया गया और पढ़ाया है कि फलाने हमारा धर्म है वह तो है ही नही वह संगठन हो सकता है,  पंथ हो सकता है, सम्प्रदाय हो सकता है, रिलिजन हो सकता है  पर भारतीय सन्दर्भ में वह धर्म नहीं हो सकता है। उन लोगों का मानना है कि हमारे संगठन की बात मानी जाए इसलिए बार बार धर्म से निरपेक्ष होने की बात आती है। लेकिन संगठन और धर्म में फर्क है। धर्म केवल और केवल आपका विवेकयुक्त  कर्तव्य है।

एक बार विश्वामित्र घूमते हुए अकाल क्षेत्र में पहुँच गये। उन्होंने एक व्याध के घर भिक्षा मांगी तो उन्हें कुत्ते की हड्डी कि भिक्षा मिली । भूख से व्याकुल होकर जैसे ही वह उसे खाने को उद्यत हुए  व्याध  ने जब  पूछा कि आपने तो एक संत का  धर्म भ्रष्ट कर दिया। विश्वामित्र बोले संत का धर्म उसका कर्तव्य है । इस समय मेरा धर्म कहता है कि शरीर की रक्षा सर्वोपरी है क्योंकि  शरीर से ही धर्म पालन होगा अतः वह खाद्य सिर्फ देह के पालन करने के लिए था यदि मैं स्वाद के लिए उसे खाता  तो धर्म भ्रष्ट होता। आपका विवेकयुक्त कर्तव्य  आपके धर्म का निर्धारण करता है।
यही भारतीय धर्म की खूबी है जो इसे सनातन और सबकी आवाश्यकताओं  की पूर्ति  करने वाला बनाता  है जो बिना किसी फ्रेम, बिना किसी आकार, और बिना किसी प्रवर्तक के निरंतर सदानीरा की भांति प्रवाहित है। आप शाकाहारी हैं, नही हैं, आप कपडे पहनते हैं, नही पहनते, आप जप करते हैं, नही करते तब भी आप उसी धर्म का हिस्सा हैं। लोकतंत्र यह सहिष्णुता का सर्वोच्च रूप आप यहाँ पर पाते हैं जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा कि सनातन धर्म उस शर्ट के जैसे है जो भी पहनता है उसके जैसा हो जाता है। जैसा आप चाहो आपको मिलेगा। गीता में  श्रीकृष्ण इसी बात को बार बार कहते हैं कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है वह उसी भाव में उसे प्राप्त होते हैं। वैश्विक बंधुत्व का उद्घोष ही धर्म है।

राज्य को सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना चाहिए पन्थ से निरपेक्ष होना चाहिए पर धर्म से निरपेक्ष वह हो ही नही सकता। महात्मा गांधी इस बात को बड़े अच्छे तरीके से कहते हैं कि धर्मविहीन राजनीति सेवेंथ सिन’ (घोर पाप ) के समान है गांधीजी ने  राजनीति को धर्म से अलग करने के सुझाव को अस्वीकृत कर दिया , क्योंकि उन्होंने लोगों की आजीवन सेवा के माध्यम से सत्य की तलाश के रूप में धर्म को एक नई परिभाषा दी। यह विवेकानंद के विचारों का ही प्रभाव था कि गांधीजी यह कहने में समर्थ रहे कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है? गांधीजी ने यह भी कहा कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका नहीं देता हूँ । यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शों  को विकसित करना। बार-बार गांधीजी ने यह रेखांकित किया कि सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है। गांधी जी रामराज को आदर्श राज्य का माडल  मानते हैं। रामराज्य की अवधारणा का आधार ही स्वधर्म है। गांधीजी सेक्युलर बिलकुल नही हैं वह रामचरित मानस  को उद्धृत करते हैं,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। अब यहाँ पन्थ को धर्म समझने वालों की मजबूरी हो जाती है कि वे रामराज्य को सांप्रदायिक कहें और धर्म को राजनीति से दूर रखने की बात करें। यह इसलिए भी क्योंकि उससे दूसरी किस्म की नैतिकता दूसरे किस्म के तौर तरीकों को व्यवस्था उन्हें में ले आने का अवसर मिलता है।

