भारत और भारतीय
भाषाओं के प्रति रूस में झुकाव पन्द्रहवीं शताब्दी में ही झलकने लगा था। जब रूसी
विश्वयात्री अफ़नासी निकितिन ने भारत की यात्रा की थी। रूस के प्राचीन नगर त्वेर से
वे 1468 में भारत के लिए
रवाना हुए थे और काले सागर को पार कर अज़रबैजान और ईरान के रास्ते भारत पहुँचे थे।
यह वह समय था, जब दुनिया अभी वास्को डिगामा को जानती भी नहीं थी, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि वास्को
डिगामा ने ही भारत की खोज की थी। वास्को डिगामा तो अफ़ानासी निकितिन के 25 साल बाद भारत पहुँचे थे
और उन्होंने यूरोपियन लोगों को भारत का रास्ता दिखाया था। अफ़नासी निकितिन 1468 से 1474 तक भारत में रहे थे। फिर भारत से वापिस रूस
लौटते हुए रास्ते में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन भारत के बारे में उनकी डायरियाँ और
संस्मरण सुरक्षित रह गए, जिन्हें आज हम रूस में'तीन समुद्रों के पार की यात्रा' के नाम से जानते हैं।
रूस में जो दूसरा
स्रोत रूस-भारतीय सम्बन्धों का हमें मिलता है, वह हिन्दी या हिन्दुस्तानी भाषा से सीधे जुड़ा
हुआ है। रूसी विद्वान गेरासिम लेबिदेव (1749-1817) बारह साल तक भारत में रहे थे। शुरू में कुछ
वर्ष चेन्नै (मद्रास) में बिताने के बाद वे कोलकाता चले गए थे और लम्बे समय तक
वहाँ रहे। मूल तौर पर गेरासिम लेबिदेव संगीतकार थे और उन्होंने यूरोपीय संगीत की
परम्पराओं को भारतीय संगीत परम्पराओं से जोड़ने की कोशिश की थी। चूँकि संगीत और
नाटक का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है, इसलिए उन्होंने भारत में,
कोलकाता में एक थियेटर की
भी स्थापना की थी। थियेटर के अलावा उन्होंने भारत की भाषाओं पर भी महत्त्वपूर्ण
काम किया। वर्ष 1801 में लन्दन में उनकी एक क़िताब प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक था -- A
grammar of the pure and mixed East Indian dialects... यानी शुद्ध और मिश्रित पूर्वी भारतीय भाषाओं का व्याकरण।
अपनी इस क़िताब में गेरासिम लेबिदेव ने कोलकाता में बोली जाने वाली हिन्दुस्तानी
भाषा के व्याकरण पर चर्चा की थी। यह वह भाषा थी,जो आम तौर पर कोलकाता के व्यापारी वर्ग के बीच
इस्तेमाल की जाती थी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सिर्फ़ कोलकाता के व्यापारी ही
इस भाषा का इस्तेमाल करते थे। उनकी भाषा कई भाषाओं के शब्दों की खिचड़ी भाषा थी, जिसमें मारवाड़ी, बांग्ला, अवधी भोजपुरी, मैथिली, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों की भरमार थी और
जिनका व्याकरण भी इन्हीं सब भाषाओं के व्याकरण को मिलाकर तैयार हुआ था।
रूसी कवियों ने
सबसे पहले जिस भारतीय कवि की रचनाओं का अनुवाद किया, वे कालिदास हैं। प्रसिद्ध रूसी कवि अलेक्सान्दर
पूश्किन के पूर्ववर्ती कवि वसीली झुकोवस्की (1783-1852) ने सबसे पहले कालिदास की रचना 'नल और दमयन्ती' का रूसी भाषा में अनुवाद
किया था। उनके बाद कालिदास की रचना 'शकुन्तला' का अनुवाद कंस्तान्तिन
बालमन्त (1867-1942) ने किया। फिर उनके परवर्ती कवि ईगर सिविरयानिन (1887-1941)
ने भी कालिदास के कई
रचनाओं के अनुवाद किए। इस तरह हम देखते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में रूस में भारत
के प्रति लगाव बढ़ता जा रहा था। रूसी लोग प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन, इतिहास और कला में गहरी
रुचि ले रहे थे। इसीलिए रूसी भाषा में सबसे पहले कालिदास की रचनाओं के अनुवाद
सामने आए। 19वीं सदी के अन्त
में रूसी लेखकों अ० विगोरनित्स्की (1897), अ० फ़० गिल्फ़ेर्दिंग (1899)
और इ० प० यागेल्लो (1902) ने 'हिन्दुस्तानी' भाषा के बारे में पहली
पुस्तकें लिखीं। आरम्भ में ये व्यावहारिक पाठ्य-पुस्तकें थीं और इनमें भाषा के
