भाषा
अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है अर्थात जीवन के जितने भी दैनिक कार्य व्यापार हैं, गतिविधियाँ हैं उन्हें भाषा के माध्यम
से संपन्न किया जा सकता है। भाषा ही व्यक्ति को समाज और समाज को देश अथवा विश्व-सूत्र में जोडती है।
बहुभाषी समाज को राष्ट्र बनाने में भी भाषा की बड़ी भूमिका है। स्वतंत्रता
आंदोलन के रहनुमाओं ने महसूस किया था कि
भारत जैसे बहुभाषिक देश में एक ऐसी संपर्क भाषा चाहिए जो संपूर्ण भारतीयों को
एकसूत्र में बाँध सके। पहले यह काम संस्कृत के जिम्मे था और बाद में इसे हिंदी ने निभाया।
हिंदी देश की संपर्क भाषा बनी।
प्रतिवर्ष
14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ तो मनाया ही जाता है, साथ ही इसे विश्वभाषा के रूप में
प्रतिष्ठा दिलाने के लिए 10 जनवरी को ‘विश्व हिंदी दिवस’ भी मनाया जाता है।
इसमें
दो राय नहीं है कि - “हिंदी भारत की आत्मा ही नहीं, धड़कन भी है। यह
भारत के व्यापक भू-भाग में फैली शिष्ट और साहित्यिक भाषा है।
इसकी अनेक आंचलिक बोलियाँ हैं।
भाषा
चाहे हिंदी हो या अन्य भारतीय भाषाएँ हो या फिर विदेशी भाषाएँ, अपने समाज अथवा देश की अस्मिता की
प्रतीक होती हैं। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भी कहा है कि “राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य
भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं।” अपनी भाषा के प्रति प्रेम और गौरव की
भावना न हो तो देश की अस्मिता खतरे में पड़ सकती है।
फरवरी
1835 में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा
शत्रु लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में अपने विचार व्यक्त करते हुए अपना मन्तव्य
स्पष्ट किया कि जब तक हम इस देश की रीढ़ की हड्डी न तोड़ दें, तब तक इस देश को जीत नहीं पायेंगे और
ये रीढ़ की हड्डी है- इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, इसके लिए मेरा सुझाव है कि इस देश की
प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को इसकी संस्कृति को बदल देना चाहिए।
लार्ड
मैकाले ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपनी शिक्षा नीति बनाई, जिसे आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली का
आधार बनाया गया ताकि एक मानसिक रूप से गुलाम मुल्क तैयार किया जा सके, क्योंकि मानसिक गुलामी, शारीरिक गुलामी से बढ़कर होती है।
मैकाले
ने ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू की कि भारतीयों की सोच बदल गयी, अपनी संस्कृति और सभ्यता उनको गंवारू और पिछड़ी हुई लगने लगी और
अंग्रेजी सभ्यता, अंग्रेजी भाषा उनके मनोमस्तिष्क पर छा गयी।
यहाँ
तक कि भारतीय संविधान में 26 जनवरी 1950 को जो संविधान इस देश में लागू हुआ उसके अनुच्छेद 343 के अनुसार तो व्यवस्था ही निर्धारित
कर दी गयी कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी इस देश में संघ (Union) सरकार की भाषा रहेगी,राज्य सरकारों को भी छूट दे दी गयी कि
वो चाहे हिंदी अपनाएं या अंग्रेजी को।
संविधान
में ही ये भी अनुच्छेद 343 में ये प्रावधान करते हुए तीसरे पैराग्राफ
में लिखा गया कि भारत के विभिन्न राज्यों में से किसी ने भी हिंदी का विरोध किया
तो फिर अंग्रेजी को नहीं हटाया जायेगा।
संविधान
निर्माताओं ने तो अनुच्छेद 348
में स्पष्ट कर दिया कि भले ही हिन्दुस्तान में सबसे अधिक हिंदी बोली जाती हो
परन्तु उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रहेगी।
हिंदी
का सर्वाधिक अहित तो देशवासियों ने किया जो हिंदी भाषी परिवार में जन्म लेते और
पलते हैं, हिदी हमारी रगों में होती है परन्तु दीवानगी अंग्रेजी के प्रति इतनी
अधिक है कि भले ही अंग्रेजी के माध्यम से समझने में कई गुना अधिक समय लगे परन्तु अपनाते
अंग्रेजी ही हैं। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि किसी भी राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास अपनी
भाषा में ही सम्भव है। आधुनिक
युग में भी सभी कार्य हिंदी में संभव है, परन्तु देशवासियों का अंग्रेजी के
प्रति मोह अपरम्पार है।
हिंदी
और भारतीय भाषाओं के विद्वानों, लेखकों, कम्पयूटर विशेषज्ञों, तकनीकी विशेषज्ञों को संयुक्त रूप से
अपनी भाषाओं के हित में काम करना होगा। हिंदी का हित भारतीय भाषाओं से अलग
नहीं है। वैश्वीकरण और सूचनाक्रांति के दौर में हिंदी के साथ अन्य भारतीय
भाषाएँ भी पिछड़ रही हैं। अंग्रेजी का वर्चस्व सब को दबा रहा है इसलिए सब भारतीय भाषाओं के
हितैषियों को एकजुट होकर अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती देनी चाहिए।
3 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "जीवन के यक्ष प्रश्न - ब्लॉग बुलेटिन“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
चुनौती असंभव नहीं है यदि सब एकजुटता दिखाए ।
चुनौती असंभव नहीं है यदि सब एकजुटता दिखाए ।
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