राज्य चार चीजों से मिलकर बनता है क्षेत्र लोग सरकार और संप्रभुता राज्य के ठीक से चलने के लिए जरूरी है कि राज्य की सीमाए ठीक हों लोगों का आचरण ठीक हो सरकार न्यायप्रिय हो। उसकी संप्रभुता को बाकी के देश मानें। इनमें से सभी से महत्वपूर्ण है लोगों का आचरण यदि आचरण दुरुस्त है तो राज्य संगठित है विकास कर पायगा। कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक नीति  प्रगति में बाधक हैं मैं एक उदाहरण  देता हूँ एक नीति   कार्य ही पूजा है।यह नीति  किस तरह राज्य को आगे बढ़ने में मदद करते हैं इसे समझा जा सकता है । औद्योगीकरण के लिए यह जरूरी कि अधिक मात्रा में उत्पादन हो उसके लिए कार्य का ठीक तरीके से होना जरूरी है। अब लोगों के मूल्य कार्योंमुख होने से औद्योगीकरण को गति मिलती है इससे राज्य तेजी से विकास की ओर बढ़ता है। धर्म  नैतिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से राज्य को संगठित करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें धर्म  नही चाहिए। दरअसल  वे पुरखों की विरासत को समझने में नाकाम रहते हैं ये लोग हाथी की पूंछ को छूकर मानते हैं कि अनुभव के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि हाथी झाडू जैसा होता है और इसी बात को सभी माने क्योंकि  यही प्रत्यक्षवाद है। ये वो लोग हैं जो धर्म को अफीम मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुनिया को चलाने का पुरजोर समर्थन करते हैं। दरअसल धर्म को रुढ़िवादी घोषित कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर इस दुनिया का जितना नुकसान  पिछले १०० सालों में किया गया है उतना जब से मानव सभ्यता अपने अस्तित्व में आई कभी नही हुआ। विज्ञान के नाम पर हमने अपनी नदियों को दूषित कर दिया हवा मिटटी सबको गंदा कर दिया। विज्ञान ने हमे दो विश्व युद्ध थमा दिए तीसरे के मुहाने पर दुनिया बैठी है। जो सबसे विकसित और वैज्ञानिक देश होने का दावा करता है उस अमेरिका ने तीस बार दुनिया को नष्ट करने के लिए परमाणु हथियार बना कर रखे हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें विज्ञान की क्या गलती तो यही बात धर्म पर लागू होती है।

जब धर्म राज्य के विस्तार का साधन बन जाए तो वह धर्म नही होता है, धर्म मानव के आत्म विस्तार का साधन है। बाहर के मुल्कों का घोषित धर्म केवल राज्य के विस्तार का साधन मात्र था जबकि भारत का धर्म  अध्यात्म है। आज आवश्यकता है कि धर्म के मूल को बड़े सरल तरीके से समझकर उसके आधार पर राजनीति करने की ताकि हर भारतीय  अपने सर्वोच्च  मूल्य को प्राप्त कर सके।

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पर तन का अनुराग प्रबल है

पानी को पानी से मिलना जीवन तो सांसों का छल है ।
मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।

युगों युगों  की एक कहानी 
तृष्णा मन की बहुत पुरानी 
प्राणों की है प्यास बुझाना,
लेकिन नए स्वाद भी पाना 

पतन हुआ था जिसको पाकर, मांगे वही स्वर्ग का फल है ।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है।

स्वर्ण हिरण की अभिलाषा में
मोह की मारीचिक आशा में 
स्वर्ण मयी लंका मिलती है ,
यद्यपि मान रहित होती है 

अनुकरणीय उसी का पथ है, जो भटका जंगल जंगल है।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।


 परिवर्तन आखिर सीमित है 
धरती की गति भी नियमित है 
किसी ठौर पर रुकना होगा,
मर्यादा पर झुकना होगा 

चलते जाने वालों सुन लो, थीरता ही जीवन संबल है।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है ।


बुधवार, 15 अप्रैल 2020

याचना से प्रिये कुछ मिलेगा नही

याचना से प्रिये कुछ मिलेगा नही,
एक ही मार्ग है मुझपे अधिकार कर लो।

 फूल फिर भी नही कोई खिल पायेगा
शाख पर छाये कितने भी मधुमास हों।
 प्राण की प्यास ऐसे यथावत रही
 सप्त सैन्धव निरंतर भले पास हों ।।

 जो अहम् से भरा ये हृदय है मेरा,
 मान गल जाएगा मुझको अंकवार भर लो।

 सब प्रतीक्षित दिवस हैं बिना मोल के
स्वप्न में बीतती यामिनी व्यर्थ है।
दे सके ना जो प्रतिदान विश्वास के
 ऐसे पाषाण का क्या कोई अर्थ है।।

 चाह मन में हो मुझसे मिलन की शुभे,
अर्चना छोड़ कर अपना सिंगार कर लो।

 कब कलाई में कंगन है स्थिर हुआ
 कब रुकी है लहर तट पे आएगी ही।
 किसके रोके रुकी है ये पागल हवा
 कोई अंकुश नही बदरी छाएगी ही।।