साधारण नियम ही दिए गए थे। लेकिन आज इन लेखकों और इन पुस्तकों को रूस में कोई याद
भी नहीं करता।
रूस में 1917 की क्रान्ति के
बाद आधुनिक भारतीय भाषाओं का गम्भीरता से अध्ययन शुरू हुआ। उससे पहले अट्ठारहवीं
सदी के आख़िर मे भारतीय भाषाओं के अध्ययन
का प्रयास तो किया गया था, लेकिन व्यवस्थित रूप से उनके अध्ययन-अध्यापन की कोई व्यवस्था
नहीं थी। रूस में सबसे पहले उर्दू का अध्ययन शुरू किया गया। अलेक्सेय बरान्निकफ़ (1890-1952) ने लेनिनग्राद
(सेण्ट पीटर्सबर्ग) विश्वविद्यालय में हिन्दी या हिन्दुस्तानी का अध्यापन शुरू किया। उन्हें रूस में भारतीय
भाषाओं के अध्ययन और अध्यापन की परम्परा का संस्थापक कहा जा सकता है। 1934 मे' उन्होंने 'हिन्दुस्तानी' (हिन्दी व उर्दू) के
व्याकरण की पहली पाठ्य-पुस्तक तैयार की। उन्होंने ही सबसे पहले रूस में
हिन्दी-रूसी और रूसी-हिन्दी शब्दकोशों के निर्माण का काम शुरू किया। इसके अलावा उन्होंने लल्लू जी लाल की रचना 'प्रेम सागर' का अध्ययन और
विश्लेषण किया। उन्होंने ही तुलसी के 'रामचरित मानस' का रूसी भाषा में पहला अनुवाद किया। रामचरित मानस का अनुवाद
करने में उन्हें दस साल का समय लगा था।
उनके इस काम को रूस में आगे बढ़ाने वालों में वीक्तर बालिन, वसीली बिस्क्रोव्नी, सिम्योन रूदिन, गिओर्गी ज़ोग्राफ़ और
ततियाना कतेनिना का नाम प्रसिद्ध है। वसीली बिस्क्रोव्नी (1908-1978)
ने दो खण्डों में जो
हिन्दी-रूसी शब्दकोश बनाया था, उसका इस्तेमाल आज भी रूस में किया जाता है और उसे
हिन्दी-रूसी भाषा का सर्वश्रेष्ठ शब्दकोष माना जाता है। वीक्तर बालिन ने हिन्दी
साहित्य के इतिहास पर काम किया और मैथिली, अवधी और ब्रज भाषाओं के साहित्य का गहरा अध्ययन
किया था। उन्होंने रूसी छात्रों के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का विस्तृत
पाठ्यक्रम भी तैयार किया। वीक्तर बालिन को
रूस में प्रेमचन्द के उपन्यासों और कहानियों के अनुवाद के लिए भी याद किया जाता
है। उन्होंने प्रेमचन्द के 'निर्मला' , 'कर्मभूमि' और 'रंगभूमि' जैसे उपन्यासों का
रूसी भाषा में अनुवाद किया था। प्रोफ़ेसर सिम्योन रूदिन (1929-1978) आधुनिक भारतीय
भाषाओं के ध्वनि-विज्ञान के क्षेत्र में अपने गहरे विश्लेषण के लिए मशहूर हैं।
उन्हें भारतीय भाषाओं की ध्वनियों की इतनी ज़्यादा
जानकारी थी कि वे हिन्दी, बांग्ला और मराठी जैसी भारोपीय परिवार की भाषाएँ बड़ी आसानी
से बोल लेते थे। गिओर्गी ज़ोग्राफ़ ने हिन्दी और उर्दू भाषाओं के इतिहास और भारतीय
भाषाओं के आधुनिक रूप का तुलनात्मक अध्ययन किया तथा उत्तरी भारत के मुहावरों, लोकोक्तियों और भारतीय
लोककथाओं पर बड़ा काम किया।
मास्को में
भारतीय भाषाओं का अध्ययन और अध्यापन दूसरे विश्व-युद्ध के बाद शुरू हुआ। छठे दशक
में मास्को विश्वविद्यालय में पूर्वी भाषा अध्ययन संस्थान की स्थापना की गई और
उसमें 'हिन्दुस्तानी' भाषा पढ़ाई जाने लगी। 1957 में भारत से डा० रामकुमार वर्मा को हिन्दुस्तानी के अध्ययन व
अध्यापन के लिए कोर्स तैयार करने के लिए बुलाया गया था। उन्होंने दो-ढाई साल रूस
में रहकर यह काम किया। लगभग उसी समय मास्को के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध संस्थान में
भी पूर्वी भाषा अध्ययन केन्द्र की स्थापना की गई और वहाँ भी 'हिन्दुस्तानी' भाषा पढ़ाई जाने लगी। मास्को के पूर्वी देश अध्ययन संस्थान नामक इंस्टीट्यूट
में भी उन्हीं दिनों भारतीय भाषाओं और साहित्य का सक्रिय रूप से अध्ययन शुरू किया
गया। येव्गेनी चेलिशेफ़, व्लदीमिर चेर्निशोफ़, तत्याना येलिजारिन्कवा और व्लदीमिर
लिपिरोव्स्की हिन्दी के क्षेत्र में इस इंस्टीट्यूट के प्रमुख विद्वान माने जाते
हैं।
आजकल रूस में
हिन्दी शिक्षण के मुख्य केन्द्र मास्को, सेण्ट पीटर्सबर्ग तथा व्लदीवस्तोक में स्थित
हैं। मास्को में तीन मुख्य केन्द्र हैं जहाँ हिन्दी बी०ए० और एम०ए० के स्तर तक
