गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता : राष्ट्रभाषा होने की बाट जोहती हिंदी: पीयूष द्विवेदी

आप आर प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों से यह पूछिए कि भारत की राष्ट्रभाषा बताओ ? तो यकीन मानिए कि अधिकांश बच्चों के मुँह पर सहज ही ‘हिंदी’ आ जाएगा, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि फ़िलहाल इस देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। लेकिन उस बच्चे के राष्ट्रभाषा के रूप में ‘हिंदी’ कहने का  कारण यह है कि हिंदी को इस देश का अधिकाधिक जनमानस राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार चुका है और ऐसा जानने वाले लोगों की संख्या अपेक्षाकृत बेहद कम है कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा व राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा है। दरअसल सामान्यतः लोग संभवतः राजभाषा व राष्ट्रभाषा के बीच के अंतर को नहीं समझते हैं। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रभाषा का अर्थ होता है कि वो समग्र राष्ट्र में समान रूप से स्वीकृत हो और उसके अस्वीकार व तिरस्कार का किसीको भी अधिकार  न हो, जबकि राजभाषा-संपर्क भाषा होने से तात्पर्य बस इतना है कि वो संसदीय, प्रशासनिक कार्यों आदि में प्रयुक्त होगी तथा देश में कहीं भी, किसी भी वर्ग-क्षेत्र के निवासियों से संपर्क का माध्यम होगी। पर इन सभी स्थितियों पर गौर करें तो कहीं भी हिंदी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार होता नहीं दिख रहा है। राष्ट्रभाषा तो खैर वो है ही नहीं कि देश में उसकी सर्वस्वीकृति की बात की जाय और सर्वस्वीकृति है भी नहीं। तमिलनाडु, नागालैंड आदि कई राज्य हिंदी का नाम आते ही त्योरियां चढ़ा लेते हैं। रही बात हिंदी के राजभाषा और संपर्क भाषा होने की तो यहाँ भी हिंदी क़ दशा बेचारी ही दिखती है। राजभाषा अर्थात जिस भाषा में शासन-प्रशासन के सारे कार्य सम्पादित हों, किन्तु क्या फिलवक्त देश में ऐसा है ? १४ सतम्बर, सन १९४९ को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया जिस तारीख को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। संविधान में इसके लिए अनुच्छेद ३४३ से ३५२ तक प्रावधान सुनिश्चित किए गए। अनुच्छेद ३४३ के खंड १ में उल्लिखित है, किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक  संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए (हिंदी के साथ)अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।” इस अनुच्छेद में स्पष्ट है कि शुरूआती पंद्रह वर्षों तक शासकीय कार्यों के लिए हिंदी के साथ अंग्रेजी का भी प्रयोग करने की बात कही गई है। किन्तु यह पंद्रह वर्ष कभी ख़त्म नहीं हुए। स्थिति यह है कि प्रशासकीय कार्यों में आज भी अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है और यहाँ भी हिंदी उपेक्षित और एक तरह से अंग्रेजी की पिछलग्गू भाषा बनी हुई  है। देश की अदालतों में तो हिंदी की दशा और बदतर है। देश की अधिकाधिक शीर्ष अदालतों में जिरह, प्रमाण और निर्णय आदि सभी चीजें अंग्रेजी में होती हैं। और तो और जब भी हिंदी कों न्याय की भाषा बनाने की बात कही जाती है, सबसे पहले अदालतें ही इसके विरोध में खड़ी हो जाती हैं। अदालतों द्वारा अपने हिंदी विरोध के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, वे अपने आप में निराधार और अमान्य हैं। अदालतों का तर्क होता है कि न्याय के अधिकांश उपकरण यथा क़ानून की किताबें, केस विवरण, वाद-विवाद सब अंग्रेजी में होते हैं, अतः हिंदी को लाने से न्याय का कार्य अत्यंत जटिल और कठिन हो जाएगा साथ ही इससे  न्याय की गुणवत्ता के भी दुष्प्रभावित होने का खतरा है। अब यदि अदालतों के तर्क पर चलें तब तो हिंदी कभी न्याय की भाषा बन ही नहीं पाएगी। समाधान तो यह है कि हिंदी को न्याय की भाषा बना दिया जाय और फिर न्यायिक उपकरणों को हिंदी में रूपांतरित करने की दिशा में कार्य शुरू हो जाय। निस्संदेह यह सरल नहीं है, मगर इतना कठिन भी नहीं है कि देश की संवैधानिक राजभाषा को न्याय की भाषा बनाने के लिए