 तुमको आदेश की तो जरूरत नही,
 मानिनी जब भी चाहो मुझे प्यार कर लो।

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

को नही जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो।

हनुमान जी लोकनायक हैं। जन संकटमोचक हैं। जनांदोलन की शक्ति हैं। महादेवी वर्मा का कथन है,' राम के कथाक्रमों को संगठित करने वाला मूल सूत्र हनुमान जी ही हैं जिनके बिना सीता राम के बीच समुद्र ही लहराता होता और रावण के प्रखर प्रताप के सम्मुख राम के शौर्य की दीप्ति मलिन हो जाती । राम और सीता को मिलाने वाले, सुग्रीव को राज्य दिलाना हो, विभीषण का दुख दारिद्र्य दूर करना हो, लक्ष्मण की जान बचानी हो, नागपाश से मुक्ति, अहिरावण से मुक्ति, अर्जुन की सहायता से लेकर गोस्वामी जी के माध्यम से त्रस्त तत्कालीन जनता में राम नाम की शक्ति भरने वाले बजरंग बली की महिमा का कोई पारावार नही है। लोक मानस के कण कण में बजरंग बली व्याप्त हैं।प्रत्येक ग्राम में चाहे कोई और देवालय हो या ना हो हनुमान जी का विग्रह अवश्य होगा। उनके लिए खुला आकाश ही मंदिर है। राम कथाे हनुमान जी के बिना पूर्ण नही है। जहां राम कथा होती है वहां हनुमान जी अवश्य उपस्थित रहते हैं। भगवान राम जब संपूर्ण प्रजा सहित बैकुंठ जा रहे थे तब हनुमान जी उनके साथ नहीं गए। राम से पृथ्वी पर रहकर राम कथा श्रवण का ही वरदान मांगा जो उन्हें दिया गया। इसलिए जहां भी रामकथा होती है वहां एक लाल कपड़ा बिछाकर पहले हनुमान जी का आवाहन किया जाता है और कथा की समाप्ति पर उनकी विदा। प्रारम्भ: कथा आरंभ होत है, सुनो वीर हनुमान राम लखन अरु जानकी सदा करें कल्याण विदा: कथा समापन होत है सुनो वीर हनुमान जो जहां से आयहू सो तह करें पयान युवा शक्ति जागरण बिना बजरंग पूजन के सम्भव ही नही। अखाड़े जहां युवा शक्ति तराशी जाती है वहां हनुमान की ध्वजा अवश्य होती है स्वयं गोस्वामी जी ने हनुमान जी के बारह मंदिर बनाए थे । जनसंस्कृति और सरलता हनुमान मंदिरों की प्रमुख विशेषता है। विग्रह न हो तो भी सिंदूर से रंगी एक पिंडी ही काफी है। लोक देवता के रूप में हनुमान जी की उपासना दुर्गा माता के साथ होती है। हनुमान जी पर गोस्वामी जी ने कुछ छोटी-छोटी अति प्रसिद्ध रचनाएं लिखी हैं जिन्हें विशेषज्ञ उनकी मान्यता देने में संकोच करते हैं उनका कहना है यह तुलसी के स्तर की नहीं जैसे कि हनुमान चालीसा और बजरंग बाण। निरक्षर लोगों को भी वह कंठस्थ है और भारतीय मनीषा में उसकी पंक्तियां मंत्रों का दर्जा प्राप्त है। बुद्धिजीवी लोग यह भूल जाते हैं कि गोस्वामी जी ने सिर्फ साहित्य की रचना नहीं की उन्होंने भारतीय चेतना को भी रचा उसके लिए इसी प्रकार के जन साहित्य की आवश्यकता थी । हम बात तो बहुत करते हैं जन साहित्य की परंतु हमने ऐसा क्या रचा जिसे जनता ने समग्र भाव से अपनाया, जैसे कि हनुमान चालीसा और बजरंग बाण जो शब्दों का रूपांतरण क्रियाओं में कर सकें । प्रत्येक महान संत लोक की चेतना जागृत करने के लिए सर्जन का प्रयास करता है और वह रचना अपने रचनाकार के नाम के बिना भी युगों युगों तक यात्रा करती है । स्वामी रामानंद की रची आरती है, 'आरति कीजे हनुमान लला की दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ' घर घर गाई जाती है कितने लोग जानते हैं? लोककल्याण में स्तरीकरण के ब्यूरोक्रेटिक मॉडल नही चलते। यहां भावना हर प्रकार के स्तरीकरण को अप्रासंगिक कर देता है। इसी भावना के आधार पर तुलसी का रामराज्य निर्मित है जिसे वह हनुमान जी के माध्यम से पाना चाहते हैं। जय बजरंग बली।

