सोमवार, 10 अगस्त 2015

राम खेलावन कईसे संपरी

बिल्ली रोएस भरी दोपहरी
राम खेलावन कईसे संपरी।  

पटा इनारा हटा दुआरा
ड्योढ़ी वाला बंद मोहारा
डंडवारी के उठिगै छूही,
राम खेलावन कईसे संपरी। 

बाप पूत मा रार मची है
भाईन में तलवार खिंची है
बाबा मरिगै पड़ी है अर्थी,
राम खेलावन कईसे संपरी।  

मेहरारू बीएड अलबत्ता
मंगरू मांगि रहे हैं भत्ता
लरिका बेंचे मरचा मुरई,
राम खेलावन कईसे संपरी। 

खेत कियारी सरपत जामें
फरसा कऊन चलावे घामें
मोबाइल पे लगी है अँगुरी,
राम खेलावन कईसे संपरी। 

रिश्ता नाता होइगै कीसा
गऊँवा में घुसिगे अमरीका
खेत बेंचि के खायें बरफी,
राम खेलावन कईसे संपरी।







गुरुवार, 16 जुलाई 2015

बारहमासी :अइहैं मोर अंगनवाँ हमार बलम

यह लोकगीतों का बारहमासी संस्करण है...लिखने का प्रयास किया है उम्मीद है आप लोग आनंदित होंगे ..


होइहैं कऊन सुदिनवाँ हमार बलम। 
होइहैं कऊन सुदिनवाँ हमार बलम। 

अइहैं मोर अंगनवाँ हमार बलम,
अइहैं मोर अंगनवाँ हमार बलम। 

जबसे लागे है सईंया चईत महिनवा
जबसे लागे है सईंया चईत महिनवा,
टिपटिप चुएला पसिनवाँ हमार बलम। 


परेला फुहार पिया चमके बिजुरिया
परेला फुहार पिया चमके बिजुरिया,
आगि लगावे सवनवाँ हमार बलम। 

काटे कटे न राजा पुसवा के रतिया
काटे कटे न राजा पुसवा के रतिया,
थर थर काँपे बदनवाँ हमार बलम। 

उडि जा रे कगवा उडि जा रे कगवा
उडि जा रे कगवा उडि जा रे कगवा,
आए ना मोर सुगनवाँ हमार बलम।   


  


गुरुवार, 25 जून 2015

रात भर

आग में भीगता ही रहा रात भर,
रेशमी रेशमी सा जला रात भर I
इश्क की आंच होती रही शबनमी,
चाँद होंठो पे ठहरा रहा रात भर I
कैसे पागल ये बादल हुआ आज भी
तेरी जुल्फें भिगोता रहा रात भर I
मुस्कराती हवा जानें क्या कह गयी,
फूल का दिल धड़कता रहा रात भर I
इस तरह से कहानी मुकम्मल हुयी,
नाम तेरा मैं लिखता रहा रात भर I

बुधवार, 24 जून 2015

लागि झूमि झूमि बरसे बदरिया




मानसून 2015  की पहली बारिश ....रात भर बूंदे झरती रहीं ...पानी का झर्रा बालकनी से कमरे में जानबूझ कर आ रहा था ...सावन की आहट ... एक कजरी का लिखना तो तय था ..ये अलग धुन में तैयार किया है ...आनंद लीजियेगा ...
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लागि झूमि झूमि बरसे बदरिया,
आए ना संवरिया ना।
कारी कारी घटा छाई
चारउ ओर अन्हराई
चारउ ओर अन्हराई-२
रतिया लागे अइसे जइसे मोर सवतिया,
कइसे बोली बतिया ना।
दईव जोर जोर गरजा
कांपे लागे हो करेजा
कांपे लागे हो करेजा-२
परलय आज होई गिरेला बिजुरिया,
हीलेला बखरिया ना।
जमुना बाढ़े भरिके पानी
राम कईसे हम जुड़ानी
राम कईसे हम जुड़ानी-२
सुग्गा बोले जाने कऊन से नगरिया,
मिले ना खबरिया ना।
...डॉ पवन विजय

