सोमवार, 18 दिसंबर 2017

'बोलो गंगापुत्र!'




'बोलो गंगापुत्र!'
डॉ पवन विजय
‘अंत में धर्म की विजय होती है।’, ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि अन्तिम परिणाम को न्यायोचित ठहराया जा सके। वस्तुत: राजनीति में ‘विजय ही धर्म’ है। राजकुल में सत्ता ही सत्य, धर्म और नैतिकता है। जब हम इसका अवलोकन, महाभारत के सन्दर्भ में देखते हैं, तो सत्ता के कुचाल स्पष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाम पर, वचन के नाम पर, और राज्य की सुरक्षा के नाम पर जितने अधर्म कुरुवंश में किये गये, उसका अन्यत्र उदाहरण मिलना दुष्कर है। गंगापुत्र भीष्म - जिनके संरक्षण में द्रौपदी को परिवारी जनों के सामने नग्न करने का प्रयास किया गया, एकलव्य का अँगूठा कटवा लिया जाता है, दुर्योधन को एक उद्दण्ड, हठी चरित्र बनाकर घृणा का पात्र बना दिया जाता है, इतना बड़ा नरसंहार होता है, और कुरु कुल का विनाश हो जाता है; वह गंगापुत्र, काल के प्रश्नों सामने अधीर हैं, किन्तु काल के प्रश्न उनके शरीर में बाणों की तरह धँसे हैं, जिनका उत्तर उन्हें देना ही है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें, कि धर्म की ओर कौन सा पक्ष था। दरबारी इतिहासकारों द्वारा जो लिखा होता है, वह मात्र सत्ता का महिमामण्डन होता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सत्ता के इतर लिखने वालों को सत्ता समाप्त कर देती है; नहीं तो यह कैसे हो सकता है कि जयसंहिता में जो कुछ आठ हजार आठ सौ श्लोकों में लिखा गया, उसे बढ़ाकर, एक लाख श्लोक का महाभारत बना दिया जाता है। सत्ता द्वारा धर्म और सत्य को, जाने कितने क्षेपकों की दीवारों में चुनवा दिया गया। कुलप्रमुख धृतराष्ट्र और भीष्म के पूर्वाग्रहों में आश्चर्यजनक एकरूपता है... एक का दुर्योधन के प्रति, तथा दूसरे का पाण्डवों के लिए आग्रह है।
‘बोलो गंगापुत्र!’ में काल, अपने कपाल पर लिखे सत्य का साक्षात्कार भीष्म से कराता है। अबकी बार कुरुक्षेत्र में अर्जुन नहीं, बल्कि मृत्युजयी गंगापुत्र भीष्म दुविधाग्रस्त हैं, सवालों के घेरे में हैं। पुस्तक, संवाद के क्रम में है, जिसके द्वारा लेखक ने सामान्य लौकिक मानवीय प्रश्नों को अत्यंत सहजता से उठाया है, और उसके सरलतम उत्तर भी पात्रों के माध्यम से देने का प्रयास किया है।

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

मानव होने के अधिकार से वंचित किन्नर

                
सामान्यतः हम जिस परिवेश में रहते हैं उसी के हिसाब से हमारे तौर तरीके विकसित हो जाते हैं जिसके अनुसार  हम ताउम्र व्यवहार करते हैं या सोचते हैं।  मनुष्य की आदतें उसके सीखने और सामंजस्य करने पर आधारित होती हैं।  जो एक बार सीख गया या जीवन में जहां जैसे भी सामंजस्य बिठा लिया उसी के मुताबिक़ वह आदत बना लेता है और  जिसे बदलना या बदलने के लिए सोचना उसके लिए बहुत मुश्किल होता है।  सदियों से लैंगिंक विभेद के रूप में पुरुष और स्त्री का विमर्श चला आ रहा है। उभय लिंग और नपुंसक लिंग की भी चर्चा गाहे बगाहे हो जाती है किन्तु पुरुषों या स्त्रियों की लैंगिक विकृतता को लेकर कोई  विमर्श या चर्चा नही अगर होती है तो भी उसे हास परिहास में टाल दिया जाता है । इस प्रकार के लोगों को तीसरी श्रेणी के लोग कहकर औपचारिकता का निर्वहन कर लिया गया।  तीसरी श्रेणी के लोगों ने भी समाज की इस रीति के साथ सामंजस्य बनाकर जीना सीख लिया।  समाज ने किन्नरों को सामजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्य, खेल  समेत  सारे मामलों में हाशिये पर रखा।  सामजिक व्यवस्था ऐसी है जिसमे  मात्र लैंगिक विकृति के चलते किसी व्यक्ति को मानव होने के लायक ही नही समझा जाता।  किन्नर होना अपराधी, घृणित और अस्पृश्य होना समझा गया या उन्हें देवत्व से जोड़कर समाज से बाहर रखने का पूरा इंतजाम किया गया।  किसी परिवार में यदि कोई विकलांग बच्चा जन्म लेता है तो उसे परिवार उसके जीवनपर्यंत सामजिक सुरक्षा देता है जबकि लैंगिक विकलांग के पैदा होते ही उसके माता पिता उसे त्याग देते हैं या त्यागने पर मजबूर हो जाते हैं।  किन्नरों के लिए बधाई समूह ही एकमात्र विकल्प है जिसमे रह कर वे अपना जीवन निर्वाह कर सकते हैं।  समाज ने गाने बजाने  वाले किन्नरों को मान्यता दी तथा उन्हें शुभ बताया ताकि वह अपने पेशे को दैवीय समझें और उसी में ही लिप्त रहें।  
यहाँ इस बात को जानना अत्यधिक जरुरी है कि क्या वाकई में किन्नरों को  तृतीय लिंग कहना चाहिए।  तृतीय लिंगकी संविधानिक अवधारणा और कानूनी मान्यता के अनुसार  “स्व-पहचानीकृत लिंग या तो पुरुषया महिलाया एक तृतीय लिंग हो सकता है। किन्नर  तृतीय लिंग के रूप में ही जाने जाते हैं, न कि पुरुष अथवा स्त्री के रूप में। इसलिए इनकी अपनी लिंगीय अक्षमता को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूह के कारण एक तृतीय लिंग के रूप में विचारित किया जाना चाहिए।“ किन्तु लिंगीय अक्षमता तो अनेक पुरुष और महिला दोनों हो सकते हैं तो क्या उन्हें भी तृतीय लिंग में शामिल कर लेना चाहिए।  जाहिर है कि किन्नर के लैंगिक  पहचान को लेकर विरोधाभास है।  वस्तुतः किन्नर गर्भ में शरीर के विकास क्रम की वह अवस्था है जब किसी  एक लिंग के निर्धारण की प्रक्रिया होते होते रुक जाती है या कुछ समय बाद दूसरे लिंग का विकास होना शुरू हो जाता है।  इस प्रकार किन्नर के अंग में पुरुष या स्त्री के अंग अविकसित रह जाते हैं या दोनों अंगों का मिलावटी स्वरुप हो जाता है।  स्पष्ट है कि इन्हें तीसरे लिंग में रखना एक कामचलाऊ बात है।  किन्नर होना एक लैंगिक विकृति है न कि कोई  अलग लिंग का प्राणी होना है।  जब हम इन्हें अलग से तीसरे लिंग  की कोटि में रखते हैं तो अनजाने में ही उन्हें यह जताते  है कि वह सामान्य मानव नही हैं बल्कि कुछ विचित्र किस्म के लोग हैं।
शरीर की बनावट के आधार पर समाज की मुख्यधारा से दूर किन्नरों को महिला का वेश बनाकर रहना और उनके जैसी बोली भाषा और व्याकरण का प्रयोग करने की बाध्यता भी उन्हें दलित बनाती है. स्त्री को दोयम दर्जा देने के बाद लगभग उसी तरीके से किन्नरों को लांक्षित अपमानित कर उन पर निर्योग्यताएं लादी गयीं और यह सुनिश्चित किया गया कि वह उन निर्योग्यताओं का अनुपालन करेगे. इस आधार पर अच्छे बुरे किन्नरों का निर्धारण किया गया. मध्यकाल में किन्नरों से शासक वर्ग को कुछ सहूलियतें मिलीं खासतौर से मुग़ल शासनकाल के दौरान उन्हें हरम में जगह इसलिए मिली ताकि निश्चिंतता के साथ वहाँ का देखरेख और निगरानी की जा सके. वर्तमान समय में संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को लिंग के आधार पर भेदभाव से मुक्ति दिलाने की बात करता है परन्तु सामाजिक व्यवस्था और सोच कुछ इस तरह की है कि उससे पार पाना अत्यंत मुश्किल काम  है. सबसे कठिन काम प्रचलित परिदृश्य को बदलना है जिसमे किन्नर को एक विचित्र प्राणी समझा जाता है. किन्नरों पर यह विचित्रता समाज द्वारा आरोपित है जिसे उस वर्ग ने स्वीकार कर उसके मुताबिक़ अपने जीवन को ढाल लिया है और परिणाम यह कि हजारों वर्षों  से वह मानव जीवन को महसूस करने के प्रथम मानवाधिकार से वंचित है।  