पढ़ाई जाती है। ये केन्द्र हैं -- मास्को विश्वविद्यालय, मानविकी राजकीय विश्वविद्यालय तथा मास्को
अन्तरराष्टीय सम्बन्ध विश्वविद्यालय। तीनों जगह छात्रों को अलग-अलग विषयों में
बी०ए० और एम०ए० की डिग्रियाँ मिलती हैं। उदाहरण के लिये मास्को विश्वविद्यालय में
भारतीय इतिहास, भारतीय भाषाशास्त्र और साहित्य, भारतीय अर्थव्यवस्था तथा
भारतीय राजनीति में डिग्री मिल सकती है। इन सब विषयों में डिग्री प्राप्त करने के
लिये हिन्दी सीखना अनिवार्य है। हिन्दी के साथ दूसरे विषय भी पढ़ने अनिवार्य हैं।
जो विद्यार्थी इतिहास चुनते हैं, उनके पाठ्यक्रम में दुनिया का इतिहास,
भारतीय इतिहास इत्यादि
विषय शामिल होते हैं। भारतीय भाषाशास्त्र सीखनेवालों को आधुनिकतम भाषा-विज्ञान के
सिद्धान्त विस्तार से पढ़ने पड़ते हैं। साहित्यिक आलोचना में दिलचस्पी लेनेवाले
छात्रों को आलोचना के प्रमुख सिद्धान्त और दुनिया भर के साहित्य का इतिहास पढ़ाया
जाता है आदि-आदि। भारतीय इतिहास, भारतीय
भाषाशास्त्र और साहित्यिक आलोचना के छात्रों के लिये संस्कृत सीखना आवश्यक समझा
जाता है। सभी छात्रों के लिये – चाहे वे भारतीय
समाजशास्त्र पढ़ रहे हों या भारतीय अर्थशास्त्र या भारतीय भाषाशास्त्र – पश्चिमी भाषाओं के
साथ-साथ (जिनमें अँग्रेज़ी मुख्य है) कम से कम दो भारतीय भाषाएँ सीखना ज़रूरी है।
हिन्दी के साथ-साथ दूसरी भारतीय भाषा के रूप में तमिल, उर्दू, बांग्ला, मराठी, पंजाबी आदि भाषाएँ चुनी जा सकती हैं।
मास्को
विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग का मैं यहाँ विशेष रूप से ज़िक्र करना चाहूँगी
क्योंकि मैं वहीं पर पढ़ाती हूँ। भारतीय भाषा विभाग की स्थापना मिखाइल सोतनिकफ़ ने
की थी। लेकिन विभाग के प्रसार में सबसे बड़ी भूमिका अनातोली अक्स्योनफ़ ने निभाई।
आजकल हम मुख्य तौर पर हिन्दी, उर्दू और तमिल भाषाएँ पढ़ाते हैं। दूसरी भाषा के रूप में हम
बांग्ला, मराठी, संस्कृत और पंजाबी भाषाएँ
पढ़ाते हैं। हमारे भारतीय भाषा विभाग में कुल दस प्राध्यापक पढ़ाते हैं। प्राध्यापन
के साथ-साथ ये लोग अनुवाद, आलोचना और भाषा वैज्ञानिक काम करते हैं। प्रोफ़ेसर ज़ख़ारिन
संस्कृत, तेलुगु, कश्मीरी, पाली, हिन्दी और उर्दू के
विद्वान हैं और आजकल भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष हैं। डा० अलेक्सान्दर
दुब्यान्स्की तमिल भाषा के एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं। एसोसियेट प्रोफ़ेसर यूल्या
अलेख़ानवा संस्कृत भाषा और साहित्य की विद्वान हैं और संस्कृत नाटक पर उन्होंने
विशेष काम किया है। डा० गुज़ेल स्त्रिलकोवा मराठी और आधुनिक हिन्दी साहित्य की
विद्वान हैं। डा० येकतिरिना अकीमुश्किना उर्दू भाषा और साहित्य की विद्वान हैं और
हिन्दी भाषा भी पढ़ाती हैं। डा० येकतेरिना पानिना रूसी छात्रों को हिन्दी भाषा
सिखाती हैं। डा० अनस्तसीया गूरिया की रुचि संस्कृत कविता और आधुनिक हिन्दी कविता
में है। उन्होंने कुँवर नारायण, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लीलाधर मण्डलोई तथा सुधीर सक्सेना जैसे हिन्दी
कवियों का रूसी भाषा में अनुवाद किया है। मरीया दिदेन्का हमारे विभाग की सबसे युवा
प्राध्यापिका हैं और अभी दो साल पहले ही उन्होंने हिन्दी पढ़ाना शुरू किया है। वे
भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषज्ञ हैं। इनके अलावा हमारे विभाग में एक भारतीय
प्राध्यापक अनिल जनविजय भी हैं, जो हिन्दी के कवि हैं और छात्रों को अनुवाद और हिन्दी
साहित्य पढ़ाते हैं।
शिक्षा का माध्यम
रूसी है। इसका मतलब यह है कि सारे विषय (जिनमें हिन्दी साहित्य का इतिहास भी शामिल
है) रूसी भाषा में पढ़ाए जाते हैं। इसका कारण यह है कि रूसी छात्रों को हिन्दी