किया न जा सके। मगर अदालतों का जो विरोध है सो तो है ही, देश की सरकारें भी इधर से आँख मूंदें ही बैठी रही हैं। सरकार सबके लिए न्याय को सहज, सरल व सुग्राह्य बनाने की बात तो करती है, किन्तु क्या अंग्रेजी के न्याय की भाषा होते हुए यह संभव है ? संपर्क भाषा के रूप में भी हिंदी की स्थिति बहुत अधिक तो नहीं, पर कुछ हद तक संकटग्रस्त  दिखती है। देश की आम-बोलचाल में क्षेत्रीय भाषाओँ के बाद हिंदी का एकाधिकार रहा है, मगर अब यहाँ भी ‘हिंगलिश’ के रूप में अंग्रेजी सेंध लगाती जा रही है। फिलवक्त इस तरफ किसीका विशेष ध्यान नहीं है और संभवतः इसे हिंदी के लिए किसी संकट के रूप में देखा भी नहीं जा रहा, मगर जिस तरह से धीरे-धीरे ही अंग्रेजी ने इस बहुल हिन्दीभाषी राष्ट्र को अपने चपेटे में लिया है उसे देखते हुए इस आशंका से इंकार करना कठिन है कि यदि हिंगलिश की ऐसे ही बढ़ती होती रही तो आने वाले समय में वह आम-बोलचाल से भी हिंदी को ख़त्म कर देगी। यह दूर की बात है, पर संभव अवश्य है।
  उपर्युक्त बातों से स्पष्ट होता है कि हिंदी की वर्तमान स्थिति किसी भी तरह से संतोषजनक नहीं है। इसको मजबूती स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि इसको राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी जाय, मगर ऐसा होने की कोई संभावना नहीं दिखती। प्रश्न यह उठता है कि आखिर आजादी के बाद जब देश में उन गांधी जिन्होंने आजादी से काफी पहले ही सन १९१७ में गुजरात के भरूच में हिंदी को राष्ट्रभाषा कह दिया था तथा जीवन-पर्यंत उसको राष्ट्रभाषा बनाने की हिमायत करते रहे थे, के विचारों से प्रभावित कांग्रेस के सत्ता में होने के बावजूद भी तब हिंदी को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बनाया गया ? हिंदी के राष्ट्रभाषा न बनने के लिए मुख्यतः दक्षिण राज्यों के विरोध को कारण माना जाता है। सन १९३७ में जब सी राजगोपालाचारी की मद्रास सरकार ने मद्रास में हिंदी को लाने का समर्थन किया तो भयानक विद्रोह  भड़क उठा। इसके बाद सन १९६५ में एकबार फिर इस दिशा में कोशिश हुई तो फिर गैर -हिंदीभाषी राज्यों की त्योरियां चढ़ गईं। भयानक विरोध हुआ, हजारों गिरफ्तारियां हुईं और तमाम लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। आखिर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं। नेहरू और सरदार पटेल को आश्वासन देना पड़ा कि किसीके ऊपर हिंदी थोपी नहीं जाएगी। आगे तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा हिंदी के साथ अंग्रेजी को सहायक राजभाषा का दर्जा देकर उन आश्वासनों को क्रियान्वित किया गया। इसके बाद सरकार की तरफ से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने सम्बन्धी कोई विशेष पहल नहीं हुई है। यह सही है कि इन राज्यों के विरोध को देखते हुए हिंदी का राष्ट्रभाषा होना कठिन है, पर इस दिशा में किसी बीच के रास्ते पर भी तो बात की जा सकती है। पर सन १९६५ के बाद से देश की सरकारें इस सम्बन्ध में ऐसे हाथ पर हाथ धर बैठ गईं कि दक्षिण भारतीय राज्यों का मन और भी बढ़ गया है। इतना कि अब अंग्रेजी व दक्षिण भारतीय भाषाओँ को छोड़ किसी अन्य भाषा का नाम आते ही वे ऐसे बिदक जाते हैं जैसे वे इस देश से अलग हों। इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सन १९४७ में देश आजाद हुआ और अगले वर्ष के पहले महीने में ही गांधी की हत्या हो गई। यह हिंदी के लिए भी बड़ी क्षति हुई। अगर गांधी आजादी के बाद कुछ वर्षों तक जीवित रहते  तो निश्चित ही हिंदी को राष्ट्रभाषा की मान्यता मिल गई होती। फिर चाहें देश का इतिहास गांधी के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार के विरुद्ध ही आंदोलनों का साक्षी क्यों नही बनता, मगर गांधी हिंदी के साथ यह अन्याय नहीं होने देते। किसी न किसी मार्ग के जरिये ही सही वे हिंदी को इस देश की राष्ट्रभाषा होने का गौरव अवश्य प्रदान कर दिए होते।    


1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-10-2016) के चर्चा मंच "जय जय हे जगदम्बे" (चर्चा अंक-2489) पर भी होगी!
शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'