मैं चाहता हूँ कि
'पारले जी' कभी न बदले
वही पैकेजिंग
वही स्वाद
वही दाम
(सरकार सब्सिडी दे इसके लिए)
न उसके खाने में हो
कोई इनोवेशन
चाय में डुबा डुबा,
या चाय का हलवा बना
या पानी के साथ
यात्रा में, पिकनिक पर,
नाश्ते में, शाम को कविता सुनते
या स्टडी टेबल पर
ठीक वैसे जैसे हम बचपन में इसे खाते थे
सायकल चलाते हुए,
रेस लगाते हुए,
स्कूल पीरियड में अध्यापक की नज़र बचाकर
बिस्कुट खाने के रिस्क का आनंद
नही बदलना चाहिए
दफ़्तर से घर लौटे पिता को
चाय के साथ दो बिस्कुट देती माँ
सुकून भी परोसती है
बिना दांतों वाली दादी बताती है
बिस्कुट पिया कैसे जाता है
हॉस्टल हो या परिवार
बिना 'पारले जी' के
सम्पूर्ण कहाँ होता है
'पारले जी' कोई उत्पाद नही
यह एक संस्कृति है
थाती है विरासत है
बचपन की अल्हड़ता
कैशोर्य के उत्सव
कॉलेज की टी पार्टीज
उसी संस्कृति के ही स्वरूप हैं
मैं चाहता हूँ कि
यह थाती अनवरत बनी रहे
इस संस्कृति का, विरासत का
हस्तांतरण हो
पीढ़ी दर पीढ़ी
बिना किसी बदलाव के
क्योंकि,
कुछ चीजे कभी नही बदलनी चाहिए
जैसे धरती, हवा, पानी, और
'पारले जी'
...डॉ. पवन विजय
2 टिप्पणियां:
जय हो पारले जी।
अच्छा लिखा है पारले पुराण।
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