शुक्रवार, 30 जून 2017

मंगल ग्रह की बातें सब

ख्वाब देखने की जिद थी लेकिन आँखों में नींद नही
उन्ही  सवालों पर दिल  हारे  उत्तर  की उम्मीद नही ।

मुझको भी तो इश्क हुआ था पर कैसे साबित कर दूँ
चिट्ठी जो तुम तक भेजी थी उसकी कोई रसीद नही।

ये रानाई  जलसे  महफ़िल  मंगल  ग्रह की बातें सब
चाँद  फुलाकर  मुंह  बैठा  है  यह तो कोई ईद नही ।

मौसम  जैसेे  चले  गये  तुम  ऐसे  कोई  जाता  क्या
मुड़ कर भी इक बार न देखा कोई भी ताकीद नही।

रात  चाँदनी  सबा  सुहानी  लहरें  अब  भी उठती हैं
वही समन्दर वही किनारे पर अब  कोई  मुरीद नही।


बुधवार, 28 जून 2017

बारिश,बाइक और चाह।

पूरब में  घुमड़ते बादल गहराते जा रहे थे। गंगा का कछार अभी खत्म नही हुआ था कि हल्की हल्की बूंदे तेज बहती हवाओं के साथ मेरे चेहरे पर पड़ने लगीं। बाइक की रफ़्तार तेज थी। तुम्हारे काले बाल खुलकर हवा में लहराने लगे। एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाने के अनुपात में ही मेरी कमर पर तुम्हारी बाहों की कसावट बढती जा रही थी। कछार पीछे छूट गया सामने सागौन के दरख्त सड़क के दोनों तरफ हवाओं में झूमते नजर आए। बाइक सड़क पर फर्राटा भर रही थी। अब तक मैं सिर से लेकर पैर तक भीग चुका था ठंडी हवाएं बदन को छूकर बरफ बनाने पर तुली थीं पर तुम्हारे धडकनों  की गर्माहट से उनका मकसद बार बार असफल हो जाता। आखिर बादलों के सब्र का पैमाना छलक पड़ा। जोर से बिजली कौंधी और बारिश तेज हो गयी। मेरे कानों में हल्की आवाज आई। बाइक रोक लो फिसलने का डर है। मैंने पीछे मुंह कर के तुमसे कहा, ‘अब भी फिसलने का डर है तुम्हे’। तुमने मुस्कुरा कर सिर पेरी पीठ पर टिका लिया। 

बाइक अपनी रफ़्तार से भागती रही। धुप्प अंधेरा सा छा गया। सड़क पानी से भर गयी। मैंने बाइक को पहली गियर में डाला और  कभी एक्सेलेटर लेते हुए कभी पैर नीचे टिकाते हुए संभाल कर चलाने लगा। तुम मुझसे  अमरबेल सी लिपटी हुयी कभी अपने गीले बालों को पीछे कर रही थी कभी अपने मुंह से पानी हटा रही थी कभी मेरे मुंह से पानी साफ़ कर रही थी। तुम्हारे गीले गेसुओं को देखकर एक ही बात जेहन में आ रहीं थी...

'बरसात का मज़ा तेरे गेसू दिखा गए,
अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए'। 

थोड़ी देर बाद बारिश मद्धिम पड़ी। सागौन के पेड़ों के पार धान के खेत दिखे। धान के पौधे पानी में डुबकी लगा कर पुलक उठे थे। सड़क से लगा  एक कच्चा रास्ता था जहां से  थोड़ी दूर पर एक छप्पर दिख रहा था। मैंने बाइक वहीँ रोकी और तुम्हारा हाथ पकड़े कच्चे रास्ते पर चल दिया। रास्ते पर घास थी इस वजह से चलने में दिक्कत नही थी। वहाँ छप्पर में एक बूढा अंगीठी पर चाय उबाल रहा था। कोयले सील गये थे पर बूढा अंगीठी फूंक  फूंक कर आग को जलाए रखने का प्रयास जारी रखे था।

बाबा  चाय कैसे पिलाए , मैंने पूछा। उसने हम दोनों को देखा और  मुस्कुराया  बोला,  'चाय  नही चाह पिलाता हूँ बैठो'। एक गीली बेंच पर हम बैठ गये। तुम अपनी चुन्नी निचोड़ने लगी। वह बूढा  तेजी से  अंगीठी में फूंक मारने में जुट गया । तुम्हारे होंठ ठंड से काँप रहे थे। मैंने कहा बाबा जल्दी। बूढ़े ने तुम्हे देखा फिर उसने चाय में कूंची हुयी अदरक डाला और छानकर तुम्हे दिया। मैंने कहा रहने दो बाबा अब हम एक ही प्याली में चाह पी  लेंगे। वह फिर मुस्कुराया। हम प्याली में चाय पीते रहे। थोड़ी गर्माहट आई। छप्पर से पानी टपक रहा था। अंगीठी के धुएं की आड़ से बूढा हमें देखे जा रहा था। हमने चाय पीने के बाद उसे पैसे देने चाहे पर उसने नही लिया। बोला तुम लोग इस चाह को याद रखना। 

पानी बंद हो गया था। शाम होने को थी बादल पतले होकर लाल होने लगे। थोड़ी देर में हमारी बाइक शहर में दाखिला ले रही थी।