हिंदी
का उन्नयन: समस्यायें और समाधान
भारत एक लोकतान्त्रिक
देश है। लोकतंत्र
में जनमत के आधार पर नीतियां
तय की जाती हैं। जो लोग जनप्रतिनिधित्व
के इच्छुक होते हैं वह जनता के पास जाते हैं और जनकल्याण
हेतु अपना एजेंडा
उनके सम्मुख रखते हैं। जिसका
एजेंडा जनता को सही लगता है जनता उसे अपना प्रतिनिधि
चुन लेती है। जाहिर
है इस व्यवस्था
में जनता और जनप्रतिनिधि
में व्यापक संवाद
होता है। अब सवाल यह उठता है कि संवाद
का माध्यम क्या है? जनभाषा
या किसी ऐसे देश की भाषा जिसे जनता समझती
ही न हो। अगर सत्ता
की भाषा कुछ और है तो इसका मतलब लोकतंत्र
है ही नहीं।
फिर कौन सा तंत्र
हिन्दुस्तान को चला रहा है जहां जनभाषा
में संवाद ही नहीं होता।
कुछ लोग यह प्रश्न
कर सकते हैं कि जनभाषा
के क्या मायने
हैं ? इसका उत्तर
बिलकुल सरल है। एक ऐसी भाषा जिसे कश्मीर
से लेकर कन्याकुमारी
और अटक से कटक के लोग समझते
हों। फिर से यह पूछा जाएगा
कि लगभग डेढ़ सौ भाषाओं
और साढ़े पांच सौ बोलियाँ
जिस देश में प्रचलित
हो वहां कोई एक भाषा क्या हो जिसे लोग समझें
? बात वाजिब
है कोस कोस पे बदले पानी चार कोस पे बानी वाले देश में कोई एक भाषा जो सबको समझ में आती हो सभी बोलियों
भाषाओं को साथ लेकर चलने में समर्थ
हो,
को ढूँढना सरल नहीं माना जाता किन्तु
ऐसे में क्या यह बात सही है कि कोई विदेशी
भाषा थोप दी जाय ?
मैं ज़रा लगभग २३०० साल पीछे एक घटना याद दिलाना
चाहूंगा जब देवों
के प्रिय अशोक ने जनता के साथ शिलालेखों
के माध्यम से संवाद
किया था। उन्होंने
जनसम्पर्क भाषा का प्रयोग
कर अफगानिस्तान से लेकर श्रीलंका
तक अपने संदेशो
को सफलता पूर्वक
जनता तक पहुँचाया।
इस प्रकार
जनभाषा विभिन्न प्रकार
के व्यवहारों, यातायात, पर्यटन, संपर्क, विभिन्न सामाजिक
कार्यों व प्रयोजनों
में सरलता ,
सहजता,प्रभावपूर्णता
और व्यापकता के साथ भावों
की समझ और उसके प्रत्युत्तर
का सशक्त माध्यम
है। इस लिहाज
से भारत की भाषाओँ
का अवलोकन किया जाय और अंगरेजी
को भी इसमें
शामिल कर लिया जाय तो हिंदी
ही सबसे लोकप्रिय
और सशक्त संपर्क
भाषा के रूप में सामने
आते है। इतना ही नहीं बल्कि
विदेशों में भी हिंदी
पर्याप्त प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर कर आती है। जब १५० से अधिक अंतर्राष्ट्रीय
विश्वविद्यालयों में यह पढ़ाई जाती है। अमेरिका
जर्मनी इंग्लैंड ऑस्ट्रेलिया
कनाडा मॉरीशस आदि देशो में बेस १.४ करोड़ भारतियों
के बीच संपर्क
स्थापित करती है और वर्तमान
भारत के प्रधानमंत्री
द्वारा विश्वपटल पर हिंदी
के जरिये लोगों
से संपर्क स्थापित
करने के सफल प्रयास
नई: सन्देश हिंदी
को सहज संपर्क
भाषा सिद्ध करते है।
वस्तुतः राजभाषा
और राष्ट्रभाषा और संपर्क
भाषा का विभेद
ही गलत है। जो भाषा तकरीबन
सम्पूर्ण राष्ट्र के साथ संवाद
करती है वह भाषा ही एक साथ राजभाषा
राष्ट्र भाषा और जनभाषा
तीनों के रूप में एकसाथ
उपयुक्त है। बाकी बोली और परिवेश
अलहदा विषय है।
इसी बात की पुष्टि
१८२४ में एलफ़िन्स्टन
की अध्यक्षता में बनाये
गए शिक्षा पर मिनट करता है। एलफ़िन्स्टन
रिपोर्ट कहती है कि नैतिक
और प्राकृतिक वज्ञानों
की पुस्तकें 'भारत की आधुनिक
भाषाओं'
में तैयार करवाई
जाये और उन्ही
भाषाओं के द्वारा
भारत की जनता शिक्षित
किया जाय। किन्तु एलफ़िन्स्टन
के इस प्रस्ताव
को 'वार्डन ' ने नकार कर फिल्ट्रेशन सिद्धांत
को प्रस्तुत किया।
दिनकर जी इस बात को रेखांकित
करते हुए कहते हैं कि जिन प्रश्नों
को लेकर आज के नेता एवं विचारक
बार बार माथा पच्ची
कर रहे हैं उसी मुद्दे
पर आज से पौने दो सौ साल पहले कैप्टन
कैंडी ने पहचाना
और भारत लिए अंग्रेजी
