सामान्यतः हम जिस परिवेश में रहते हैं उसी के
हिसाब से हमारे तौर तरीके विकसित हो जाते हैं जिसके अनुसार हम ताउम्र व्यवहार करते हैं या सोचते हैं। मनुष्य की आदतें उसके सीखने और सामंजस्य करने पर
आधारित होती हैं। जो एक बार सीख गया या
जीवन में जहां जैसे भी सामंजस्य बिठा लिया उसी के मुताबिक़ वह आदत बना लेता है और जिसे बदलना या बदलने के लिए सोचना उसके लिए बहुत
मुश्किल होता है। सदियों से लैंगिंक विभेद
के रूप में पुरुष और स्त्री का विमर्श चला आ रहा है। उभय लिंग और
नपुंसक लिंग की भी चर्चा गाहे बगाहे हो जाती है किन्तु पुरुषों या स्त्रियों की
लैंगिक विकृतता को लेकर कोई विमर्श या
चर्चा नही अगर होती है तो भी उसे हास परिहास में टाल दिया जाता है । इस प्रकार के लोगों
को तीसरी श्रेणी के लोग कहकर औपचारिकता का निर्वहन कर लिया गया। तीसरी श्रेणी के लोगों ने भी समाज की इस रीति के
साथ सामंजस्य बनाकर जीना सीख लिया। समाज
ने किन्नरों को सामजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्य, खेल समेत
सारे मामलों में हाशिये पर रखा। सामजिक व्यवस्था ऐसी है जिसमे मात्र लैंगिक विकृति के चलते किसी व्यक्ति को
मानव होने के लायक ही नही समझा जाता। किन्नर होना अपराधी, घृणित और अस्पृश्य होना
समझा गया या उन्हें देवत्व से जोड़कर समाज से बाहर रखने का पूरा इंतजाम किया गया। किसी परिवार में यदि कोई विकलांग बच्चा जन्म
लेता है तो उसे परिवार उसके जीवनपर्यंत सामजिक सुरक्षा देता है जबकि लैंगिक
विकलांग के पैदा होते ही उसके माता पिता उसे त्याग देते हैं या त्यागने पर मजबूर
हो जाते हैं। किन्नरों के लिए बधाई समूह
ही एकमात्र विकल्प है जिसमे रह कर वे अपना जीवन निर्वाह कर सकते हैं। समाज ने गाने बजाने वाले किन्नरों को मान्यता दी तथा उन्हें शुभ
बताया ताकि वह अपने पेशे को दैवीय समझें और उसी में ही लिप्त रहें।
यहाँ इस बात को जानना अत्यधिक जरुरी है कि क्या
वाकई में किन्नरों को तृतीय लिंग कहना
चाहिए। ‘तृतीय लिंग’
की
संविधानिक अवधारणा और कानूनी मान्यता के अनुसार
“स्व-पहचानीकृत लिंग या तो ‘पुरुष’ या ‘महिला’
या
एक ‘तृतीय लिंग’ हो सकता है। किन्नर तृतीय लिंग के रूप में ही जाने जाते
हैं, न कि पुरुष अथवा स्त्री के रूप में। इसलिए इनकी अपनी लिंगीय अक्षमता
को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूह के कारण एक तृतीय
लिंग के रूप में विचारित किया जाना चाहिए।“ किन्तु लिंगीय अक्षमता तो अनेक पुरुष और महिला
दोनों हो सकते हैं तो क्या उन्हें भी तृतीय लिंग में शामिल कर लेना चाहिए। जाहिर है कि किन्नर के लैंगिक पहचान को लेकर विरोधाभास है। वस्तुतः किन्नर गर्भ में शरीर के विकास क्रम की
वह अवस्था है जब किसी एक लिंग के निर्धारण
की प्रक्रिया होते होते रुक जाती है या कुछ समय बाद दूसरे लिंग का विकास होना शुरू
हो जाता है। इस प्रकार किन्नर के अंग में
पुरुष या स्त्री के अंग अविकसित रह जाते हैं या दोनों अंगों का मिलावटी स्वरुप हो
जाता है। स्पष्ट है कि इन्हें तीसरे लिंग
में रखना एक कामचलाऊ बात है। किन्नर होना
एक लैंगिक विकृति है न कि कोई अलग लिंग का
प्राणी होना है। जब हम इन्हें अलग से
तीसरे लिंग की कोटि में रखते हैं तो
अनजाने में ही उन्हें यह जताते है कि वह
सामान्य मानव नही हैं बल्कि कुछ विचित्र किस्म के लोग हैं।
शरीर की बनावट के आधार पर समाज की मुख्यधारा से
दूर किन्नरों को महिला का वेश बनाकर रहना और उनके जैसी बोली भाषा और व्याकरण का
प्रयोग करने की बाध्यता भी उन्हें दलित बनाती है. स्त्री को दोयम दर्जा देने के
बाद लगभग उसी तरीके से किन्नरों को लांक्षित अपमानित कर उन पर निर्योग्यताएं लादी
गयीं और यह सुनिश्चित किया गया कि वह उन निर्योग्यताओं का अनुपालन करेगे. इस आधार
पर अच्छे बुरे किन्नरों का निर्धारण किया गया. मध्यकाल में किन्नरों से शासक वर्ग
को कुछ सहूलियतें मिलीं खासतौर से मुग़ल शासनकाल के दौरान उन्हें हरम में जगह इसलिए
मिली ताकि निश्चिंतता के साथ वहाँ का देखरेख और निगरानी की जा सके. वर्तमान समय
में संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को लिंग के आधार पर भेदभाव से मुक्ति
दिलाने की बात करता है परन्तु सामाजिक व्यवस्था और सोच कुछ इस तरह की है कि उससे
पार पाना अत्यंत मुश्किल काम है. सबसे
कठिन काम प्रचलित परिदृश्य को बदलना है जिसमे किन्नर को एक विचित्र प्राणी समझा
जाता है. किन्नरों पर यह विचित्रता समाज द्वारा आरोपित है जिसे उस वर्ग ने स्वीकार
कर उसके मुताबिक़ अपने जीवन को ढाल लिया है और परिणाम यह कि हजारों वर्षों से वह मानव जीवन को महसूस करने के प्रथम
मानवाधिकार से वंचित है।
·