एकदम शुरू से (यानी वर्णमाला से) सीखनी पड़ती है। इसलिए मास्को आदि विदेशी
विश्वविद्यालयों में वैसा पाठ्यक्रम नहीं बनाया जा सकता है जैसा भारतीय
विश्वविद्यालयों में बी०ए० और एम०ए० स्तर तक हिन्दी पढ़ाने के लिये लागू है। हमारे
लक्ष्य भी दूसरे हैं। हमारे यहाँ यह परम्परा है कि भारतीय इतिहास, भारतीय समाजशास्त्र और
भारतीय अर्थशास्त्र में बी०ए० करने वाले छात्रों को सिर्फ़ हिन्दी साहित्य ही नहीं, बल्कि अपने मुख्य विषयों
की किताबें भी हिन्दी में पढ़नी चाहिए। वैसे तो अभी तक के हिन्दी शिक्षण के इतिहास
में पढ़ने तथा पढ़ानेवालों के लक्ष्य बदलते रहे हैं।
सोवियत संघ के
दौर में समझा जाता था कि हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाएँ सीखना-सिखाने के साथ-साथ
एक प्रमुख लक्ष्य यह भी है कि छात्रों के बीच मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा, सोवियत रहन-सहन और सोवियत
कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों का भी प्रचार किया जाए। इसलिये तीसरे ओर चौथे साल के
छात्र अपना ज़्यादा समय हिन्दी में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यक्रम और
कम्युनिस्ट पार्टी की हर काँग्रेस की कार्यसूची को ज़बानी याद करने में लगाते थे।
हिन्दी के लेखकों तथा कवियों की रचनाएँ पढ़ने के लिये तब उनके पास बहुत कम समय
बचता था। इण्टरनेट उस समय नहीं था, सिर्फ़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का हिन्दी का अख़बार ’जनयुग’ ही उन्हें देर-सवेर पढ़ने
के लिए मिलता था। हिन्दी की जो
पाठ्य-पुस्तकें उस समय बनाई जाती थीं तो उनमें यही विचार प्रमुख रहता था कि रूसी
अध्यापकों को यह अच्छी तरह मालूम है कि हिन्दी कैसी होनी चाहिए और अगर कोई
हिन्दीभाषी कहे कि पाठ्य-पुस्तक में गलतियाँ हैं तो इसका मतलब यह है कि उसे ख़ुद
हिन्दी नहीं आती है।
सोवियत संघ में
भारतीय भाषाएँ सीखने-सिखाने के क्षेत्र में कमियों के साथ साथ ख़ूबियाँ भी थीं।
लौह-पट के अन्दर रहते हुए बहुत कम लोगों को विदेश जाने का मौका मिलता था, इसलिए सारे रूसी लोग
दूरस्थ रहस्यपूर्ण भारत के सपने देखा करते थे। हिन्दी के छात्रों को अपने सपने पर
अमल करने का मौक़ा तभी मिल सकता था बशर्ते कि वे ख़ूब मेहनत करें और उन्हें परीक्षा
में अच्छे नम्बर मिलें। इस तरह उनके मन में हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाएँ सीखने
की प्रेरणा पैदा होती थी। दूसरी प्रेरणादायक बात यह थी कि हिन्दी आदि भारतीय
भाषाएँ सीखने के बाद कोई अच्छी दिलचस्प नौकरी मिल सकती थी। मिसाल के तौर पर विदेश
मंत्रालय में, मास्को रेडियो में, प्रगति प्रकाशन में या किसी शोध संस्थान में। उस समय लोग
पैसा कमाने के बारे में नहीं सोचते थे और वैसे मौक़े भी कम मिलते थे। शोध करना
प्रतिष्ठित काम समझा जाता था। सोवियत संघ के माहौल का एक और गुण यह था कि जो
भारतीय लोग सोवियत संघ आते थे वे ज़्यादातर मार्क्सवादी प्रचार के धोखे में चले आते
थे। सोवियत संघ आने वाले ज़्यादातर भारतीय सदाचारी और बुद्धिजीवी होते थे, इसलिये रूसी लोगों पर
उनका बड़ा प्रभाव पड़ता था। मैं विस्तार से सोवियत वातावरण का वर्णन कर रही हूँ
क्योंकि उस पर दूसरी सारी चीज़ें निर्भर करती थीं यानी भाषा कैसे सिखाई जाए, उस का उपयोग किन-किन
क्षेत्रों में किया जाए, विद्यार्थियों में यह भाषा सीखने की इच्छा कैसे पैदा की जाए
वगैरह-वगैरह।
जब रूस में
पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण या पुनर्गठन) शुरू हुआ तो एकदम सारा वातावरण बदल गया।
अब भारत जाने के लिए यह ज़रूरी नहीं था कि कोई अच्छा और सफल विद्यार्थी भी हो। अब
हर व्यक्ति टिकट खरीद के भारत की यात्रा
कर सकता था। भारत घूम कर लौटनेवाले छात्र एक दूसरे को यह बताने लगे कि वहाँ तो
अँग्रेज़ी से भी काम चल जाता है। हिन्दी जानने की कोई ख़ास जरूरत नहीं है। विशेष रूप
