बहुत समय पहले शैली की एक कविता पढी थी, 'ओड टू द वेस्टर्न विंड'। भाव यह था कि स्वय को तप्त रखकर यह पवन बारिश का कारण बन जाता है। तीव्र वेग होने के कारण जमीन पर छितरे झाड झंख़ाडो को उडा ले जाता है। इसकी दिशा हमेशा पूर्व की ओर है। वह कविता मन मे बस गयी। बरसो बरस बाद मेरे द्वारा बनाया गया यह ब्लाग उसी भाव का स्फुटन है।
समाजशास्त्रीय मंच: The Socological Forum
बुधवार, 21 नवंबर 2012
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8 टिप्पणियां:
अच्छे बिम्बों के साथ सुन्दर रचना!
आस लगी वोही बूँद की ,मछुवारा अकुलाय
जल बिनु कछू न ऊबरे , बंसी का धरि खाय ..
बहुत सुन्दर रचना है ..बेहतरीन
very nice creation.
sateek bimbon ka prayog, bahut sundar , badhai
वाह ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...
आभार
तीनों विस्थापित हो गये - लगता है फ़ैक्ट्री में मज़दूरी करना ही धरती-पुत्रों की नियति बन गई है!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (30-03-2017) को
"स्वागत नवसम्वत्सर" (चर्चा अंक-2611)
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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