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रविवार, 13 अगस्त 2017

मैं पूजित होने के लिए कब तक अभिशप्त रहूंगा

मैं पत्थर हूँ 
न देखता हूँ न सुनता हूँ 
न ही कोई संवेदना महसूस करता हूँ 
किसी के दुःख निवारण  की बात तो दूर 
मैं इतना असहाय हूँ कि पड़ा हुआ हूँ सदियों से एक ही  जगह बारहों मौसम 
सोचो मुझे पूजने वालों 
अगर मैं कहने सुनने समझने और  करने वाला होता तो पत्थर  क्यों होता 
इंसान क्यों न होता 
जिस दिन मुझे बोलना आ गया 
उसी दिन मंदिर से बाहर फेंक दिया जाऊंगा और देवत्व से भी च्युत कर दिया जाऊंगा 
क्योंकि बोलते बोलते मुझे चिल्लाना होगा  और चिल्लाते चिल्लाते हांफने लगूंगा 
पसीने से तरबतर 
लेकिन देवताओ को तो  पसीना आता ही नही 
मेरी देह  से पसीना बहते देख लोग समझ जाएंगे कि 
यह देवता नही कोई इंसान  है 
और लात मारकर निकाल देंगे अपने अपने घर के पवित्र कोनों से
बोलने  वाले माँ  बाप की तरह 
सुनो मुझे पूजने वालों 
मैं पूजित होने के लिए कब तक अभिशप्त रहूंगा 
मुझे मुक्त होना है 
इस गूंगे बहरे लूले लंगड़े और निहायत ही लिजलिजे  और निर्जीव  देवत्व से
मैं सांस लेना चाहता हूँ 
हँसना चाहता हूँ रोना चाहता हूँ 
मुझे पूजने वालों 
मैं तुम जैसा होना चाहता हूँ  

रविवार, 2 जुलाई 2017

प्राण नगरी छोड़ आया

जो रचे थे स्वप्न सारे चित्र उनको तोड़ आया।
देह केवल शेष है मैं प्राण नगरी छोड़ आया।

उम्र  भर  की वेदना  श्वांसों  में  है
बांसुरी अपनी कथा किससे कहेगी
मोर  पंखों  ने  समेटा  चन्द्रमा  को
वृंदावन  में राधिका  पागल फिरेगी

पूर्णिमा को युग युगांतर अमावस से जोड़ आया
देह  केवल   शेष  है  मैं प्राण नगरी छोड़ आया।

फूल से छलनी  हृदय  की  अकथ  पीड़ा
रो  पड़ा  है  सुन  के  जाता  एक  बादल
स्नेह की  इक बूँद  को  दल  में  समेटे
ताल में कुम्हला गया धूप से भींगा कमल

पार जाती  नाव  की  मैं  पाल को  मरोड़ आया
देह   केवल  शेष है मैं  प्राण  नगरी छोड़ आया।

प्यास  ही  तैरेगी  अधरों पर निरंतर
शाप से मुरझा गया जल आचमन का
यह  प्रतीक्षा  है प्रलय  की रात  तक
पायलें  देंगी  संदेशा  आगमन   का

जा रही सागर को गंगा फिर हिमालय मोड़ आया
देह  केवल  शेष  है  मैं प्राण  नगरी  छोड़  आया।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

सम्मान, गुटिंग, और टोपाबाजी छोड़ो, ब्लॉगिंग से नाता जोड़ो

आदमी लेथन फैलाने से बाज नहीं आता।  अगर आ गया तो उसकी कोटि बदल जाती है।  चाहे धरतीलोक पर रहे या चंद्र लोक पर या कल्पनालोक किसी भी लोक में रहे अपनी खुराफात से बराबर सिद्ध किये  रहता है कि वो आदमी ही है।  हमारे मास्साब बाबू लालमणि सिंह अक्सर कहते थे कि गलती कर सुधरने वाला प्राणी आदमी ही होता है।  जिसे गलती की समझ नहीं वह गदहा होता है।  क्लास में ऐसे कितने गदहों के नाम वह एक सांस में गिना देते थे।  आज का दिन  हिंदी  ब्लॉगिंग  दिवस के रूप में मनाया  जा रहा है तो एक बात तो तय है कि आज अगर बाबू लालमणि सिंह मौजूद होते तो गिन कर बताते कि 'कितने आदमी थे ' ।   

गब्बर सिंह भी यही बार बार पूछते रहे पर कालिया में तो बाबू लालमणि की आत्मा घुसी थी सो दुइये बता पाए काहे से कि जय और वीरू को अपनी गलती का एहसास हो गया था बेचारे खुद को सुधारना चाहते थे पर इस चक्कर में कालिया का बलिदान हो गया। खैर ब्लॉग जगत  कालिया की गति को प्राप्त होने वाला था कि अपने साम्भा यानी खुशदीप भाई ने दूरबीन लगाके देख लिया कि 'रामगढ़' में रामपुरिया  जैसे आदमी हैं। वहीँ से ललकार लगाई और सारे जोधा  फटाक से तुरतई  आदमी बन गए  और फटाफट  ब्लॉग दिवस का ताना बाना बन गया। 


