मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

इकतीस दिसम्बर की भीगती शाम















इकतीस दिसम्बर की 

भीगती शाम, 
बारिश से धुली हवायें 
और उनमे घुलती बर्फ 
ज़िस्म में उतर जाती है। 
++++++
नि:शब्द सर्द मौसम
बीते दिनों की कहानी
फिर कह जाता है
कुहासे की खिड़की से
एक ख़त फेंक जाता है।
++++++

जिसमें लिखा है
"तुम कैसे हो"
कुछ बूंदे भी पड़ी है
वहीं दस्तखत के साथ

इकतीस दिसम्बर की 
भीगती शाम। 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

जब से बिजुली गयी गांव से सतयुग लौटा है

जब से बिजुली ली गयी गांव से 
समाजवाद लौटा है 
+++++++
टेपरिकाट के आगे.… 
मंगरू मिसिर करीवा चस्मा 
लाल रुमाल जैक्सनवा झटका 
(अब)
मुरई मरचा लगावत है 
मनै मन फगुवा गावत है 
+++++++
टीवी के आगे …
छोटकी काकी पिच्चर देखें
बिसरती से इसनो पौडर लेंवें
(अब)
जोन्हरी के चिरई उड़ावत है
मनै मन कका के गरियावत है
++++++++
किरकेट के आगे.…
जवनके तब पगलाय रहे
मैचवै में अंखिया गड़ाय रहे
(अब)
बाजा में कृषि जगत आवत है
गया भाय लोकगीत गावत है
+++++++++
चूल्हा बरा दुआरे पे
लकड़ी आवे पछवारे से
सुक्खू सोभा जोखू झूरी
घुरहू झुम्मू गाढ़ा सुग्गी
ऊदल पंडा छंगू बोलै
जउ जाई बिजुरिया ठेंगे से
टूट खंभवा ठेंगे से
सरकारी तार सरकारी खाद
लापटपवा टबलेटवा ठेंगे से
सरकारी पईसवा(पिनसिन औ भत्ता) ठेंगे से
++++++++++
बोल बहादुर जै चउरा मईया
जै जै भंईसी जै जै गईया
आपन गाऊं गिराऊ के जै हो
खेत अऊर खरिहान के जै हो
जोगीबीर से बडका गाटा
पीपल पोखर पनघट तलिया
मेंड़ मड़ईया कोलिया ठीहा
दीया बाती लिट्टी चोखा
रस माठा औ' लपसी ठोकवा
कजरी फगुआ चइता बिरहा
पायल छागल पियरी कजरा
आल्हा कीर्तन बन्नी बन्ना
चिल्होर पाती ओक्का बोक्का
मूसर ओखरी चक्की जांता
+++++++++++
नखलऊ डिल्लिया मुर्दाबाद
आपन जांगर जिंदाबाद
डीजल फीजल गै भट्ठा मा
तारा इनारा जिंदाबाद
लोनिया टेक्टर भाड़ में झोंको
हीरा मोती जिंदाबाद
++++++++++++
जै बोल महाबीर बाबा
जै बोल महाबीर बाबा
+++++++++++
जब से बिजुली गयी गांव से
समाजवाद लौटा है

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

"इस्सर बईठ दलिद्दर भागे "

आज के दिन का हमें बहुत इन्तजार रहता था।  जब भी ऊख के खेतों की ओर जाते तो  रसीले गन्ने देख कर उसे तोड़ने की  इच्छा करती किन्तु बाबूजी की हिदायत कि एकादशी से पहले उख तोडना पाप है, याद कर मन मसोस कर रह जाते।  आज के दिन गन्ने को सजाया जाता था और उनके बीच वैदिक रीति से विवाह कराया जाता।  फिर कुछ गन्नो को घर लाकर  उसके रस से ग्राम देवी "चउरा माई" का भोग लगाया जाता था। तत्पश्चात पटीदारों भाई  भैवादों  के साथ  गन्ने का आनंद लिया जाता था।

एकादशी से एक दिन पूर्व सूप की खरीददारी की  जाती थी।  सुबह चार बजे गांव की सारी महिलाये गन्ने से सूप पीटते हुए "इस्सर बईठ दलिद्दर भागे " कहती हुयी घर से खेत तक जाती थी।  हम बच्चो के बीच एक और मिथ (आप इसे बच्चो का सत्य भी कह सकते है ) था कि जिस बच्चे के मुह में दाने या कुछ और हो गया है अगर वो गांव की सबसे बुढ़िया का सूप छीन कर भागे तो बुढ़िया जितनी गाली देगी चेहरे की सुंदरता उतनी ही बढ़ेगी।  यह काम एक बार हमारे भाई नागा ने किया था।  सुबह बात पता चल गयी तो (बच्चे तब झूठ नही बोला करते ) उनकी इतनी पिटाई हुयी कि बेचारे काले से लाल हो गये।  