से किताबी हिन्दी जानने की तो बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। आपकी शुद्ध हिन्दी सुनकर भारत
में लोग हँसते हैं। अब भारत से भी पहले वाले उदार बुद्धिजीवी कम्युनिस्टों की जगह
बिल्कुल दूसरे क़िस्म के लोग रूस आने लगे, जिनको भारतीय साहित्य और
संस्कृति में इतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी उनकी दिलचस्पी पैसा कमाने में थी। ऐसे लोगों से
शादी-वादी की बातें करना उबाऊ बात थी। हिन्दी सीख कर नौकरी पाने की सम्भावनाएँ भी
कम होती गईं क्योंकि नए रूस में हिन्दी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं का उपयोग करने के
क्षेत्र पहले से सीमित हो गए थे। रूस की नई सरकार न तो समाजवादी व्यवस्था की
सफलताओं का प्रचार करने में रुचि रखती थी और न ही नई पूंजीवादी व्यवस्था का प्रचार
करने में। इसलिए मास्को रेडियो में
धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं में प्रसारण कम होने लगा, प्रगति प्रकाशन में रूसी से भारतीय भाषाओं में
अनुवाद करने का काम बन्द कर दिया गया। हिन्दी में शोध करना भी इतना प्रतिष्ठित काम
नहीं रह गया था क्योंकि ऐसे काम के लिये बहुत पैसे नहीं मिलते थे। इस के अतिरिक्त
जब छात्रों को हिन्दुस्तान और पश्चिमी देशों में किए जानेवाले शोधकार्यों की
जानकारी मिली तो उन्हें पता चला कि अर्थशास्त्र जैसे क्षेत्रों में ही नहीं, इतिहास और भाषाशास्त्र जैसे क्षेत्रों में भी
अन्तरराष्ट्रीय स्तर के शोध-अनुसंधान ज़्यादातर अँग्रेज़ी में ही किए जा रहे हैं।
रूसी में हिन्दी
के व्याकरण पर बहुत सी अच्छी किताबें हैं, उदाहरण के लिये व्लदीमिर लिपिरोवस्की की
किताबें। उनको बुनियाद बनाकर तथा बहुवर्षीय हिन्दी पढ़ाने के अपने अनुभव का उपयोग करके
कि हिन्दी सीखते समय रूसी छात्र किस प्रकार की ग़लतियाँ कर सकते हैं, हमने रूपर्ट स्नेल और साईमन वाईटमन की किताब के हर पाठ के
लिए व्याकरण की टिप्पणी तैयार की। लेकिन एक बात है व्याकरण का नियम समझाना और
दूसरी बात है -- ऐसे अभ्यास कराना जिनके माध्यम से मातृभाषा में अनुपस्थित व्याकरण
का अन्तर सीखी जानेवाली भाषा में स्वचालित आ जाए। अक्सर ऐसा होता है कि व्याकरण का
नियम समझने पर भी विद्यार्थी बोलते और लिखते समय ग़लतियाँ करते हैं। वे ख़ुद अपनी
ग़लतियाँ ठीक कर सकते हैं क्योंकि व्याकरण का नियम जानते हैं,
लेकिन ग़लतियाँ न होने
देने के लिए विशेष अभ्यास करना बहुत जरूरी है।
हमारी दृष्टि में
सही हिन्दी बोलने और लिखने का अभ्यास कराने के लिए सबसे लाभदायक काम है रूसी से
हिन्दी में अनुवाद करना। इसलिए
पाठय-पुस्तक के हर पाठ के लिये हमने बीस से लेकर पचास तक रूसी वाक्यों को अनुवाद के
लिए तैयार किया। हिन्दुस्तान से दूर रहते हुए सबसे मुश्किल काम है छात्रों से
बोलचाल का अभ्यास कराना। इसलिए हमारे पाठ्यक्रम में शुरू से ही विभिन्न विषयों पर
बोलने की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। हम भरसक प्रयत्न करते हैं कि पहले ही पाठ
से छात्र यह महसूस करने लगे कि वह हिन्दी बोल सकता है।
कुछ प्राध्यापकों
का विचार है कि अगर विदेशी भाषा बोलनेवाले को रोककर उसकी गलतियाँ ठीक की जाएँगी तो
वह घबरा जाएगा और अगर एक बार अटक गया तो फिर बाद में कुछ बोल नहीं पाएगा। ऐसे
प्राध्यापकों का मानना है कि शुरू से छात्र चाहे जितनी गलतियाँ करके कुछ न कुछ
बोले, बाद में उसे अपने
आप ठीक हिन्दी आ जाएगी। हम ऐसे विचारों से सहमत नहीं हैं। हम सोचते हैं कि अपने आप
कुछ नहीं आता। अगर प्यार से ग़लती ठीक करके फिर छात्र से सही वाक्य दोहराने के लिए
कहा जाए तो वह जल्दी और अच्छी हिन्दी सीखेगा। हमारे छात्र हिन्दी की पढ़ाई के इस
तरीके के आदी हो चुके हैं और अगर कोई बाहर का प्राध्यापक आकर ग़लतियाँ ठीक नहीं