सारे लोग टंकी से उतर आओ।  जइसे एक फेसबूकिया ब्लॉग लिखने लगे समझो ब्लॉग का सतजुग आई गवा।  तुरतई समझो कि गदहे आदमी बन रहे हैं।  अरे हियाँ लिखकर कुछ कमाई धमाई भी हुई जाए।  फिर बसंती के तांगे  पर बैठ के गाना गाते रहना... टेशन से गाडी जब छूट जाती है ... पर पहिले पोस्टिया ल्यो फिर कोई उधम मचईयेगा। ब्लॉग से भागने का एक  कारण ये भी था कि सम्मान, गुटिंग, और टोपाबाजी चरम पर पहुँच गयी थी।  ये सब बातें खेलने कूदने  तक के लिए ठीक हैं पर इन्ही को लेकर पोस्ट पे पोस्ट पेलने और कुतरपात करने ब्लॉगिंग स्खलित हुयी है सुन ल्यो।  सो इन सब से बच गए तो ब्लॉगिंग  के पुराने  और सुहाने  दौर की नदी पुनर्जीवित हो जायेगी। 



बाकी हम आपन जुम्मेदारी लेते तुम पंचन के तुम जानो । 

जय जोहार जय ब्लॉगिंग।  


#हिंदी_ब्लॉगिंग 

शुक्रवार, 30 जून 2017

मंगल ग्रह की बातें सब

ख्वाब देखने की जिद थी लेकिन आँखों में नींद नही
उन्ही  सवालों पर दिल  हारे  उत्तर  की उम्मीद नही ।

मुझको भी तो इश्क हुआ था पर कैसे साबित कर दूँ
चिट्ठी जो तुम तक भेजी थी उसकी कोई रसीद नही।

ये रानाई  जलसे  महफ़िल  मंगल  ग्रह की बातें सब
चाँद  फुलाकर  मुंह  बैठा  है  यह तो कोई ईद नही ।

मौसम  जैसेे  चले  गये  तुम  ऐसे  कोई  जाता  क्या
मुड़ कर भी इक बार न देखा कोई भी ताकीद नही।

रात  चाँदनी  सबा  सुहानी  लहरें  अब  भी उठती हैं
वही समन्दर वही किनारे पर अब  कोई  मुरीद नही।


बुधवार, 28 जून 2017

बारिश,बाइक और चाह।

पूरब में  घुमड़ते बादल गहराते जा रहे थे। गंगा का कछार अभी खत्म नही हुआ था कि हल्की हल्की बूंदे तेज बहती हवाओं के साथ मेरे चेहरे पर पड़ने लगीं। बाइक की रफ़्तार तेज थी। तुम्हारे काले बाल खुलकर हवा में लहराने लगे। एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाने के अनुपात में ही मेरी कमर पर तुम्हारी बाहों की कसावट बढती जा रही थी। कछार पीछे छूट गया सामने सागौन के दरख्त सड़क के दोनों तरफ हवाओं में झूमते नजर आए। बाइक सड़क पर फर्राटा भर रही थी। अब तक मैं सिर से लेकर पैर तक भीग चुका था ठंडी हवाएं बदन को छूकर बरफ बनाने पर तुली थीं पर तुम्हारे धडकनों  की गर्माहट से उनका मकसद बार बार असफल हो जाता। आखिर बादलों के सब्र का पैमाना छलक पड़ा। जोर से बिजली कौंधी और बारिश तेज हो गयी। मेरे कानों में हल्की आवाज आई। बाइक रोक लो फिसलने का डर है। मैंने पीछे मुंह कर के तुमसे कहा, ‘अब भी फिसलने का डर है तुम्हे’। तुमने मुस्कुरा कर सिर पेरी पीठ पर टिका लिया। 

बाइक अपनी रफ़्तार से भागती रही। धुप्प अंधेरा सा छा गया। सड़क पानी से भर गयी। मैंने बाइक को पहली गियर में डाला और  कभी एक्सेलेटर लेते हुए कभी पैर नीचे टिकाते हुए संभाल कर चलाने लगा। तुम मुझसे  अमरबेल सी लिपटी हुयी कभी अपने गीले बालों को पीछे कर रही थी कभी अपने मुंह से पानी हटा रही थी कभी मेरे मुंह से पानी साफ़ कर रही थी। तुम्हारे गीले गेसुओं को देखकर एक ही बात जेहन में आ रहीं थी...

'बरसात का मज़ा तेरे गेसू दिखा गए,
अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए'। 

थोड़ी देर बाद बारिश मद्धिम पड़ी। सागौन के पेड़ों के पार धान के खेत दिखे। धान के पौधे पानी में डुबकी लगा कर पुलक उठे थे। सड़क से लगा  एक कच्चा रास्ता था जहां से  थोड़ी दूर पर एक छप्पर दिख रहा था। मैंने बाइक वहीँ रोकी और तुम्हारा हाथ पकड़े कच्चे रास्ते पर चल दिया। रास्ते पर घास थी इस वजह से चलने में दिक्कत नही थी। वहाँ छप्पर में एक बूढा अंगीठी पर चाय उबाल रहा था। कोयले सील गये थे पर बूढा अंगीठी फूंक  फूंक कर आग को जलाए रखने का प्रयास जारी रखे था।

बाबा  चाय कैसे पिलाए , मैंने पूछा। उसने हम दोनों को देखा और  मुस्कुराया  बोला,  'चाय  नही चाह पिलाता हूँ बैठो'। एक गीली बेंच पर हम बैठ गये। तुम अपनी चुन्नी निचोड़ने लगी। वह बूढा  तेजी से  अंगीठी में फूंक मारने में जुट गया । तुम्हारे होंठ ठंड से काँप रहे थे। मैंने कहा बाबा जल्दी। बूढ़े ने तुम्हे देखा फिर उसने चाय में कूंची हुयी अदरक डाला और छानकर तुम्हे दिया। मैंने कहा रहने दो बाबा अब हम एक ही प्याली में चाह पी  लेंगे। वह फिर मुस्कुराया। हम प्याली में चाय पीते रहे। थोड़ी गर्माहट आई। छप्पर से पानी टपक रहा था। अंगीठी के धुएं की आड़ से बूढा हमें देखे जा रहा था। हमने चाय पीने के बाद उसे पैसे देने चाहे पर उसने नही लिया। बोला तुम लोग इस चाह को याद रखना। 

पानी बंद हो गया था। शाम होने को थी बादल पतले होकर लाल होने लगे। थोड़ी देर में हमारी बाइक शहर में दाखिला ले रही थी।    

बुधवार, 24 मई 2017

ये कैसी दुनिया होती जा रही है?

