बहुत समय पहले शैली की एक कविता पढी थी, 'ओड टू द वेस्टर्न विंड'। भाव यह था कि स्वय को तप्त रखकर यह पवन बारिश का कारण बन जाता है। तीव्र वेग होने के कारण जमीन पर छितरे झाड झंख़ाडो को उडा ले जाता है। इसकी दिशा हमेशा पूर्व की ओर है। वह कविता मन मे बस गयी। बरसो बरस बाद मेरे द्वारा बनाया गया यह ब्लाग उसी भाव का स्फुटन है।
समाजशास्त्रीय मंच: The Socological Forum
सोमवार, 7 जून 2010
मेरी धरती
तुम जलती हो ,
जो धूप मै देता हूँ.
तुम भीगती हो,
जो पानी मै उडेलता हूँ.
तुम कांपती हो,
जो शीत मै फैलता हूँ.
सबकुछ समेटती हो,
जो मै बिखेरता हूँ.
तुम सहती हो
बिना किसी शिकायत के
मेरी धरती,
तुम रचती हो,
सृष्टि गढ़ती हो
और मै तुम्हारा आकाश
तुम्हे बाहों में भरे हुए
चकित सा देखता रहता हूँ
तुम हसती हो
निश्छल हसती जाती हो
हवाए महक जाती है
रुका समय चल पड़ता है
और ज़िन्दगी नए पड़ाव
तय करती है.
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7 टिप्पणियां:
bahut badiya prastuti,
isse behtar kuchh nahin
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
SUNDAR RACHANA
BADHI AAP KO IS KE LIYE
सुंदर रचना .. धरती हमारी माता जो है .. अपने कर्तब्य पथ पर अग्रसर है .. काश हम भी ऐसा कर पाते !!
mere aakash mai hamesha tumhaaree baho me rahoogi aur tum mujhe aise hi dekhte rahna.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
बढिया अभिव्यक्ति।
nice lines are using for explaining your thoughts
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