रविवार, 6 जून 2010

दोगलापन

दर्शन और व्यवहार का दोगलापन ही वह सहज चीज़ है जो इस जमाने को हर गुजरे जमाने से अलग करता है. हो सकता है किसी जमाने में आदमी ज्यादा बर्बर हिंसक या आक्रामक रहा हो लेकिन यह तय है की उस पशुत्व में भी कम से कम धोखाधड़ी न थी. हो सकता है की चंगेज़ो या नादिरशाहो ने नरमुंडो के ढेर लगाए हो पर यह तय है उन्होंने मानवतावाद सह अस्तित्व प्रजातंत्र या समाजवाद के नारे नहीं ही लगाए थे. साम्प्रदायिकता प्रबल रही होगी लेकिन निश्चित ही धर्मनिरपेक्षता की ओट में नहीं रही होगी. गौर से देखा जाय कि बीसवी शताब्दी और खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध  के बाद की दुनिया छद्मवाद की दुनिया है. मानवता और प्रजातंत्र का रक्षक बेहिचक परमाणु बम  का प्रयोग करता है  जनसमर्थन से क्रान्तिया   करने वाले जनसंहार में तिल भर संकोच नहीं कर रहे है. प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाये नंगी ताकत के सहारे चल रही हैं. धर्मध्वजा लहराते हुए विजय अभियान पर निकले गिरोह अपने वास्तविक उद्देश्यों में धर्मनिरपेक्ष नहीं तो गैर धार्मिक तो है ही और उनसे कही कमतर नहीं वो धर्मनिरपेक्ष जो बिना साम्प्रदायिक टुकडो में बांटे सच्चाई को देख ही नहीं सकते. पर्यावरण को नष्ट करने वाली नयी से नयी तकनीक का प्रयोग करने वाले ही यह हैसियत  रखते है वो  पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़े से बड़ा एन.जी.ओ. चलाये.
सो भैया देखो राज तो है दोगलो का ढोल में पोल,घुस सके तो घुस जा और न घुस पाए  तो ढोल की तरह पिट. दोनों ही सूरत में कल्याण नहीं है. आवश्यकता है सहज ढंग से चलने  वाली व्यवस्था का जिसमे शिखंडी तत्व कि मौजूदगी न हो.
क्रमश.........

5 टिप्‍पणियां:

Dr Kiran Mishra ने कहा…

radical lines...wait for next

Udan Tashtari ने कहा…

सार्थक चिन्तन..जारी रहें.

palash ने कहा…

great thought. but only the indication of problem is not sufficient, give some way to move form such things

Shailendra K. Pathak ने कहा…

very nice post...supplement this blog by some optimistic thoughts too....

read a similar blog...

naqalichehare123.blogspot.com/

Manish ने कहा…

Itni typical lines meri samajh ke bahar hai.