ये कैसी दुनिया होती जा रही है? विकास, प्रगति, बेहतरी आदि आदि का कौन सा पैमाना बन रहा मेरी समझ में क्यों नही आता।  हर तरफ आशंका और भय  का माहौल है।  टीवी पर ऐड, क्राइम पेट्रोल, समाचार डराते हैं।  ऐड कहता है आपकी खाल अच्छी नही, आपकी चाल अच्छी नही, आपके बाल अच्छे नही हैं।  प्रत्येक विज्ञापन मर्यादा की रेखा को तोड़ता हुआ समस्या के समाधान की बात करता है जबकि प्रचार के लिए किसी भी सीमा रेखा को तोड़ना आधारभूत समस्या पैदा करता है।  हम दिन भर में हजारो विज्ञापन देखने के लिए अभिशप्त हो गये हैं।  विज्ञापन देखो खरीददारी करो।  आप खरीददारी करके खुश हो सकते हैं कि जो मौजूद है उसका उपयोग करके ? खरीददारी करने से फुर्सत नही मिलनी चाहिए! खरीददारी आपको मालिक होने का सुख प्रदान करती है! और उसका सदुपयोग क्या देता हैं? सदुपयोग वह किस चिड़िया का नाम है ? यह यूज़ एंड थ्रो का समय है।  विज्ञापन आपको हर मर्ज का गारंटीड और शर्तिया  इलाज बताते हैं लेकिन इलाज के बावजूद मर्ज वहीँ का वहीँ बना है बल्कि और आपकी दशा बुरी स्थिति में पहुंच जाती  है।   क्राइम पेट्रोल देखने के बाद किसी पर भी भरोसा करना बेमानी लगता है।  समाचार देखो तो लगता है हम समय के सबसे बुरे दौर से गुजर  रहे हैं जिसमे हिंसा बलात्कार बेईमानी के चरम तक पहुचने की होड़ लगी है।  देश, धरम, प्रेम, भक्ति, बाज़ार पर बहस चल रही है।  

लॉजिक के दौर में अनायास होना या  महसूस करना पिछडापन की श्रेणी में गिना जाने लगा है।  हर तरफ लोग चिल्ला चिल्ली कर रहे कि सतर्कता ही बचाव है।  सतर्क रहिये सतर्क रहिये।  हर तरफ कैमरे ही कैमरे।  आप निगरानी में हैं क्योंकि आपको कोई या आप खुद  नुकसान  पहुंचा सकते हैं।  हर समय अपने स्नायुतंत्रो  को ताने रहिये ढीला मत छोडिये क्योंकि कोई तो है जो आपके लिए खतरा है।  कौन है ? ये कैमरे लगाकर निश्चिंतता पैदा करने की कवायद गुटखे पर लिखी वैधानिक चेतावनी जैसी है।   जब उत्पादन हो रहा है तो क्या उसे रोका नही जा सकता? अरे इतने तनाव और डर में कैसे जिया जाए।  हर पल अपने बचाने की कवायद में लगे हैं और आखिर में जद्दोजहद कहाँ ख़तम होगी ? बीमारी या मौत ? ये कैसी जिन्दगी बनी जा रही ? ये कैसा समाज गढ़ लिया जा रहा है?

दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है?
पढ़े लिखे लोगों को थोड़ी नादानी दे मौला।

मैं इनकार करता हूँ “ मैच्योरटी” को, लॉजिक को, अनुभवों के कनस्तर को, मैं इनकार करता हूँ ऐसी व्यवस्था के दोहरेपन का जहां आदमी को मशीन और मशीन को आदमी में तब्दील किया जा रहा है।  मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरी प्रवृत्ति अनायास है।  क्या अनायास होने को आप विज्ञान की कसौटी पर मापेंगे तो फिर मैं कार्य-कारण संबंध को भी मानने से इनकार करता हूँ।  फिर तुम कहोगे कि मैं इस दुनिया के लायक नही हूँ।  हाँ यह सच है   मुझे कभी कभी यह जेल जैसी समझ में आती है।  हो सकता है मैं गलत होऊं किन्तु दुनियादारी से  अजीब सी घुटन होती है कभी कभी और इसे परे जाने का मन करता।  सब कुछ इस लॉजिक ने गंदा कर रखा है पानी हवा माहौल।  लॉजिक ने दो विश्वयुद्ध दे दिए।  इस लॉजिक के पार जो कुछ भी है वह निहायत रूहानी होगा।  नेचुरल एक्सेप्टेड होगा।  यदि ऐसा नही तो भी एक नया रास्ता होगा जिस पर चलकर देखने में कोई हर्ज नही।    


बुधवार, 3 मई 2017

तुमने मेरे यार कहा था देश नही झुकने दूंगा।

फिर शेरों की बलि दी गयी दुमकटे सियारों के आगे। 
फिर से जुगनू थूक रहा है सूरज के माथे पे आके। 

घात लगाकर वार किया है छुपे हुए मक्कारों ने। 
हाय कलेजा चीर दिया पापी बर्बर हत्यारों ने। 

कितने ज्वान परोसोगे तुम पाकिस्तानी श्वानों को। 
कितने दिन तक फूकोंगे बस निंदा के तूफानों को। 

कितने लाल हलाल हुए हृदय तुम्हारा नही कलपता। 
प्याले कितने टूट गये  सब्र तुम्हारा नही छलकता। 

तुमने मेरे यार कहा था देश नही लुटने दूंगा। 
तुमने मेरे यार कहा था देश नही झुकने दूंगा। 

देश लुटा है देश झुका है राजनीति के पापों से। 
घाटी मुक्ति मांग रही है आस्तीन के साँपों से। 

तीन साल चौदह से बीते दिल्ली में मधुमास रहा। 
कश्यप के बेटों के हिस्से एकमात्र  वनवास रहा। 

रोज रोज मरने से अच्छा एक बार मर जाने दो। 
अबकी बारी आर पार सरकार मेरे हो जाने दो। 