करता तो वे उसे लापरवाह समझते हैं।
हिन्दी की
आधारभूत पाठ्य-पुस्तक की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद हम छात्रों को एक-दो हिन्दी
फ़िल्में दिखाते हैं और एक जासूसी उपन्यास पढ़ाते हैं। फ़िल्म और जासूसी उपन्यास असली
भारतीय संस्कृति का तो बहुत अच्छा उदाहरण नहीं देते, पर भाषा पढ़ाने के लिये वे इसलिए लाभदायक समझे
जाते हैं कि उनकी शब्दावली सीमित होती है और छात्र बार-बार शब्दकोश का इस्तेमाल
किए बिना उनको समझ सकते हैं। फ़िल्म देखने का एक और फ़ायदा यह है कि ध्वनि अभिलेखन
समझने की आदत पड़ जाती है जो लिखित पाठ समझने से बहुत ज़्यादा मुश्किल होता है।
जासूसी उपन्यास और फ़िल्में हँसते-खेलते पढ़ाई जाती हैं। छात्र उपन्यास या फ़िल्म
के टुकडों को आधार बनाकर नए शब्दों का इस्तेमाल करके छोटे-मोटे नाटक बनाते हैं।
जिन घटनाओं का या नायकों का वर्णन नहीं हुआ है, उनका वर्णन करते हैं। उदाहरण के तौर पर जासूस
का अगला-पिछला खानदान क्या हो सकता है, वह जासूस कैसे बना, उपन्यास ख़त्म होने के बाद नायकों और खलनायकों
को क्या हुआ आदि-आदि।
दूसरे साल से हम
छात्रों को वास्तविक हिन्दी साहित्य भी पढ़ाना शुरू कर देते हैं। दूसरे, तीसरे तथा चौथे साल के
विद्यार्थियों के लिये हमने कुछ प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ इकट्ठी करके एक रीडर
बनाई है। कहानियों का चुनाव करते हुए हम ने इस बात का ख़याल रखा कि उनके माध्यम से
छात्रों को भारत की संस्कृति और भारत की आधुनिक समस्याओं की भी ज़्यादा से ज़्यादा
ज्ञान प्राप्त हो सके। रीडर में कहानियों से पहले हर लेखक का परिचय और उसकी
रचनात्मकता के बारे में एक संक्षिप्त टिप्पणी भी दी गई है। हर कहानी के अन्त में
शब्दकोश और कई प्रकार के अभ्यास दिए गए हैं। मुख्य अभ्यासों में निम्नलिखित प्रकार
के अभ्यास शामिल हैं : कहानी में मिले नए शब्द उपयोग करके हिन्दी से रूसी में और
रूसी से हिन्दी में अनुवाद करने का अभ्यास, हिन्दी की लोकोक्तियों और मुहावरों का इस्तेमाल
करके वाक्य बनाना, नए शब्दों के समानार्थक और विपरीतार्थक शब्द लिखना, कहानी में शामिल शब्दों को उठाकर उन से कोई
दूसरी काल्पनिक घटना या कहानी बनाना, मुख्य पात्रों के चरित्र का वर्णन करना आदि।
रीडर में
कहानियों का क्रम ऐसा रखा गया है कि सरल भाषा में लिखी कहानियाँ आरम्भ में रखी गई
हैं और जिन कहानियों की भाषा कठिन है उनको बाद में रखा गया है। इस तरह दूसरे साल
के विद्यार्थियों को हम भीष्म साहनी, कृश्नचन्दर, अमरकान्त और महेश दर्पण की ऐसी कहानियाँ पढ़ाते हैं जो सरल
भाषा में लिखी हुई हैं। तीसरे वर्ष के छात्रों के लिये हम मोहन राकेश, कमलेश्वर, काशीनाथ सिंह, प्रेमचंद, राजकमल चौधरी, पुष्पा सक्सेना आदि
लेखकों की कहानियाँ चुनते हैं। चौथे साल के विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिये हम
निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, कृष्ण बलदेव वैद, उदयप्रकाश आदि लेखकों की रचनाओं का प्रयोग करते हैं जिनकी
भाषा थोडी कठिन होती है। एम०ए० के छात्रों को इन सब लेखकों के साथ साथ समकालीन नए
लेखकों की रचनाओं का भी परिचय दिया जाता है।
तीसरे साल से हम
छात्रों को साहित्य के साथ-साथ अलग से राजनीतिक, आर्थिक, दार्शनिक और सामाजिक विषयों पर विभिन्न निबन्ध
भी पढ़ाते हैं। निबन्ध इस आधार पर चुने जाते हैं कि उन में तात्कालिक समस्याएँ पेश
की गई हों ताकि हम छात्रों के साथ उन समस्याओं के समाधान के तरीकों पर भी दिलचस्प
वाद-विवाद कर सकें। हम सब भरसक प्रयत्न करते हैं कि छात्र कुछ सीख के यांत्रिक तौर
पर उसे न दोहराएँ बल्कि प्राप्त किए हुए ज्ञान का रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल
करें। इसलिए हम छात्रों को अपने विचार व्यक्त करने के लिये भी प्रोत्साहित करते
