सोमवार, 7 जून 2010

मेरी धरती



                                  
                                
  तुम जलती हो ,
 जो धूप मै देता हूँ.
तुम भीगती हो,
जो पानी मै उडेलता हूँ.
तुम कांपती हो,
जो शीत मै फैलता हूँ.
सबकुछ समेटती हो,
जो मै बिखेरता हूँ.
तुम सहती हो
बिना किसी शिकायत के


मेरी धरती,
तुम रचती हो,
सृष्टि  गढ़ती हो
और मै तुम्हारा आकाश
तुम्हे बाहों में भरे हुए
चकित सा देखता  रहता हूँ
तुम हसती हो
निश्छल  हसती जाती हो
हवाए महक जाती है
रुका समय चल पड़ता है
और ज़िन्दगी नए पड़ाव
तय करती है.

7 टिप्‍पणियां:

संजय कुमार चौरसिया ने कहा…

bahut badiya prastuti,

isse behtar kuchh nahin

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

Shekhar Kumawat ने कहा…

SUNDAR RACHANA

BADHI AAP KO IS KE LIYE

संगीता पुरी ने कहा…

सुंदर रचना .. धरती हमारी माता जो है .. अपने कर्तब्‍य पथ पर अग्रसर है .. काश हम भी ऐसा कर पाते !!

Dr Kiran Mishra ने कहा…

mere aakash mai hamesha tumhaaree baho me rahoogi aur tum mujhe aise hi dekhte rahna.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

बढिया अभिव्‍यक्ति।

sheeba ने कहा…

nice lines are using for explaining your thoughts