आज जबकि ग्रेटर नॉएडा में ये बात मैं अपनी बेटी को बता रहा हु अजीब सी टीस मन में उठ रही है।  मन कर रहा है लपक कर गांव जाउ और सुक्खू कका के साथ ढेर सारी ऊखें काट कर लाऊ और चउरा माई को रस पिलाकर सारे गांव के साथ रस में सराबोर हो जाउ। 

मंगलवार, 25 जून 2013

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

अभी दो सूचनाये मिली 
१. 
"अभी पिछले दिनों जब मैंने फेसबुक पर एक अपडेट किया तो अनुमान नहीं था कि उसका एक खौफनाक  परिणाम सामने आ जाएगा .अविनाश वाचस्पति जी को लगा कि वह अपडेट मैंने उन पर किया है और उन्होंने अपने ब्लाग्स को हमेशा के लिए ब्लाक कर दिया और मात्र फेसबुक पर बने रहने की घोषणा कर डाली। "... डॉ अरविन्द मिश्र
२. 
"संतोष त्रिवेदी की टिप्पणी थी- फेसबुक की लत छूट चुकी है,ट्विटर पर यदा-कदा भ्रमण कर लेते हैं पर ब्लॉगिंग पर नशा तारी है ! जब तक खुमारी नहीं मिटती,लिखना और घोखना जारी रहेगा !
आज की स्थिति में ब्लॉग के प्रति आपका लगाव बरकरार है। और आपने लिखा भी -अपने आब्सेसन के चलते ब्लागिंग का दामन थामे हुए हैं मरघट में किसी का इंतजार करेंगे कयामत तक। संतोष त्रिवेदी उदीयमान ब्लॉगर से ब्लॉगिंग में अस्त से हो चुके हैं। फ़ेसबुक की लत दुबारा लगा गयी है।" ...अनूप शुक्ल  

अगर अविनाश  जी ने अगर अपने ब्लाग्स बंद कर दिए तो वाकई उन पर ठगी और बेईमानी का आरोप बनता है… क्योकि ब्लागिंग को  प्रोत्साहित करने के नाम पर जो कार्यक्रम किये गए जिन लोगो का सम्मान वगैरह किया गया था फर्जी निकला। जब खुदै का ब्लॉग ब्लाक कर दिहे तो दुसरे को ब्लॉग चलाने और प्रोत्साहित करने का अधिकार आपके पास नही। और रवीन्द्र प्रभात को चाहिये कि  संतोष जी से भी 'उदयीमान ब्लॉगर' का पुरस्कार छीन ले। अविनाश जी के इस कृत्य से लखनऊ वाले कार्यक्रम की पोल भी खुल गयी। जिनका ब्लागिंग के प्रति टुच्चा दृष्टिकोण था उन्ही को चुन चुन कर पुरस्कार सम्मान दिए गए(एकाध अपवाद को छोड़ दे).

ब्लागिंग  बड़े बड़े स्वनामधन्य  फौलादी, इस्पाती, पराक्रमी, सूरमा कितने छुई मुई और भीरु निकले। कहा हम जैसे झंडू आदमी  समझते रहे कि ये महामानव ब्लागिंग को नई दिशा देंगे मगर ये तो सद्दाम हुसैन निकले। बहरहाल मैंने पहले ही कहा था कि  कुलीन/ मठाधीश और स्वयम्भू/ब्रम्हा बनने के चक्कर मे त्रिशंकु की ही गति मिलती है। किसी के जाने से धरती घूमना बंद नही करती। ऐसे त्रिशंकुओ को कर्मनाशा मिले। 

.....काठमांडू जाने वालो सावधान हो जाओ!!!