शनिवार, 29 अप्रैल 2017

राष्ट्रीय पत्रकारिता के नाम पर



पत्रकारिता के संदर्भ में दो शब्द अक्सर सुनने को मिलते हैं राष्ट्रीय पत्रकार और क्षेत्रीय पत्रकार, राष्ट्रीय समाचार पत्र और क्षेत्रीय समाचार पत्र, नेशनल चैनल और रीजनल चैनल।   सवाल यह उठता है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों के मापदंड क्या हैं ?  एक कच्चा पक्का जवाब आता है कि जो समाचार पत्र या समाचार चैनल पूरे देश की ख़बरें चलाये वह राष्ट्रीय है  बाकी कुछ क्षेत्र विशेष की खबर चलाने वाले क्षेत्रीय की श्रेणी में आते हैं। जब हम इस मापदंड से अखबारों और न्यूज़ चैनलों को देखते हैं तो सहज ही हमें यह पता चल जाता है कि इस किसिम का भेद महज तथाकथित बड़े घरानों के अहंकार और तथ्यों की  आधारहीनता के अलावा और कुछ भी नही है।   दिल्ली का चैनल जब दिल्ली की नगरपालिका चुनाव पर पूरे हप्ते कार्यक्रम चला सकता है और उसकी दृष्टि में तमिलनाडू  या पुदुच्चेरी के नगरपालिकाओं के चुनावों की कोई अहमियत नही होती तो इस तथ्य को सहज ही समझा जा सकता है कि राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता के पैमाने क्या हो सकते हैं।   कम से कम दूरदर्शन के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय प्रसारण को देखकर संतोष होता है कि यह भारत के विभिन्न भागों के समाचार कला संस्कृति को तवज्जो देता है वरना जितने भी निजी चैनल राष्ट्रीय होने का हवाला देते हैं सबकी राष्ट्रीयता किसी ख़ास और दिखाऊ खबर या व्यक्ति या स्थान तक सीमित रहती है।    राष्ट्रीय चैनल होने न होने पर  एक और जवाब आता कि दर्शकों और पाठको तक पहुंच के आधार पर इस बात का फैसला होना चाहिए।   इस कसौटी पर अगर हम दिल्ली से निकलने वाले एक तथाकथित क्षेत्रीय अखबार के ऑनलाइन व्यूअरशिप  को देखें तो यह दिल्ली से ज्यादा बिहार में पढ़ा जाता  है तो इसका तात्पर्य क्या निकाला जाना चाहिए ? मतलब साफ़ है।  राष्ट्रीय या क्षेत्रीय होने का ठप्पा लगाने वालों की एक जमात है जो किसी समूह को विशेष सुविधा प्रधान करने या किसी को वंचित रखने के उद्देश्य से इस किसिम की ठप्पेबाजी करते रहते हैं और जिनको परम्परा के रूप में स्वीकार भी लिया गया है।   यह स्थिति एक विभाजनकारी मानसिकता का धीरे धीरे पोषण करती है।  दिल्ली में बैठी नेशनल मीडिया मात्र राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र और उत्तर प्रदेश के प्रभुत्वशाली क्षेत्रों को ही सम्पूर्ण राष्ट्र मानकर चलती है।   ऐसे में न तो दिल्ली के नागरिक को तमिल के दुःख सुख का पता ही नही होता है और तमिल नागरिक  दिल्ली को अपनी राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखने में उदासीन बना रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि  किसी खबर या खबरनवीस को  राष्ट्रीय या क्षेत्रीयता के आधार पर मापने की बजाय  उसे निरपेक्ष ढंग  देखा समझा इसी में पत्रकारिता  की उत्तरजीविता और सशक्तता निहित है वरना अन्तराष्ट्रीय जगत में भारत की पत्रकारिता को सबसे निचले  पायदान पर ही हमेशा देखना पडेगा।  

रविवार, 9 अप्रैल 2017

हिंदुत्व : राष्ट्रीयता या धर्म (Hindutva; Nationality or Religion)


मैं धर्म को जीने के तरीके के रूप में देखता हूँ। आप जितने सरल तरीके से हिंदुत्व को समझना चाहते हैं उतने सरल रूप में समझ सकते हैं। 
परहित सरिस धरम नहि भाई। परपीड़ा सम नहि अधमाई।  
आपको जटिल पांडित्य में जाने की भी छूट है पर सनद रहे पंडित जी पिंडदान  तक पीछा नहीं छोड़ेंगे। आप ईश्वर को मानें न मानें, किसी को भी ईश्वर मान सकते हैं। खान पान, वेश भूषा, रीति रिवाज व्यक्तिगत रूप से भिन्न हो सकता है। सब कुछ यहाँ है। जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है स्मरण करता है विश्वास करता है वह उसे उसी भाव से प्राप्त होते हैं । यही कारण  है कि एक आस्थावान हिंदू बहुत ही सहजता के साथ अपने राम को गरीब नवाज कह देता है या उसे खुदा या जीसस की प्रार्थना करने या चादर चढाने अथवा मोमबत्ती जलाने में कोई हिचक नही होती जबकि अन्य आस्थावानों के लिए राम राम करना या मंदिर में प्रार्थना करना लगभग लगभग असंभव सा होता है। हिंदुत्व जीने का तरीका कैसे है उसे इस श्लोक में देखा जा सकता है 
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: । 
धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं धर्म लक्षणम् । 
अर्थात धीरज रखना,  क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ,  मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये  दस  धर्म के लक्षण हैं । हिंदुत्व जीवन दर्शन आगे कहता है कि आत्मन: सर्वभूतेषु य: पश्यति सः पंडित: जो अपने में सभी प्राणियों को देखता है वही विद्वान् है। यही आध्यात्म का आधार कथ्य भी है। हिंदुत्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह स्तरीकरण और वर्गीकरण तो करता है किन्तु उसके आधार पर किसी के सम्मान, चयन और अवसरों  में भेद भाव नही करता है। जाति  व्यवस्था के स्तरीकरण  का आधार प्रकार्य हैं न कि ऊँच  नीच। उच्चता निम्नता कभी हिंदुत्व के विमर्श नही रहे अलबत्ता कार्यों को सही से करना मापदंड अवश्य रहा है। श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि गुण के आधार पर वर्णों का निर्धारण होता है। समय के साथ प्रत्येक भौतिक और अभौतिक वस्तुओ में सही गलत चीजें जुडती जाती जिसका परिमार्जन व्यवस्था की जिम्मेदारी है। हिंदुत्व में परिमार्जन नित्य होता रहता है इसीलिये यह सनातन है नित्य नवीन है। वर्तमान समय में हिंदुत्व को लेकर कई भ्रमों का निर्माण हो गया है। हिंदू शब्द को राष्ट्रीयता का पर्याय बताया जा रहा है किसी को हिंदू शब्द धर्म के रूप में समझ में आ रहा है। यह भ्रम व्यर्थ का है। हिंदू जीवन पद्धति है जो हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है वही यह आस्था पद्धति भी है।  हमारी आस्थाएं अलग अलग हो सकती हैं किन्तु  हमारी जीवन पद्धति हमारे तरीके में राष्ट्रीय समानताएँ अवश्य हैं। हिन्दुस्तान में रहने वाले लोग हिंदू नही तो फिर क्या हैं ? हिंदू माने भारतीय । भारतीय आस्था पद्धति,  भारत के बाहर की आस्था पद्धति को भी स्वीकार करती है। लेकिन इसका ये मतलब नही कि आप अपने को भारतीय या हिंदू  मानना बंद कर दीजिये। जब न्यायपालिका  कहती है कि यतो धर्म: ततो जय तो वह कौन से धर्म की बात कर रही है ? सत्य की विजय करने की घोषणा कौन सा धर्म करता है ? धर्मो रक्षित रक्षत: की बात करने वाले  को किस धर्म के अंतर्गत रखा जा सकता है ? यह सब बातें इसलिए क्योंकि हम जीवन पद्धति और  आस्था पद्धति को लेकर कई भ्रमों को पाल रखे हैं। हिन्दुस्तान अरबी या यूरोपियन तौर तरीके से नहीं चल सकता। आपके पुरखे भारतीय है। यहीं की मिट्टी पानी से आप पले  बढे हैं यहाँ वे लोग  जिन्होंने गैर भारतीय आस्था पद्धति को अपना रखा है उनको  उतने ही संवैधानिक अधिकार मिले हैं जितना कि एक भारतीय आस्था पद्धति वाले को पर आपका  भारतीय होना  हिन्दुस्तानी तौर तरीके और हिंदुत्व के प्रति अपनी करीबी या दूरी ही तय करेगी अतः  आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर हम उन समान आधारों को खोजें जिनके आधार पर राष्ट्रीयता का निर्माण होता है।    

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान: गंगा में मिलिहें डूब कर नहइहें...अम्मा से मिलिहें त खुलकर बतिअइहें...

