बुधवार, 21 नवंबर 2012

ओ रे घटवारे, ओ रे मछवारे, ओ रे महुवारे.










ओ रे घटवारे
आना नही इस घाट रे
पानी नही बस रेत रे
बिचेगी नाव सेंत मे
सुना है फिर कही
बँधी है तेरी नदी.

ओ रे मछवारे

आना नही इस ताल रे
लगे है बडे जाल रे
घास पात उतरा रहे
तेरी बंसी मे नही
अब लगेगी सहरी.

ओ रे महुवारे

आना नही इस बाग रे
रस निचुड गये सारे
महुवे के फूल से
सुना है कही लगी
मदिरा की फैक्ट्री.



8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अच्छे बिम्बों के साथ सुन्दर रचना!

ramji ने कहा…

आस लगी वोही बूँद की ,मछुवारा अकुलाय

जल बिनु कछू न ऊबरे , बंसी का धरि खाय ..

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है ..बेहतरीन

ZEAL ने कहा…

very nice creation.

Sunil Kumar ने कहा…

sateek bimbon ka prayog, bahut sundar , badhai

सदा ने कहा…

वाह ... बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...
आभार

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

तीनों विस्थापित हो गये - लगता है फ़ैक्ट्री में मज़दूरी करना ही धरती-पुत्रों की नियति बन गई है!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (30-03-2017) को

"स्वागत नवसम्वत्सर" (चर्चा अंक-2611)

पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'