मुक्तक
१.
मैं बांच भागवत देता हूँ तुम मौन में जो कुछ कहती हो।
मैं विश्वरूप बन जाता हूँ मेरे आस पास जो रहती हो।
संतापित मन मेघ बन गया सुनकर के मल्हारी गीता,
मैं अर्जुन सा हो जाता हूँ तुम माधव जैसी लगती हो।
२.
लहर पर बिछलाती है नाव।
धूप पर बादल डाले छाँव।
दिन असाढ़ के भीग रहे जैसे,
तुम्हारे पायल वाले पाँव।।
३.
पानियों में सिमटती रहीं बिजलियाँ।
मेरे छत पर सुलगती रहीं बदलियाँ।
अबके सावन की बूंदों में है खारापन,
बारिशों को भिगोती रहीं सिसकियाँ।
४.
स्वाभिमान से जीना है तो लाचारी से दूर रहो।
रोटी दाल भली है पूड़ी तरकारी से दूर रहो।
चैन मिलेगा पैर पसारो जितनी लम्बी चादर है,
उम्मीदों सपनों को बेंचते व्यापारी से दूर रहो।
5 टिप्पणियां:
जय मां हाटेशवरी....
आपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 10/05/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 298 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (11-05-2016) को "तेरी डिग्री कहाँ है ?" (चर्चा अंक-2339) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पवन जी आपकी ये रचना बहुत अच्छी है आपकी रचनाओं में एक सार्वभौमिक रूप से हर प्रकार की चीज़ का एक मिश्रित रूप देखने को मिलता है आपके ये मुक्तक बहुत ही सुन्दर तरीके से रचित हैं आप अपनी इसीप्रकर की रचनाओं को
शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं जिससे यह और भी पाठकों तक पहुँच सके .........
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