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शुक्रवार, 3 मई 2013

ब्लागिंग के धन्धेबाज बनाम ट्रैवल एजेंट: एक विश्लेषण

आपने कभी ट्रैवल कम्पनियो का नाम सुना है? ये कम्पनिया एक निश्चित पैकेज पर आपको घूमने फिरने, होटलिंग, मौज करने का साधन मुहैया कराती है. विश्व मे कही घूमना हो इनसे सम्पर्क कीजिये और घूमिये. आजकल इन कम्पनियो से प्रेरणा प्राप्त कर साहित्य, समाजसेवी, ब्लागिंग के धन्धेबाज   लोग पैकेज बना कर 'एकेडेमिक' 'साहित्यिक' या 'सामाजिक' सरोकारो की आड लेकर पौ बारह कर रहे है. आपसे अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के नाम पर मोटी रकम वसूली जायेगी और फिर ट्रैवल एजेंटो से साठ गांठ कर के सस्ते मद्दे  मे घुम्मी करा दी जायेगी, ल्यो आप अंतर्राष्ट्रीय ठप्पा लगवा लिये.
आप भी महान होने का गुरु गम्भीर चेहरा लिये वापस आते है. फिर अपने उस 'प्रवास' का हवाला बात बात मे देने लगेंगे.वास्तव मे है क्या कि पेड कार्यक्रम और पुरस्कारो से नये लेखक या 'ईनाम' के लिये मुह बाये लोगो को लगने लगता है कि वे ही पूर्वजनम मे शेक्सपियर और कालीदास रहे होंगे. इसी चक्कर मे अपने को लुटवा कर सम्मानित लेखक का तमगा जडवा लेते है और उसे सीने से चिपकाये अईसे घूमते है जईसे कोई पगलेट कूडे  को लेके खुद से चिपकाये घूमता है और रद्दी को 'एसेट' समझता है.
लोभ लालच के चक्कर मे लोगो ने अपना बहुत नुकसान किया है और धन्धेबाजो ने इस भावना को पहचान कर इसका खूब दोहन भी किया है.ताजा मिसाल ब्लागिंग मे चल रहे 'पेड कार्यक्रमो' की है. ब्लागिंग के नये खलीफा लोग अंतराष्ट्रीय ब्लागिंग के नाम पर जो झोल तैयार कर रहे है उससे लगता है कि मुर्गे काफी फंसेगे, खास बात यह है कि ये मुर्गे अपनी खुशी से अपने को हलाल करवायेगे. तुलसी बाबा बहुत पहिले ही लिख गये थे कि जिसको दूसरे का धन हरण करने की विद्या आती है वही इक्कीसवी सदी का गुनवंत ज्ञानी होगा. तो आज उस  'परिकल्पना'  को सत्य सिद्ध होता हुआ हम देख सकते है.
बहरहाल कुलीन/ मठाधीश और स्वयम्भू/ब्रम्हा बनने के चक्कर मे त्रिशंकु की ही गति मिलती है. लोकतंत्र अपना रास्ता ढूंढ लेता है...
भगवान इन धन्धेबाजो और दलालो से ब्लागिंग साहित्य  को बचाये ऐसी कामना करता हू.


गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

रामलाल ! काठमांडु चलबे का रे?

डिस्क्लैमर: अगर ये आप अपनी बात समझ रहे तो मात्र सन्योग के अलावा कुछ नही :):):)















रामलाल! काठमांडु चलबे का रे?
काहे सामलाल? 
अरे उहाँ  इज्जत दी जायेगी सम्मान होगा. 
नाही रे! हमका लपूझन्ना समझे हौ का? हम एतना पईसा खरच करके इज्जत नाही लेबे.
अरे धुत बुडबक अबकी पईसा ना देवे के पडी.
काहे रे अबकी पईसवा कहा से आवा? 
चोप्प! एक त ससुरे के इज्जत देई जात है दूसरे कोश्चन करत बा. 
अरे रमललऊ ! सूचना के अधिकार त हमै सरकार दिहे बा. 
तोहरे जईसे डपोरसंख  गदहा केत मुहे नाही लागै चाहे अरे सरऊ जरमनी कबहू गये हो... नाही ना कहि रहे है हम तोहार नाम के गदहा सम्मान के खातिर प्रस्तावित कई दिहे हई तब्बौ तू एतना भाव खाये रहे हो. जरमनीके फीलिंग चोपचाप काठमांडु मे लेई लो... जब परसाद बांटा जाय रहा है तो दुईनो हाथ बटोरो... एहि बहाने..जादा पचर पचर किहे से का फायदा. 
भईया सामलाल फुनि ई बतावा हमे काठमांडु जायके पईसवा के दे? बडी मोस्किल से इंटरनेट के पैक भराई पाते है उहौ मेहरारू से बचाय के. 
तू सारे दुई कौडी के मनई जब मेहरारू से चोप्पे पैक भरा लेते हो तो एकाध गहना बेचि नही सकते? खेत बेंच,बाग बेंच गहना गुरिया बेंच, कुच्छौ कर पर काठमांडु चल.. ई अनतरराष्ट्रीय परोगराम हवे.
ए समललऊ! अब तू चोप होई जा नाही त देब खाई भर के, भग सारे हिया से. हम घर द्वार बेंचि के काठमांडु जाई. हमार दिमाक खराब बा का रे?  सारे निपुछिया हमके अऊर काम धाम नाही बा का?  हमका  परभात समझे हये का रे! लंगोटिया पे फाग थोरहू खेलबे... तू सरऊ भागिन जा हिया से नाही दे डंडा बोकला निकोल देब...