हैं।
इस स्थिति में
हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में भी एकदम नई समस्याएँ पैदा हो गईं। सबसे
बड़ी समस्या तो यह थी कि अब नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को यह भी बताना पड़ता था कि
हिन्दी सीखने के बाद उनके लिए नौकरी पाने
की कोई गारण्टी नहीं है। पहले हम सोचते थे कि इस नई दुनिया में बहुत कम लोग हिन्दी
सीखने आएँगे, लेकिन ऐसा नहीं
हुआ। सरकार की नीति बदलती रही, लेकिन युवा रूसी पीढ़ी पहले की तरह जिज्ञासु रही और भारतीय
संस्कृति तथा सभ्यता में रूसी लोगों की दिलचस्पी बढ़ती गई। धीरे-धीरे छात्रों को
यह मालूम होने लगा कि इस नए वातावरण में भी ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हिन्दी का
इस्तेमाल किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर भारतीय भाषाशास्त्र के छात्रों के लिए
हिन्दी में लिखे मानक हिन्दी के व्याकरण ही नहीं बल्कि हिन्दी बोलियों के व्याकरण
पढ़ना भी जरूरी है। भारतीय समाजशास्त्र के छात्रों को आम लोगों से बात करने के लिए, टी०वी० आदि जनसम्पर्क
साधनों द्वारा प्रसारित राजनीतिक वाद-विवाद को समझने के लिए अच्छी हिन्दी आनी
चाहिए। हर छात्र को – चाहे वह भारतीय अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ बनना चाहता हो या
प्राचीन भारतीय इतिहास सीखना चाहता हो – भारतीय जनता की मानसिकता समझने के लिए,भारतीय जीवन को
जानने-बूझने के लिए हिन्दी में लिखा गद्य और पद्य पढ़ना बहुत जरूरी है। और अन्ततः
हिन्दुस्तानी लोग कितनी भी अच्छी अँग्रेज़ी क्यों न जानते हों उनके साथ तभी असली
दोस्ती बनी रह सकती है, जब उनकी मातृभाषा में उनसे सम्पर्क और बातचीत होती है। इस
तरह पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण या पुनर्गठन) के दौर के बाद भी रूस में हिन्दी
सीखने के इच्छुक युवक-युवतियों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई। उल्टा हिन्दी
सीखनेवालों की तादाद कई गुणा बढ़ गई। लेकिन वक़्त के तकाज़ों के अनुसार और छात्रों
की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं के अनुकूल हिन्दी शिक्षण की विधि बदलनी पड़ गई।
सब से पहले
पुरानी किताबें छोड़कर नई पाठ्य-पुस्तकें चुननी पड़ीं। हिन्दी शिक्षण के कुछ
केन्द्रों में, मिसाल के तौर पर मास्को अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विश्वविद्यालय में यह माना
जाता है कि अपनी ही पाठ्य-पुस्तकें तैयार करके छात्रों को उन्हीं के माध्यम से
हिन्दी पढ़ाई जानी चाहिए। परन्तु मास्को विश्वविद्यालय और मानविकी राजकीय
विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों का ख़याल है कि अगर हम अपनी ज़रूरत के अनुसार किसी
दूसरी मौजूद किताब को ले सकते हैं तो नई किताब बनाने की क्या ज़रूरत है? इसीलिए मास्को
विश्वविद्यालय में हमने हिन्दी का आधारभूत कोर्स पढ़ाने के लिये रूपर्ट स्नेल और
साईमन वाईटमन की किताब ’टीच योरसेल्फ़ हिन्दी’ और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित ’हिन्दी रिकार्ड / कैसेट
की वाचन-पुस्तिका’ को चुना। इसका मुख्य कारण यह है कि दोनों किताबों में लेखकों ने बोल-चाल की
शब्दावली चुनने में कमाल किया है। लगता है कि उन्होंने शब्द आवृत्ति कोश का
इस्तेमाल किया है। दूसरी बात यह है कि दोनों किताबें हिन्दी बोलने का अभ्यास कराने
के लिये लाभदायक लगती हैं। दोनों किताबों में सम्वाद हैं जिन की बुनियाद पर छात्र
अपने सम्वाद बनाकर पहले ही पाठ के बाद से आसानी के साथ हिन्दी में थोड़ी-बहुत
बातचीत करने लगते हैं। मास्को विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार हमारे यहाँ पढ़ाई
का माध्यम रूसी भाषा है इसलिए हर पाठ के अन्त में जो शब्दावली दी गई है उसका हमें
रूसी में अनुवाद करना पड़ा।