गंगा में मिलिहें डूब कर नहइहें...अम्मा से मिलिहें त खुलकर बतिअइहें...।
गोआ की राज्यपाल आदरणीय मृदुला सिन्हा जी मात्र राजनीतिक ही नही उनका मन मस्तिष्क में देसी बोली बानी  से ओत प्रोत है। उनके अनुसार सच में हिन्दी हमारी अम्मा और गंगा की श्रेणी में है। हिन्दी भले ही राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी पर हिन्दी साहित्य को बचाए रखना है।   हिन्दी है भारत मां की बिंदी...हिन्दी में सजती है भारत की भाषाएं...
अंग्रेजी को देश की भाषा बनाने की कोशिशें हो रही हैं। भले ही अंग्रेजी पेट की भाषा बन गयी पर ह्रदय की भाषा तो हिन्दी ही है। आईटी के दौर में हिन्दी की अहमियत बढ़ गयी है।

हिन्दी हृदय की भाषा है।साहित्यकार ऐसे साहित्य का सृजन करें जो मात्र मनोरंजन और विलासिता का माध्यम न हो बल्कि हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे जिसमें जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो। संघर्ष और गति की बातें हों ताकि हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा मिलती रहे। समाज को सिर्फ उसका आइना ही नहीं दिखाएं बल्कि आगे बढ़ने के लिए पथ-प्रदर्शन भी करें।साहित्यकारों को आम लोगों के हित और कल्याण से जुड़ाव तथा साहित्य को उत्तरदायी बनने के साथ नेतृत्व की भूमिका में भी आना होगा। जिन्हें धन और वैभव से प्यार है उनका साहित्य के मंदिर में कोई स्थान नहीं होता है। हिन्दी भाषा हमारी अस्मिता, संस्कृति और साहित्यिक मूल्यों का संवाहक है। इसके प्रति अटूट आस्था रखने से हमारे सभी दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। यह राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में सहायक है।

गंगा और अम्मा की श्रेणी में हिन्दी है।मन मस्त हुआ फिर क्या बोलें...गंगा के पास हिन्दी और लोकभाषा में बात हो तो मजा ही मजा..आम लोगों को इस बात से अवगत कराने के  संस्थाओं को स्कूल और कॉलेज के बच्चों को जागरूक करना होगा। हिन्दी के सबसे अधिक पाठक हैं पर कथा कहानी सुनाने की परंपरा अब नहीं रही। इस तरह के मंच तैयार करने होंगे जहां नई पीढ़ी सीधे किस्से-कहानी सुन सके।  पठन-पाठन और शोध -प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।


शुक्रवार, 31 मार्च 2017

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान : विभिन्न दृष्टियों ,रूपों पद्धतियों का आकलन और समन्वय: गिरीश कुमार त्रिपाठी

सामान्यत : " इतिहास " शब्द से राजनीतिक व सांस्कृतिक  इतिहास का ही बोध होता है ,किन्तु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बन्ध न हो । अत : साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है ।साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक  घटनाओं व मानवीय क्रिया -कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि  करतें हैं ।यद्यपि इतिहास के अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य का इतिहास-दर्शन एवं उसकी पद्धति भी अब भी बहुत पिछड़ी हुई है ,किन्तु फिर भी समय -समय पर इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए हैं जिनका लक्ष्य साहित्येतिहास को भी सामन्य इतिहास के स्तर पर पहुचाने का रहा है । 
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का आरम्भ उन्नीसवीं सदी से माना जाता है ।यद्यपि उन्नीसवीं सदी से पूर्व विभिन्न कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी जिनमें हिन्दी के विभिन्न कवियों के जीवन- वृत्त एवं कृतियों का परिचय दिया गया है ,जैसे -चौरासी वैश्वन की वार्ता .दो सौ बावन वैश्वन की वार्ता ,भक्त माल ,कवि माला ,आदि -आदि किन्तु ,इनमें काल -क्रम ,सन -संवत आदि का अभाव होने के कारण इन्हें इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती । वस्तुत :अब तक की जानकारी के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास -लेखन का सबसे पहला प्रयास एक फ्रेच विद्वान गासां द तासी का ही समझा जाता है जिन्होनें अपनें ग्रन्थ में हिन्दी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्ण -क्रमानुसार दिया है।इसका प्रथम भाग 1839 ई o में तथा द्वितीय 1847 ई o में प्रकाशित हुआ था। 1871 ई o में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ ,जिसमें इस ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभक्त करते हुए पर्याप्त संशोधन -परिवर्तन किया गया है । इस ग्रन्थ का महत्त्व केवल इसी द्रष्टि से है कि इसमें सर्व प्रथम हिन्दी -काब्य का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है तथा कवियों के रचना काल का भी निर्देश दिया गया है ।अन्यथा कवियों को काल -क्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम से प्रस्तुत करना ,काल -विभाजन-एवं युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन का कोई प्रयास न करना ,हिन्दी के कवियों में इतर भाषाओं के कवियों को घुला -मिला देना आदि ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके कारण इसे "इतिहास "मानने में संकोच होता है ।फिर भी ,उनके ग्रन्थ में अनेक त्रुटियों व न्यूनताओं के होते हुए भी हम उन्हें हिन्दी -साहित्येतिहास -लेखन की परम्परा में ,उसके प्रवर्तक के रूप में ,गौरव पूर्ण स्थान देना उचित समझते हैं ।
तासी की परम्परा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है ,जिन्होंनें "शिव सिंह सरोज "(1883)में लगभग एक सहस्त्र भाषा-कवियों का जीवन -चरित्र उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करनें का प्रयास किया है ।कवियों के जन्म काल ,रचना काल आदि के संकेत भी दिये गये हैं ,यह दूसरी बात है कि वे बहुत विश्वशनीय नहीं हैं ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ का भी महत्त्व अधिक नहीं हैं ,किन्तु फिर भी इसमें उस समय तक उपलब्ध हिन्दी -कविता सम्बन्धी ज्ञान को संकलित कर दिया गया है ,जिससे परवर्ती इतिहासकार लाभ उठा सकते हैं -इसी दृष्टि  से इसका महत्त्व है ।
सन 1888 में ऐशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जार्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित ' द मॉडर्न  वर्नाकुलर ऑफ़ हिंदुस्तान ' का प्रकाशन हुआ ,जो नाम से इतिहास न होते हुए भी सच्चे अर्थों में हिन्दी -साहित्य का पहला इतिहास कहा जा सकता है ।इस ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रियर्सन नें हिन्दी -साहित्य का भाषा की द्रष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए स्पष्ट किया है कि इसमें न तो संस्कृत -प्राक्रत को शामिल किया जा सकता है और न ही अरबी -फारसी -मिश्रित उर्दू को ।ग्रन्थ को काल खण्डों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्येक अध्याय काल विशेष का सूचक है।प्रत्येक काल के गौड़ कवियों का अध्याय विशेष के अंन्त में उल्लेख किया गया है।विभिन्न युगों की काब्य प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे सम्बधित सांस्कृतिक परिस्थतियों और प्रेरणा -स्रोतों के भी उद्दघाटन का प्रयास उनके द्वारा हुआ है ।

