ये कैसी दुनिया होती जा रही है? विकास, प्रगति, बेहतरी आदि आदि का कौन सा पैमाना
बन रहा मेरी समझ में क्यों नही आता। हर
तरफ आशंका और भय का माहौल है। टीवी पर ऐड, क्राइम पेट्रोल, समाचार डराते हैं। ऐड कहता है आपकी खाल अच्छी नही, आपकी चाल अच्छी नही, आपके बाल अच्छे नही हैं। प्रत्येक विज्ञापन मर्यादा की रेखा को तोड़ता हुआ
समस्या के समाधान की बात करता है जबकि प्रचार के लिए किसी भी सीमा रेखा को तोड़ना
आधारभूत समस्या पैदा करता है। हम दिन भर
में हजारो विज्ञापन देखने के लिए अभिशप्त हो गये हैं। विज्ञापन देखो खरीददारी करो। आप खरीददारी करके खुश हो सकते हैं कि जो मौजूद
है उसका उपयोग करके ? खरीददारी करने से फुर्सत नही मिलनी चाहिए! खरीददारी आपको
मालिक होने का सुख प्रदान करती है! और उसका सदुपयोग क्या देता हैं? सदुपयोग वह किस
चिड़िया का नाम है ? यह यूज़ एंड थ्रो का समय है। विज्ञापन आपको हर मर्ज का गारंटीड और
शर्तिया इलाज बताते हैं लेकिन इलाज के
बावजूद मर्ज वहीँ का वहीँ बना है बल्कि और आपकी दशा बुरी स्थिति में पहुंच
जाती है। क्राइम
पेट्रोल देखने के बाद किसी पर भी भरोसा करना बेमानी लगता है। समाचार देखो तो लगता है हम समय के सबसे बुरे दौर
से गुजर रहे हैं जिसमे हिंसा बलात्कार
बेईमानी के चरम तक पहुचने की होड़ लगी है। देश, धरम, प्रेम, भक्ति, बाज़ार पर बहस चल रही है।
लॉजिक के दौर में अनायास होना या महसूस करना पिछडापन की श्रेणी में गिना जाने
लगा है। हर तरफ लोग चिल्ला चिल्ली कर रहे
कि सतर्कता ही बचाव है। सतर्क रहिये सतर्क
रहिये। हर तरफ कैमरे ही कैमरे। आप निगरानी में हैं क्योंकि आपको कोई या आप
खुद नुकसान पहुंचा सकते हैं। हर समय अपने स्नायुतंत्रो को ताने रहिये ढीला मत छोडिये क्योंकि कोई तो है
जो आपके लिए खतरा है। कौन है ? ये कैमरे
लगाकर निश्चिंतता पैदा करने की कवायद गुटखे पर लिखी वैधानिक चेतावनी जैसी है। जब उत्पादन हो रहा है तो क्या उसे रोका नही जा
सकता? अरे इतने तनाव और डर में कैसे जिया जाए। हर पल अपने बचाने की कवायद में लगे हैं और आखिर
में जद्दोजहद कहाँ ख़तम होगी ? बीमारी या मौत ? ये कैसी जिन्दगी बनी जा रही ? ये
कैसा समाज गढ़ लिया जा रहा है?
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है?
पढ़े लिखे लोगों को थोड़ी नादानी दे मौला।
मैं इनकार करता हूँ “ मैच्योरटी” को, लॉजिक को, अनुभवों के कनस्तर को,
मैं इनकार करता हूँ ऐसी व्यवस्था के दोहरेपन का जहां आदमी को मशीन और मशीन को आदमी
में तब्दील किया जा रहा है। मैं यह
स्वीकार करता हूँ कि मेरी प्रवृत्ति अनायास है। क्या अनायास होने को आप विज्ञान की कसौटी पर
मापेंगे तो फिर मैं कार्य-कारण संबंध को भी मानने से इनकार करता हूँ। फिर तुम कहोगे कि मैं इस दुनिया के लायक नही हूँ।
हाँ यह सच है मुझे
कभी कभी यह जेल जैसी समझ में आती है। हो
सकता है मैं गलत होऊं किन्तु दुनियादारी से
अजीब सी घुटन होती है कभी कभी और इसे परे जाने का मन करता। सब कुछ इस लॉजिक ने गंदा कर रखा है पानी हवा
माहौल। लॉजिक ने दो विश्वयुद्ध दे दिए। इस लॉजिक के पार जो कुछ भी है वह निहायत रूहानी
होगा। नेचुरल एक्सेप्टेड होगा। यदि ऐसा नही तो भी एक नया रास्ता होगा जिस पर
चलकर देखने में कोई हर्ज नही।
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