व्याकरण का
अनुवाद हमने नहीं किया क्योंकि रूपर्ट स्नेल और साईमन वाईटमन की किताब उन
विद्यार्थियों के लिए लिखी है जिनकी मातृभाषा अँग्रेज़ी है। अँग्रेज़ी और रूसी
बोलनेवाले छात्रों को हिन्दी भाषा सीखते समय अलग-अलग दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता
है। उदाहरण के तौर पर रूसी छात्रों के लिये ‘अपना’ जैसे सर्वनाम का प्रयोग करना कठिन नहीं है
क्योंकि रूसी में भी ऐसा सर्वनाम है जबकि अँग्रेज़ी बोलनेवाले विद्यार्थियों को
समझाना पडता है कि यह सर्वनाम कैसे इस्तेमाल किया जाए। उल्टा अँग्रेज़ी व्याकरण में
नियमित रूप से यह अन्तर प्रकट किया जाता है कि क्रिया का व्यापार करनेवाला ख़ुद
कर्ता है या यह व्यापार किसी मध्यस्थ के जरिए किया जा रहा है। रूसी में ऐसा नहीं
है। आदमी चाहे ख़ुद कुछ सीता है या किसी से सिलवाता है – रूसी में एक ही क्रिया का इस्तेमाल किया जाता
है। इसलिये रूसी छात्रों के लिये व्याकरण बनाने से पहले हिन्दी और रूसी भाषाओं का
तुलनात्मक अध्ययन करना पड़ता है।
राजनीतिक, आर्थिक, दार्शनिक और सामाजिक
विषयों पर वाद-विवाद करते समय कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सब से बड़ी
समसया बोलचाल की भाषा की समस्या है। हिन्दी पढ़ाने के पाठ्यक्रमों में हमेशा लिखा
होता है कि पहले बोल-चाल की भाषा सिखाई जाए और इस के बाद ‘किताबी’ हिन्दी पर ज़ोर दिया जाए। आम तौर पर बोल-चाल की
हिन्दी का मतलब होता है -- शादी-वादी, खाने-वाने की बातें करने की क्षमता, यानी अपने परिवार के बारे में बताना, परिचय करना-कराना, रास्ता पूछना आदि। ऐसी
बातें सिखाने के लिये बहुत-सी किताबें लिखी जा चुकी हैं। लेकिन गम्भीर विषयों पर
बातचीत करने के लिए अभी तक किसी ने कोई किताब नहीं लिखी है। अँग्रेज़ी की तरह रूसी
में भी जो शब्द राजनीति पर लिखे निबन्ध में उपयोग किए गए वही शब्द दोस्ताना बातचीत
में इस्तेमाल किए जाएँगे। इसलिए अगर हमारे छात्रों को ’अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ’ जैसा पारिभाषिक शब्द
समाचार-पत्र में पढ़ने को मिलता है तो वही शब्द वे बातचीत में उपयोग करते हैं। जब
हिन्दी बोलनेवाले उनकी भाषा कृत्रिम तथा किताबी समझते हैं तो छात्र परेशान होकर
अध्यापक पर दोष लगाते हैं कि उन को ग़लत भाषा सिखाई गई थी। ऐसे किसी मामूली नियम से
काम नहीं चलता कि सारे तत्सम शब्दों के बदले अँग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल करो
क्योंकि कोड स्वीचिंग के नियम इतने आसान नहीं हैं। ये नियम समझने के लिये ज़्यादा
अनुभव चाहिए। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसा अनुभव प्राप्त करना आसान नहीं है क्योंकि
पढ़े-लिखे लोग आम तौर पर गम्भीर विषयों पर अँग्रेज़ी में बात करते हैं और जिन लोगों
को अच्छी शिक्षा नहीं मिली है, उनको गम्भीर बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है।
कुछ और समस्याएँ
भी हैं जिनको हम सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन एक बहुत बड़ी समस्या का
समाधान हमारे बस की बात नहीं है। यह है हिन्दी के उपयोग का विस्तार। जब हिन्दी का
हर औपचारिक क्षेत्र में इस्तेमाल किया जाएगा, हमारे विद्यार्थियों को अपनी मेहनत का फल
मिलेगा। कभी-कभी कहा जाता है कि जवान पीढ़ी नालायक है, उसको पैसे का लालच है, ज्ञान का नहीं। हमारे विद्यार्थी ऐसे नहीं हैं।
वे भारत के बारे में ज़्यादा ज्ञान प्राप्त करने में बहुत रूचि लेते हैं इसलिए
विश्वास से कहा जा सकता है कि रूस में हिन्दी का भविष्य उज्जवल है।
2 टिप्पणियां:
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति कादम्बिनी गांगुली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
विस्तृत जानकारी हेतु धन्यवाद.
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