शनिवार, 29 अप्रैल 2017

राष्ट्रीय पत्रकारिता के नाम पर



पत्रकारिता के संदर्भ में दो शब्द अक्सर सुनने को मिलते हैं राष्ट्रीय पत्रकार और क्षेत्रीय पत्रकार, राष्ट्रीय समाचार पत्र और क्षेत्रीय समाचार पत्र, नेशनल चैनल और रीजनल चैनल।   सवाल यह उठता है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों के मापदंड क्या हैं ?  एक कच्चा पक्का जवाब आता है कि जो समाचार पत्र या समाचार चैनल पूरे देश की ख़बरें चलाये वह राष्ट्रीय है  बाकी कुछ क्षेत्र विशेष की खबर चलाने वाले क्षेत्रीय की श्रेणी में आते हैं। जब हम इस मापदंड से अखबारों और न्यूज़ चैनलों को देखते हैं तो सहज ही हमें यह पता चल जाता है कि इस किसिम का भेद महज तथाकथित बड़े घरानों के अहंकार और तथ्यों की  आधारहीनता के अलावा और कुछ भी नही है।   दिल्ली का चैनल जब दिल्ली की नगरपालिका चुनाव पर पूरे हप्ते कार्यक्रम चला सकता है और उसकी दृष्टि में तमिलनाडू  या पुदुच्चेरी के नगरपालिकाओं के चुनावों की कोई अहमियत नही होती तो इस तथ्य को सहज ही समझा जा सकता है कि राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता के पैमाने क्या हो सकते हैं।   कम से कम दूरदर्शन के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय प्रसारण को देखकर संतोष होता है कि यह भारत के विभिन्न भागों के समाचार कला संस्कृति को तवज्जो देता है वरना जितने भी निजी चैनल राष्ट्रीय होने का हवाला देते हैं सबकी राष्ट्रीयता किसी ख़ास और दिखाऊ खबर या व्यक्ति या स्थान तक सीमित रहती है।    राष्ट्रीय चैनल होने न होने पर  एक और जवाब आता कि दर्शकों और पाठको तक पहुंच के आधार पर इस बात का फैसला होना चाहिए।   इस कसौटी पर अगर हम दिल्ली से निकलने वाले एक तथाकथित क्षेत्रीय अखबार के ऑनलाइन व्यूअरशिप  को देखें तो यह दिल्ली से ज्यादा बिहार में पढ़ा जाता  है तो इसका तात्पर्य क्या निकाला जाना चाहिए ? मतलब साफ़ है।  राष्ट्रीय या क्षेत्रीय होने का ठप्पा लगाने वालों की एक जमात है जो किसी समूह को विशेष सुविधा प्रधान करने या किसी को वंचित रखने के उद्देश्य से इस किसिम की ठप्पेबाजी करते रहते हैं और जिनको परम्परा के रूप में स्वीकार भी लिया गया है।   यह स्थिति एक विभाजनकारी मानसिकता का धीरे धीरे पोषण करती है।  दिल्ली में बैठी नेशनल मीडिया मात्र राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र और उत्तर प्रदेश के प्रभुत्वशाली क्षेत्रों को ही सम्पूर्ण राष्ट्र मानकर चलती है।   ऐसे में न तो दिल्ली के नागरिक को तमिल के दुःख सुख का पता ही नही होता है और तमिल नागरिक  दिल्ली को अपनी राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखने में उदासीन बना रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि  किसी खबर या खबरनवीस को  राष्ट्रीय या क्षेत्रीयता के आधार पर मापने की बजाय  उसे निरपेक्ष ढंग  देखा समझा इसी में पत्रकारिता  की उत्तरजीविता और सशक्तता निहित है वरना अन्तराष्ट्रीय जगत में भारत की पत्रकारिता को सबसे निचले  पायदान पर ही हमेशा देखना पडेगा।  

रविवार, 9 अप्रैल 2017

हिंदुत्व : राष्ट्रीयता या धर्म (Hindutva; Nationality or Religion)