मंगलवार, 12 मई 2015

थोड़ी देर सही

बात समझ में आ जाएगी थोड़ी देर सही
सारी उलझन थम जाएगी थोड़ी देर सही।

गुमसुम गुमसुम क्यूँ बैठे हो कोई बात करो
बात बात में बन जाएगी थोड़ी देर सही।

तुम भी बादल बन जाओगे बरसोगे भीगोगे
मेरी दुआ असर लाएगी थोड़ी देर सही।

नींद न आए आँखों में ख़्वाब कोई भर लेना
ऐसे रात गुजर जाएगी थोड़ी देर सही।

नफरत से ही सही पर कुछ मुझसे बात करो
तुमको मुहब्बत हो जाएगी थोड़ी देर सही।

गुरुवार, 19 मार्च 2015

मोरे सइयां मारे रे।।

लोकगीतों में तात्कालिक समाज की सारी घटनाएं बिना किसी सेंसर के देखी जा सकती हैं... ऐसा एक प्रसंग है औरतों के प्रति घरेलू हिंसा का। एक मार्मिक गीत देखिये ..
सासु मोरा मारे,ननद मोरा मारे, मोरे सइयां मारे रे।
बबूर डंडा तानि तानि, ए माई मोरे सइयां मारे रे।।
सासु मारे सुट्कुनिया, ननद मारे पटुका।
मुंगरी से मारे तानि पिठिया मोरे सइयां मारे रे।।

सास या ननद के द्वारा मारे जाने पर स्त्री को जरा भी दुःख नही है । उसकी छाती इसलिए फटती है कि जिसे वह अपना रक्षक और देवता समझती जिसे उसने कोमल स्नेह और मनुहार दिया उसने मारा। उसके पति ने उसे मारा जिसने उसकी सुरक्षा की शपथ अग्नि के सामने ली।

सासु के न दुखवा, ननद के न दुखवा मोर छतिया फाटे रे।
मोरे राजा तोरई गोडवा करेजा फाटे रे।।
इतने सब के बाद वह अपना दुःख माँ बाप से नही कहती...

माई रोइहीं मचिया बईठे बाबू रोईहीं खटिया रे।
सुनि के मोरा रे दरदिया ऊ दूनू रोइहीं रे। ।

रविवार, 15 मार्च 2015

कान्हा पागल रोयेगा।।

प्यासी प्यासी नदी रहेगी जंगल जंगल रोयेगा।
सागर सा तन लिये उदासी मन गंगाजल रोयेगा।।

बहते दरिया को गर यूँ  ही जंजीरों में बाँधोगे,
जिस दिन सावन आयेगा उस दिन ये बादल रोयेगा।।

कभी नही लौटा बेटा जिस दिन से जा परदेस बसा, 
अबकी बारिश में भी अम्मा का फिर आँचल रोयेगा।।

सुना कि फिर से जहर पिया है इक दीवानी मीरा ने,
उस पगली के नाम से अब ये कान्हा पागल रोयेगा।।

जब जब दो दिल प्यार करेंगे याद तुम्हारी आयेगी ,
मेरी आँखे हँस देंगी पर तेरा काजल रोयेगा।।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।।

होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।
होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।।

नंद बबा खेलें घर के दुअरिया
नंद बबा खेलें घर के दुअरिया
मईया जसोमति ओसारे ओसारे
मईया जसोमति ओसारे ओसारे

राधा जी खेलें अंगनवा में,
होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।।

केहू त हरियर पियर भै केहू
केहू त हरियर पियर भै केहू 
लाल भै गईया मकर भै बछरू 
लाल भै गईया मकर भै बछरू 

गोकुल भै श्याम रंगनवा में, 
होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।। 

रसिया में झूमें बिरज बरसाने
रसिया में झूमें बिरज बरसाने
मोहन सुनाय रहे बंशी की तानें 
मोहन सुनाय रहे बंशी की तानें 

मचि गईली धूम भवनवा में, 
होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।।

होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।।
होली खेलें कन्हाई फगुनवा में।।


















सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

तेरे ही नाम से काफिर

गुजरती शाम छत पे चाँद आहिस्ता उतरता है
तेरी यादों के जंगल में कहीं चंदन महकता है ।
कहाँ ले जायेगी ये इश्क की दीवानगी हमको
बरसते बादलो की प्यास दरिया कब समझता है।
कभी पतझड़ सा होता है कभी मधुमास बन जाता
तेरी झुकती हुयी पलकों से मौसम रुख बदलता है।
मिटाकर के सियाही रात की सूरज निकालेगा
इसी उम्मीद में कोई दिया बुझ बुझ के जलता है।
कयामत को हमारा हाल क्या होगा पता फिर भी
तेरे ही नाम से काफिर ये पागल दिल धडकता है।

सोमवार, 26 जनवरी 2015

हे हो संवरिया तु जईहो बजरिया लियईहो चुनरिया खादी की

छब्बीस जनवरी की तैयारी एक हप्ते पहले से ही शुरू हो जाती। हम बच्चो में अजीब सा उत्साह होता। कुछ में मिठाई खाने की, कुछ में जोर से नारे लगाने में, कुछ में तिरंगे को थाम प्रभात फेरी कराने को लेकर। हमारे पटीदार वकील साहब के सुपुत्र  चिरंजीव रवीन्द्र  बड़ेवाले  मिठाईखोर थे। मास्टर की आँख में धूल झोंक कर लड्डू कैसे उडाये यह कला रवीन्द्र में पैदायशी थी।

सुबह सात बजे हम सब स्कूल पहुँच जाते। प्रधानाचार्य जी के साथ गांधी टोपी लगाये मूंछो पर ताव दिये  बाबू मैन बहादुर सिंह  अकड़ के साथ तिरंगा फहराते। जन गण मन की  धुन से  हमारे रोम रोम पुलकित हो जाते थे जो आज भी बदस्तूर जारी है। देश को क्या निछावर कर दूं मन कुलांचे मारता।

झंडारोहण के बाद  प्रभात फेरी का कार्यक्रम होता था।' क्लास मॉनिटर होने के नाते विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊंचा रहे हमारा' गाते हुये मैं तिरंगे को लेकर आगे आगे चलता पीछे बच्चा फ़ौज। फेरी गाँव के सब दरवाजे से होकर गुजरती थी। हर दरवाजे पर जाकर भारत माता की जय  जोर से बोलता। घर के लोग कुछ न कुछ हम लोगों को खाने को देते कुछ पैसा देते। फेरी के दौरान हम सुक्खू कक्का के यहाँ पहुंचे वो गोबर बटोर रहे थे, आचार्यजी ने पूंछा,' काहे हो सबेरे सबेरे गोबर बटोर रहे ?' सुक्खू बोले ' का करी मास्टर साहेब बाजा (रेडियो) में सुने है कऊनो रूस से गोबराचोर आवा है एही बार इही खातिर सब गोबर बटोर के फटाफट खेतवा में डरवावत हई।' सब हंस पड़े। मिखाईल गोर्वाच्योफ़ उन दिनों मुख्य अतिथि थे शायद।

वापस स्कूल आने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। समूहगान में 'हे हो संवरिया तु जईहो बजरिया लियईहो चुनरिया खादी की...जय बोलो महतमा गांधी की' मन को छूने वाला होता था। एक महेंद्र नाम का लड़का था बहुत प्यारा गाता था ' जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा वो भारत देश है मेरा' ...पूरा  माहौल झुमा देता था। 'कमल के  फुलवा के उडी उडी खिलावे भंवरा' चन्द्रकेश गाता था। बाबूसाहब भी गाना सुनाते थे 'आओ बच्चों तुम्हे दिखायें झांकी हिन्दुस्तान की इस  मिटटी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की'।

मिष्ठान वितरण की  घोषणा के साथ हम सब चौकन्ने हो जाते थे। मुद्दा था की मिठाई खानी भी है घर भी ले जाना है। इस मौके पर रवीन्द्र की कलाकारी देखते ही बनती थी। वह तब तक  बार बार लाइन में लग लड्डू लाता रहता जब तक पकड़ा ना जाता। लड्डू खाते भारत माता की जय करते हम घर वापस लौटते।

छब्बीस जनवरी की हार्दिक शुभकामनायें :)