मिश्र बन्धुओं द्वारा रचित 'मिश्र बन्धु 'चार भागों में विभक्त है ,जिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई o में प्रकाशित हुआ।इसे (ग्रन्थ को )परिपूर्ण एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए उन्होंनें इसमें लगभग पाँच हजार कवियों को स्थान दिया है तथा ग्रन्थ को आठ से भी अधिक काल खण्डों में विभक्त किया है ।इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ -साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।आधुनिक समीक्षा- द्रष्टि से यह ग्रन्थ भले ही बहुत सन्तोष जनक न हो ,किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इतिहास लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाने में इसका महत्त्व पूर्ण योगदान है | 
हिन्दी साहित्येतिहास की परम्परा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास '(1929)को प्राप्त है ,जो मूलत :नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिन्दी शब्द सागर 'की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्धित एवं विस्तृत करके स्वतन्त्र पुस्तक का रूप दिया गया\ इस ग्रन्थ में आचार्य शुक्ल नें साहित्येतिहास के प्रति एक निश्चित व सुस्पष्ट द्रष्टिकोण का परिचय देते हुये युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य के विकास क्रम के व्यवस्था करनें का प्रयास किया इस द्रष्टि से कहा जा सकता है कि उन्होंनें साहित्येतिहास को विकासवाद और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का परिचय दिया।साथ ही उन्होंनें इतिहास के मूल विषय को आरम्भ करनें से पूर्व ही काल -विभाग के अन्तर्गत हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार  सुस्पष्ट काल -खण्डों में विभक्त करके अपनी योजना को एक ऐसे निश्चित रूप में प्रस्तुत कर दिया कि जिसमें पाठक के मन में शँका और सन्देह के लिये कोई स्थान नही रह जाता । यह दूसरी बात है कि नवोपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षों के अनुसार अब यह काल विभाजन त्रुटि पूर्ण सिद्ध हो गया है ,किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अपनी अति सरलता व स्पष्टता के कारण यह आज भी बहुप्रचलित और बहुमान्य है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि हिन्दी -साहित्य -लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनका इतिहास ही कदाचित अपने विषय का पहला ग्रन्थ है जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म एवम व्यापक द्रष्टि ,विकसित द्रष्टिकोण ,स्पष्ट विवेचन -विश्लेषण  प्रामाणिक निष्कर्षों का सन्निवेश मिलता है। इतिहास लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का महत्व सदा अक्षुण रहेगा ,इसमें कोई सन्देह नहीं।
आचार्य शुक्ल के इतिहास -लेखन के लगभग एक दशाब्दी के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए। उनकी 'हिन्दीसाहित्य की भूमिका ' क्रम और पद्धति की दृष्टि  इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है ,किन्तु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतन्त्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिन्दी -साहित्य के इतिहास -लेखन के लिये नयी द्रष्टि ,नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं\ जहाँ आचार्य शुक्ल की ऐतिहासिक दृष्टि  की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती है ,वहाँ आचार्य द्विवेदी नें परम्परा का महत्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खण्डित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी द्रष्टिकोण पर आधारित थीं ।'हिन्दी साहित्य की भूमिका के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास -सम्बन्धी कुछ और रचनायें भी प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य उद्दभव और विकास ,हिन्दी साहित्य का आदि काल आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की -विशेषत : मध्य कालीन काब्य के स्रोतों व पूर्व -परम्पराओं के अनुसन्धान तथा उनकी अधिक सहानुभूतिपूर्ण व यथा तथ्य व्याख्या करने की द्रष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है।
आचार्य द्विवेदी के ही साथ -साथ इस क्षेत्र में अवतरित होने वाले एक अन्य विद्वान डा o राम कुमार वर्मा हैं ,जिनका 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ' सन 1938 में प्रकाशित हुआ था।इसमें 693 ई o से 1693 ई o तक की कालाविधि को ही लिया गया है।सम्पूर्ण ग्रन्थ को सात प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यत : आचार्य शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया गया है।डा वर्मा ने स्वयम्भू को ,जो कि अपभ्रंश के सबसे पहले कवि हैं ,हिन्दी का प्रथम कवि माना है और यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी -साहित्य का आरम्भ 693 ई o से स्वीकार किया है ।ऐतिहासिक व्याख्या की द्रष्टि से यह इतिहास आचार्य शुक्ल के गुण -दोषों का ही विस्तार है ,कवियों के मूल्याँकन में अवश्य लेखक नें अधिक सह्रदयता और कलात्मकता का परिचय दिया है ।अनेक कवियों के काव्य-सौन्दर्य का आख्यान करते समय लेखक की लेखनी काव्यमय हो उठी है ,जो कि डा o वर्मा के कवि -पक्ष का संकेत देती है।शैली की इसी सरसता व प्रवाहपूर्णता के कारण उनका इतिहास पर्याप्त लोकप्रिय हुआ है।

