शैक्षिक गुणवत्ता बनाम निजी
भागेदारी।
तमिलनाडु के एक चिकित्सा
महाविद्यालय की फीस २ करोड़ होने की खबर से नयी शिक्षा नीति निर्माताओं को सबक लेनी चाहिए। शिक्षा को धंधेबाजों के
हाथों में देने से शिक्षा का भला
नही होने वाला। सरकार को चाहिए कि शैक्षणिक संस्थान
खोलने वाले के चाल चलन से लेकर योग्यता, क्षमता, नीयत की ठोक बजाकर परख करे। किसी न किसी
किसिम की परीक्षा रखे फिर उन्हें अनुमति दे। कॉर्पोरेट घराने शिक्षा के हितैषी नही है इनको केवल पैसा पैदा करना
है।
पिछले एक दशक से तकनीकी
शिक्षा की गुणवत्ता और फैलाव के नाम पर जो
इंजीनियरिंग
कॉलेजों को कुकुरमुत्तों के माफिक खोला गया था उनमे तकरीबन पौने दो लाख सीटें खाली पड़ी हैं। कहाँ गयी शिक्षा और इसके
पैरोकार ? वे सब के सब दलालों की कदमबोसी करते दिख रहे कि एडमिशन करवा दो। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार लगभग ९० प्रतिशत उत्तीर्ण छात्र रोजगार के लायक नही। पूरा का पूरा सिस्टम भरभरा रहा है। एक बार में १० लाख का निवेश करने वाले माँ बाप बच्चे की १० हजार की नौकरी के लिए १० लाख की रिश्वत देने को अभिशप्त हैं। निजी शिक्षण संस्थानों और सी बी इस ई का एक और खेला है। जो टापर छात्र होते हैं वे अक्सर सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में जगह पाने को व्याकुल रहते और पा भी जाते । औसत बच्चा मोटी
केपिटैशन फीस देने को और निजी कॉलेज
में एडमिशन को बाध्य हो जाता है ।
कहीं पढ़ा था कि आठवें दशक
के अवसान तक गांवों-कस्बों से कनस्तर में
उदरपूर्ति और कंधे पर
बिस्तरबंद में ओढ़ने-बिछाने का सामान लेकर घर से निकलते थे और उन्ही छात्रों को ही जिस सरकारी शिक्षा ने वैज्ञानिक, डाक्टर और इंजीनियर आर्थिक लाचारियों के बावजूद गढ़े थे, वहीं शिक्षा जब निजी संस्थानों के हवाले कर
दी गर्इ तो डाक्टर, इंजीनियर बनने के लिए प्रतिस्पर्धा योग्यता की बजाए, पच्चीस-पचास लाख रूपये
धनराशि की अनिवार्य शर्त हो गर्इ। राजनेताओं और
नौकरशाहों ने भूमफियाओं शराब माफियाओं और चिट फण्ड कंपनियों के साथ मिलकर केंद्रीय विश्वविद्यालय और चिकित्सा, इंजीनियंरिंग व प्रबंधन के महाविद्यालय तक खोल उच्च शिक्षा को चौपट
करने का काम कर दिया। क्या ऐसी
मानसिकता वाले शिक्षा संचालक शिक्षा में गुणवत्ता लाने का काम कर
सकते हैं ? उन्होंने तो पैसे से डिग्री
बेचने का गोरखधंधा उच्च शिक्षा को
मान लिया है। यही मुख्य वजह है कि आज शत-प्रतिशत शिक्षा ज्ञानोन्मुखी होने की बजाए केवल कंपनियां में नौकरी पाकर अर्थोन्मुखी होकर रह गर्इ
है। जो वास्तव में नवाचारी प्रतिभांए हैं, वे तो अर्थाभाव के चलते उच्च शिक्षा से पूरी तरह वंचित ही हो गर्इ ? ऐसे विश्वविद्यालयों से हम कैसे
उम्मीद कर सकते हैं कि दुनिया के दो सौ शीर्शस्थ विवि की कतार में
शामिल हो जांए। वे तो पैसा कमाने की होड़ में शामिल हैं। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था "विदक्षता" के दुष्चक्र में फंस गयी है। शैक्षिक प्रसार के नाम पर पूरी व्यवस्था
को निजी संस्थाओं के हवाले किया जा
रहा है। ऐसे में शैक्षिक गुणवत्ता का स्थान मुनाफे
ने ले लिया है। येन केन प्रकरेण मुनाफा प्राप्त करना ही संस्थाओं का अंतिम उद्देश्य बन चुका है। कोई भी शराब बनाने वाला, मिठाई बनाने वाला,कबाड़ व्यापारी, माफिया, नेता, अपराधी देश हित या
समाज हित को आड़ बनाकर पैसे के जोर से शिक्षाविद
बन जाते है और महज पैसा बनाने के लिए स्कूल कॉलेज या यूनिवर्सिटी