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

कोरोना : प्रकृति का संदेश



मानव की  पाषाण काल से लेकर वर्तमान में लॉकडाउन युग की यात्रा बड़ी विचित्र रही है।  अक्सर यह बताया जाता है कि प्रगति रेखीय होती है परन्तु यदि प्रगति प्रकृति के नियमों में अनुरूप न हो तो यह  हमेशा चक्रीय ही होती है।  प्रकृति हमें वापस उसी जगह लाकर पटक देती है जहाँ से हम यात्रा प्रारम्भ करते हैं।  गुफा युग की वापसी इस बाद की तस्दीक करती है कि निश्चय ही प्रकृति हमें पुनः उसी जगह वापस लाना चाहती है जहाँ से हमने सभ्यता की शुरुआत की थी पर जैसे जैसे यात्रा बढती गयी हम निरंतर जाहिल होते गये और जाहिलियत इतनी बढ़ी कि धरती का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया।  आज हम घरों में उसी तरह दुबक कर बैठे हैं जैसे आदि मानव अपनी गुफाओं में दुबक कर रहता था।  यह मनुष्य के निरंतर जाहिल होने का प्रमाण है कि धरती को गंदा कर, मानव का मानव के प्रति घृणा बढाकर अपने को सभ्य होने का खोखला प्रलाप करता रहा।  मनुष्य ने ऐसे अनेकानेक अनावश्यक डर, सुविधाएं, व्यवस्थाएं और विचारधाराएँ बनाई जिसके भार को थामने को ही वह अपना सामर्थ्य समझता रहा।  
आज जब लोग घर में हैं एक दूसरे की देखभाल कर रहे हैं आस पास के लोगों की सहायता कर रहे हैं तब यह समझ में आता है कि हम जिसे होशियारी समझ कर अपने सीने से चिपकाए थे वह तो मात्र कूड़े का एक ढेर था।  जिस गंगा यमुना के सफाई के लिए अरबों रूपये खर्च कर दिए गये, तमाम संसाधन होम कर दिए गये वो तो बिना किसी प्रयास के मात्र दस दिन गंदगी न फेंकने की वजह से स्वच्छ हो रही हैं।  अस्पतालों में , शमशानों और कब्रिस्तानों में दुर्घटना एवं बीमारी की वजह से मरने वालों की संख्या में कमी आई है।  पारिवारिक ताने बाने, नाते रिश्ते मजबूत हुए हैं।  हवायें दुर्गंध छोड़ कर  ताजगी महक रही हैं।  सबसे खूबसूरत बात जिसका जिक्र 1854 में एक अंग्रेज ने किया था वह यह है कि जालंधर के लोगों को उनके जीवन काल में पहली बार अपने घर की छतों से हिमालय की चोटियां साफ दिखाई दे रही हैं, रात में चमकते तारों और चन्द्रमा को देखकर फिर से माताएं दूध कटोरा की लोरी याद करने लगी हैं   उत्तराखंड में हाथी, नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस में नीलगाय, बरसों  बाद उड़ीसा के तट पर दिन में भी अपने अंडों के पास आते  ऑलिव रिडली कछुए,  चंडीगढ़ में कुलांचे भरते  सांभर,  मुंबई के मरीन ड्राइव और मालाबार हिल्स पर ख़ुशी से उतराती डॉल्फिन, सड़कों पर मस्ती करते एन्डेंजर्ड सिवेट और  पक्षियों की चहचाहट वापस लौट आई है।  
प्रकृति शायद आखिरी बार मनुष्य को मौक़ा देना चाहती है और इसीलिए वह अपने तरीके से यह संदेश डे रही है कि मानव  अपनी कुत्सित  लिप्सा  से मुक्त होकर आनंद पूर्वक जीवन की तरफ लौटे।  अब धरती पर और अत्याचार नहीं धरती सबकी जरूरत को पूरा कर सकती है पर किसी एक के लालच को नही।  हमें अपनी जरूरतों को पहचानना होगा।  याद रखिये जरूरत से ज्यादा उपभोग धरती पर केवल और केवल दबाव ही बढ़ाता है।  आपके द्वारा किया गया अपरिग्रह और प्राकृतिक नियमों के अनुकूल जीवन यापन ही मानव सभ्यता को आगे जीवित रख सकता है।  यदि हम प्रकृति के इस सन्देश को नही समझे तो उत्तर  कोरोना काल के बाद धरती पर पेड़ पौधे नदियाँ पहाड़ सभी मौजूद होंगे पर मनुष्य नही होगा।