विभिन्न विद्वानों के सामूहिक सहयोग के आधार पर लिखित इतिहास -ग्रन्थों में 'हिन्दी -साहित्य 'भी उल्लेखनीय है ,जिसका सम्पादन डा o धीरेन्द्र वर्मा ने किया है।इसमें सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को तीन कालों -आदि काल ,मध्य काल ,एवं आधुनिक काल -में विभक्त करते हुए प्रत्येक काल की काब्य -परम्पराओं का विवरण अविछिन्न रूप से प्रस्तुत किया गया है। कुछ दोषों के कारण इस ग्रन्थ की एक रूपता ,अन्विति एव संश्लेषण का अभाव परिलक्षित होता है ,फिर भी ,हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा में इसका विशिष्ट स्थान है।
उपर्युक्त इतिहास -ग्रंथों के अतिरिक्त भी अनेक -शोध प्रबन्ध और समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखे गए हैं जो हिन्दी साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास को तो नहीं ,किन्तु उसके किसी एक पक्ष ,अंग या काल को नूतन ऐतिहासिक द्रष्टि और नयी वस्तु प्रदान करते हैं ।ऐसे शोध- प्रबन्ध या ग्रन्थ हैं -डा o भगीरथ मिश्र का हिन्दी काव्य शास्त्र का इतिहास ,डा o नगेन्द्र की रीतिकाव्य की भूमिका ,श्री विश्व नाथ प्रसाद मिश्र का हिन्दी साहित्य का अतीत ,डा o टीकम सिंह का हिन्दी वीर काव्य ,डा o लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय का आधुनिक काल सम्बन्धी शोध प्रबन्ध आदि ऐसे शताधिक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं जिनके द्वारा हिन्दी साहित्य के विभिन्न काल खण्डों ,काव्य रूपों ,काव्य धाराओं ,उपभाषाओं के साहित्य आदि पर प्रकाश पड़ता है ।अत :आवश्यकता इस बात की है कि इन शोध -प्रबन्धों में उपलब्ध नूतन निष्कर्षों के आधार पर अद्यतन सामग्री का उपयोग करते हुए नए सिरे से हिन्दी -साहित्य का इतिहास लिखा जाये । ऐसा करने के लिए आचार्य शुक्ल द्वारा स्थापित ढाँचे में आमूल -चूल परिवर्तन करना पड़ेगा क्योंकि वह उस सामग्री पर आधारित है जो आज से पैसठ सत्तर वर्ष पूर्व उपलब्ध थी ,जबकि इस बीच बहुत सी नयी सामग्री प्रकाश में आ गयी है ।
इस प्रकार गासां द तासी से लेकर अब तक की परम्परा के संक्षिप्त सर्वक्षण से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी तक की ही अवधि में हिन्दी -साहित्य का इतिहास लेखन ,अनेक दृष्टियों ,रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर पाया है। इतना ही नहीं कि हमारे लेखकों नें विश्व -इतिहास -दर्शन के बहुमान्य सिद्धान्तों और प्रयोगों को अंगीकृत किया है ,अपितु उन्होंने ऐसे नए सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये हैं जिनका सम्यक मूल्याँकन होने पर अन्य भाषाओं के इतिहासकार भी उनका अनुसरण कर सकते हैं ।

गुरुवार, 30 मार्च 2017

मेरे जिक्र का जुबां पे सुआद रखना: टुंडे कवाब नही यह कनपुरिया चटखारा है



'मेरे जिक्र  का जुबां पे सुआद रखना ' गाना बजते ही बुद्धू बक्सा टुंडे कवाब की कहानी बताने लगा मैंने टीवी बन्द कर अमरीक सिंह दीप की कड़े पानी का शहर उठा लिया।बकौल अमरीक सिंह दीप आप हिंदुस्तान की कितनी ही जगहों की मिठाई और चाट खाए  हो लेकिन  जो मजा कानपुर की  मिठाइयो और चाट  को चाटकर खाने में है वह ना तो बंबई में मिल सकती  ना दिल्ली में | खाना खजाना का संजीव कपूर जब भी कानपुर आते है तो उनका ठेका ठग्गू के लड्डू पर ही होता है | बुद्धसेन स्वीट  हाउस से संदेश , खोया, मंदी में हाथरस वाले की इमरतिया किसी श्रृगार रस की कविता की ही भांति रसीली हैआर्यनगर के घोष के रसगुल्लों का कहना ही क्यामिठाइयो   में कानपुर का टक्कर सिर्फ बनारस ही ले पाता  है भीखाराम महावीर प्रसाद और बिराहना रोड के अर्जुन सिंह  की कचौड़ियाँ १६ दोनों में तरह तरह की सब्जियों चटनियों और रायते के साथ जब सामने होती है ... आह क्या कहने..

कानपुर में जलेबी सुबह हर हलवाई बनाता है जैसे मन्दिर में सुबह पुजारे भगवान् का पूजन करता है वैसे दही जलेबी का कलेवा करना यहाँ नाश्ते में  शुमार  है |कानपुर में गरीब और मध्यम वर्ग के लोग अधिक रहते है लेकिन यह शहर किसी को भूखा नहीं सोने देता |

यहाँ के कारीगर गरीब हैं इसलिए भूख का दर्द जानते है | इसलिए कम से कम कीमत पर अपना उत्कृष्ट सामान उत्पादित कराते है नयागंजा चौराहे के कुछ दूर खडा होने वाला शंकर पानी के बताशे वाला अब भी दो रुपये में पानी के चार बताशे देता है लेकिन उसका बताशों का पानी अद्भुत होता है | जलतरंग की प्यालियों से सजे बताशों के पानी के मर्तबान | उनमें घुला सोंठ , जीरा , हींग पुदीना , खटाई और जाने क्या क्या | खाने वाला एक बार खाना शुरू करता है तो गिनती भूल जाता है | क्या खाक  मुबंई की पानी पूरी मुकाबला करेगी इनका। 
पिछले बीस बरसों से कानपुर में सर्दियों में झाग  वाला मक्खन खूब बिकता है मिट्टी की प्यालियों में हलके केसरी रंग के मक्खन की झाग    खाना ज़रा मुश्किल  काम है पर यह झागदार  मक्खन इतना स्वादिष्ट होता है कि एक प्याली से मन नहीं भरताऐसे  झागदार मक्खन के मुख्य बाजार बीराहाना रोड और नयागंज है |
कानपुर की चाट के लिए स्वाद के विकास में यहाँ के मेस्टन रोड से लेकर बिरहाना रोड तक फैले थोक के व्यापार के आढ़तियो का बड़ा हाथ है | टी टेस्टर की तरह ही ये सब चाट के स्वाद के मर्मज्ञ है | चाट में मसली का अनुपात ज़रा भी गड़बड़ाते   ही ये टोक देते है - गुरु आज तुम्हारा जीरा ठीक से भुना नहीं है | कानपुर में चाट की सबसे बड़ी दुकान पी. रोड पर हरसहाय जगदम्बा सहाय स्कूल के पास हैहनुमान  चाट भण्डार.  यहाँ चाट खाने के लिय खासे धैर्य की जरूरत है | धनिये वाले आलो, नवीन मार्केट में बिरहना रोड पर उम्दा मिलते हिया रिजर्व बैंक के सामने मुन्ना चाट भंडार , नवीन मार्केट में भोला चाट भण्डार  हटिया का गिरिजा चाट भण्डार  किदवई नगर का शुक्ला चाट भण्डार  लाजपत  नगर का लल्ला चाट भंडार पांडू नगर का लूटू चाट भंडार कानपुर के मशहूर चाट भंडार है |
पाठको मुह में पानी रहा होगा ना
तो देर किस बात कि
अरे कुछ दिन तो गुजारिये कानपुर में
और  कनपुरिये चटखारे क़ा फुलटाइम लुत्फ़ लीजिये