खोल लेते है। लग्जरियस इंफ्रास्ट्रक्चर, फर्जी आंकड़े, फर्जी सूचनाओं एवं दलालो के सहारे कालाबाजारी कर "इन्टेक" पूरा करते है। इस प्रक्रिया
में दूर दराज के छात्रों को बहला फुसलाकर
उन्हें सुनहरे सपने दिखा कर उन्हें संस्थाओं में एजेंट को मोटी रकम देकर एडमिट किया जाता है . फिर उनकी
पढ़ाई लिखाई के लिए अकुशल शिक्षक (
हालांकि कागजी आंकड़ों में ये संस्थान हाई क्वालिफाइड टीचर्स दिखाते है जो अधिकतर उस संस्थान के निरीक्षण के
समय भौमिक सत्यापन हेतु मौजूद
रहते है और निश्चित रकम लेते है) रखे जाते है।ये अकुशल शिक्षक या तो "
फ्रेशर" होते है अल्प जानकारी रखने वाले या कम वेतन पर काम करने को "विवश" लोग। मजे की बात तो यह है कि
निजी संस्थाओं में हाई डिग्री होल्डर के
ऊपर हमेशा निकले जाने की तलवार लटकती रहती है क्योंकि संस्थान के मालिक को मनोवैज्ञानिक भय होता है की हाई
प्रोफाइल टीचर उसके कंट्रोल में नही
आएगा और अधिक वेतन की मांग करेगा। इसलिए ये लोग
साक्षात्कार के दौरान ही हाई क्वालिफाइड कैंडिडेट को पहले से बाहर कर देते हैं। इस प्रकार एक अकुशलता का चक्र बनता है। अकुशल शिक्षक
के अध्यापन से जो छात्र तैयार
होंगे वो भी गुणवत्ता विहीन होंगे और जब ये क्षेत्र
में काम करने जाएंगे चाहे वह उत्पादन हो या सेवा क्षेत्र वहाँ भी गुणवत्ता मानको से नीचे ही
रहेगी। परिणाम यह होगा कि इनके द्वारा
निर्मित उत्पाद या दी गई
सेवा राष्ट्रीय/ अंतराष्ट्रीय मानको पर खरी नही उतरेगी और प्रतिद्वंदिता में कही पीछे छूट जाएगी। इसका असर
अर्थव्यवस्था पर पडेगा और अर्थव्यवस्था
दबाव में आ जाएगी। पुनश्च बड़े पैमाने पर छंटनी की प्रक्रिया में ये अकुशल लोग भारी मात्र में निकाले जाते है जो एक्सपीरियंस के आधार पर किसी न किसी निजी शैक्षणिक संस्था में
फिर पढ़ाने का कार्य करने लगते है वो भी कम वेतन पर। इस प्रक्रिया में अच्छे
शिक्षको को नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। यह ठीक उसी तरह से है कि ब्लैक मनी
वाइट मनी को चलन से बाहर कर देता है।
यहाँ एक
बात और गौर करने लायक है कि इन संस्थाओं में कार्यरत शिक्षक एवं संस्था प्रमुख के बीच सामंत और दास जैसा रिश्ता होता है शिक्षक
चाहे कितना भी प्रशिक्षित और योग्य हो संस्था प्रमुख हमेशा उसे हिकारत से देखता है कई बार उसे उसकी हैसियत याद करवाता है। सारा का सारा
खेल मुनाफे का है कुल मिलाकर चाटुकारिता भ्रष्टाचार के सहारे पूंजीपतियों
ने शिक्षा व्यवस्था को अत्यंत दूषित एवं भ्रष्ट कर दिया है जो
पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और बिगड़ी
अर्थव्यवस्था का मूल कारण है।
कश्मीर
से लेकर कन्याकुमारी तक भारत के राज्य के हर गाँव,
कस्बों
पहाड़ी इलाका आदिवासी,इलाका, पिछडा इलाका, जहां शिक्षा की समुचित
व्यवस्था न हो, जहां बिजली की व्यवस्था न हो, जहां के बच्चे लालटेन के
नीचे पढते हों या लालटेन भी नसीब न हो, उनकी शिक्षा और भारत की राजधानी के कान्वेंट में पढने वाले बच्चे की शिक्षा समान हो। कपडे बदल दीजिये इमारते बदल दीजिये लेकिन किताबें मत बदलिए यह समान शिक्षा पूरे भारत में लागू हो । बिना समान शिक्षा के लोकतंत्र मत्स्यतंत्र के समान है। सरकार का शिक्षा पर नियन्त्रण शैक्षिक सुधारों की दिशा में पहला कदम होगा ।
डॉ पवन विजय (आई पी
विश्वविद्यालय से जुड़े कॉलेज में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर)
09540256597
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