मैं धर्म को जीने के तरीके के रूप में देखता हूँ। आप जितने सरल तरीके से हिंदुत्व को समझना चाहते हैं उतने सरल रूप में समझ सकते हैं। 
परहित सरिस धरम नहि भाई। परपीड़ा सम नहि अधमाई।  
आपको जटिल पांडित्य में जाने की भी छूट है पर सनद रहे पंडित जी पिंडदान  तक पीछा नहीं छोड़ेंगे। आप ईश्वर को मानें न मानें, किसी को भी ईश्वर मान सकते हैं। खान पान, वेश भूषा, रीति रिवाज व्यक्तिगत रूप से भिन्न हो सकता है। सब कुछ यहाँ है। जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है स्मरण करता है विश्वास करता है वह उसे उसी भाव से प्राप्त होते हैं । यही कारण  है कि एक आस्थावान हिंदू बहुत ही सहजता के साथ अपने राम को गरीब नवाज कह देता है या उसे खुदा या जीसस की प्रार्थना करने या चादर चढाने अथवा मोमबत्ती जलाने में कोई हिचक नही होती जबकि अन्य आस्थावानों के लिए राम राम करना या मंदिर में प्रार्थना करना लगभग लगभग असंभव सा होता है। हिंदुत्व जीने का तरीका कैसे है उसे इस श्लोक में देखा जा सकता है 
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: । 
धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं धर्म लक्षणम् । 
अर्थात धीरज रखना,  क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ,  मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये  दस  धर्म के लक्षण हैं । हिंदुत्व जीवन दर्शन आगे कहता है कि आत्मन: सर्वभूतेषु य: पश्यति सः पंडित: जो अपने में सभी प्राणियों को देखता है वही विद्वान् है। यही आध्यात्म का आधार कथ्य भी है। हिंदुत्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह स्तरीकरण और वर्गीकरण तो करता है किन्तु उसके आधार पर किसी के सम्मान, चयन और अवसरों  में भेद भाव नही करता है। जाति  व्यवस्था के स्तरीकरण  का आधार प्रकार्य हैं न कि ऊँच  नीच। उच्चता निम्नता कभी हिंदुत्व के विमर्श नही रहे अलबत्ता कार्यों को सही से करना मापदंड अवश्य रहा है। श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि गुण के आधार पर वर्णों का निर्धारण होता है। समय के साथ प्रत्येक भौतिक और अभौतिक वस्तुओ में सही गलत चीजें जुडती जाती जिसका परिमार्जन व्यवस्था की जिम्मेदारी है। हिंदुत्व में परिमार्जन नित्य होता रहता है इसीलिये यह सनातन है नित्य नवीन है। वर्तमान समय में हिंदुत्व को लेकर कई भ्रमों का निर्माण हो गया है। हिंदू शब्द को राष्ट्रीयता का पर्याय बताया जा रहा है किसी को हिंदू शब्द धर्म के रूप में समझ में आ रहा है। यह भ्रम व्यर्थ का है। हिंदू जीवन पद्धति है जो हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है वही यह आस्था पद्धति भी है।  हमारी आस्थाएं अलग अलग हो सकती हैं किन्तु  हमारी जीवन पद्धति हमारे तरीके में राष्ट्रीय समानताएँ अवश्य हैं। हिन्दुस्तान में रहने वाले लोग हिंदू नही तो फिर क्या हैं ? हिंदू माने भारतीय । भारतीय आस्था पद्धति,  भारत के बाहर की आस्था पद्धति को भी स्वीकार करती है। लेकिन इसका ये मतलब नही कि आप अपने को भारतीय या हिंदू  मानना बंद कर दीजिये। जब न्यायपालिका  कहती है कि यतो धर्म: ततो जय तो वह कौन से धर्म की बात कर रही है ? सत्य की विजय करने की घोषणा कौन सा धर्म करता है ? धर्मो रक्षित रक्षत: की बात करने वाले  को किस धर्म के अंतर्गत रखा जा सकता है ? यह सब बातें इसलिए क्योंकि हम जीवन पद्धति और  आस्था पद्धति को लेकर कई भ्रमों को पाल रखे हैं। हिन्दुस्तान अरबी या यूरोपियन तौर तरीके से नहीं चल सकता। आपके पुरखे भारतीय है। यहीं की मिट्टी पानी से आप पले  बढे हैं यहाँ वे लोग  जिन्होंने गैर भारतीय आस्था पद्धति को अपना रखा है उनको  उतने ही संवैधानिक अधिकार मिले हैं जितना कि एक भारतीय आस्था पद्धति वाले को पर आपका  भारतीय होना  हिन्दुस्तानी तौर तरीके और हिंदुत्व के प्रति अपनी करीबी या दूरी ही तय करेगी अतः  आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर हम उन समान आधारों को खोजें जिनके आधार पर राष्ट्रीयता का निर्माण होता है।    

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान: गंगा में मिलिहें डूब कर नहइहें...अम्मा से मिलिहें त खुलकर बतिअइहें...

गंगा में मिलिहें डूब कर नहइहें...अम्मा से मिलिहें त खुलकर बतिअइहें...।
गोआ की राज्यपाल आदरणीय मृदुला सिन्हा जी मात्र राजनीतिक ही नही उनका मन मस्तिष्क में देसी बोली बानी  से ओत प्रोत है। उनके अनुसार सच में हिन्दी हमारी अम्मा और गंगा की श्रेणी में है। हिन्दी भले ही राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी पर हिन्दी साहित्य को बचाए रखना है।   हिन्दी है भारत मां की बिंदी...हिन्दी में सजती है भारत की भाषाएं...
अंग्रेजी को देश की भाषा बनाने की कोशिशें हो रही हैं। भले ही अंग्रेजी पेट की भाषा बन गयी पर ह्रदय की भाषा तो हिन्दी ही है। आईटी के दौर में हिन्दी की अहमियत बढ़ गयी है।

हिन्दी हृदय की भाषा है।साहित्यकार ऐसे साहित्य का सृजन करें जो मात्र मनोरंजन और विलासिता का माध्यम न हो बल्कि हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे जिसमें जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो। संघर्ष और गति की बातें हों ताकि हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा मिलती रहे। समाज को सिर्फ उसका आइना ही नहीं दिखाएं बल्कि आगे बढ़ने के लिए पथ-प्रदर्शन भी करें।साहित्यकारों को आम लोगों के हित और कल्याण से जुड़ाव तथा साहित्य को उत्तरदायी बनने के साथ नेतृत्व की भूमिका में भी आना होगा। जिन्हें धन और वैभव से प्यार है उनका साहित्य के मंदिर में कोई स्थान नहीं होता है। हिन्दी भाषा हमारी अस्मिता, संस्कृति और साहित्यिक मूल्यों का संवाहक है। इसके प्रति अटूट आस्था रखने से हमारे सभी दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। यह राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में सहायक है।

गंगा और अम्मा की श्रेणी में हिन्दी है।मन मस्त हुआ फिर क्या बोलें...गंगा के पास हिन्दी और लोकभाषा में बात हो तो मजा ही मजा..आम लोगों को इस बात से अवगत कराने के  संस्थाओं को स्कूल और कॉलेज के बच्चों को जागरूक करना होगा। हिन्दी के सबसे अधिक पाठक हैं पर कथा कहानी सुनाने की परंपरा अब नहीं रही। इस तरह के मंच तैयार करने होंगे जहां नई पीढ़ी सीधे किस्से-कहानी सुन सके।  पठन-पाठन और शोध -प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।