भाषा को महत्वहीन
बताया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट
में कहा कि अंगरेजी
का जरूरत से जयादा
भरोसा करना बेकार
है। भारतीयों की शिक्षा
के कर्म में अंगरेजी
केवल और केवल विषय दे सकती है माध्यम
नही बन सकती।
जिस भाषा शिक्षित
भाषा केवल सकती है। लेकिन
चार्ल्स ग्रांट और मैकाले
के कारण कैंडी
रिपोर्ट भी लागू नही हो पायी और अंत में वुड डिस्पैच
के माध्यम से फिल्ट्रेशन
सिद्धांत को लागू कर दिया गया। शिक्षा
माध्यम की इस द्वैध
नीति का परिणाम
यह है कि आज तक भारत में शिक्षा
का व्यापक प्रसार
नही हो पाया।
कोठारी आयोग ने लगभग सवा सौ साल बाद भी उसी नीति पर अपनी मोहर लगा कर आने वाली पीढ़ियों
के लिए हिन्दी
वाले रास्ते को बंद कर दिया।
हिंदी को आधुनिकता,
विज्ञान, सामाजिक स्तर और समझ में उलझा कर इसके साथ अन्याय
किया जा रहा। व्यवहार
में हिंदी को लेकर लोगों
ने जो समस्याएं
व्यक्त की हैं उनको मैं बिन्दुवत
रख रहा हूँ
१. हिन्दी
के उपयोगिता क्या है ? तात्पर्य यह है कि तथाकथित
साक्षात्कार अंगरेजी माध्यम
में होता है तो उस जगह हिन्दी
से पढ़कर आने वालो को वरीयता
नही मिलती इससे सबक लेकर सभी अपने बच्चों
को अंगरेजी माध्यम
विद्यालयों में पढ़ाने
लगते है और अंगरेजी
को ज्ञान का पर्याय
समझा जाने लगता है। इस प्रवृत्ति
के भयंकर दुष्परिणाम
होने लगते है। और हिन्दी
धीरे धीरे नेपथ्य
में चली जाती है। तो मुद्दे
की बात हिन्दी
को पढ़ने या हिन्दी
माध्यम में पढ़ने से आम आदमी को क्या मिलेगा?
२. हिंदी
भाषा को लेकर चारो ओर हीनता
का माहौल बना दिया गया है। मीडिया
से लेकर फिल्मों
तक ऐसा कर दिया गया है जिसमें
हिंदी बोलने वाला मसखरा
साबित हो जाता है। हिंदी
समाचार पत्रों की शब्दावलियों
में में ६०:४० के अनुपात
में अंग्रेजी के शब्दों
को घुसेड़ दिया गया ( उदाहरण
के लिए नवभारत
टाइम्स ) हैं। आपको पढ़े लिखे
हिंदी को विशेष
ढंग से नाक के बल से बोलें
और अंगरेजी शब्दों
का अधिकतम प्रयोग
करें।
३. हिंदी
को बाहर से 'इनपुट' नही मिल रहा और जो हिंदी
व्यवस्था में बनी है वो लोगों
की जरुरत पूरा करने में कठिनाई
महसूस कर रही है। साथ ही उसे विकृत
कर अनुपयोगी घोषित
करवाने का पूरा पूरा प्रयास
किया जा रहा है।
४. हिंदी
भाषा के मानकीकरण
पर प्रश्न चिन्ह
लगता रहा है।
५. अनुवाद
की भारी समस्या
है। अनुवाद को जानबूझ
कर या अल्पज्ञ
लोगों को इसमें
शामिल कर अनुवाद
को कठिन बोलचाल
से दूर एवं मजाक बना दिया जाता है। भाषा को भावों
के आधार पर अनुवाद
करने की बजाय 'मच्छिकाम प्रमाणं
' की तकनीक
का प्रयोग किया जाता है। इसका उदाहरण
संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं
में मिलता है। जब स्टील
प्लांट का अनुवाद
इस्पाती पौधे के रूप में किया जाता है वहीँ हिंदी
अपनी दुर्दशा से रूबरू
हो जाती है।
६. हिन्दी
प्रकाशन की उपेक्षा
भी हिन्दी के राष्ट्र
भाषा बनने में रुकावट
है।
७. दक्षिण
भारत की भाषाओं
को उत्तर में यथोचित
सम्मान न मिलना
भी हिंदी को सम्पूर्ण
भारत स्वीकृत न मिलने
का कारण बनता है।
८. हिंदी
में स्वयंसेवको की अत्यंत
कमी है। प्रूफ
रीडिंग की बात हो या अनुवाद
की हिन्दी को बिना शुल्क
लिए सेवा करने वाले बहुत थोड़े हैं।
उपर्युक्त समस्याएं
आधारभूत हैं। इन प्रश्नों
के उत्तर और समाधान
में ही हिंदी
का विकास ,
प्रसार निहित है। समाधान
निम्न लिखित रूप में प्रस्तुत
हूँ।
१. हिंदी
की उपयोगिता, उसमें कामकाज
और रोटी रोजगार
सुस्पष्ट नीति बनें।
२. मीडिया
मनोरंजन उद्योग में 'मिक्स्ड लैंग्वेज' के प्रयोग
पर नियमन हो। २ से ५ प्रतिशत
स्वाभाविक भाषायी लेन देन के अलावा
सारे घुसेड़े शब्द हिंदी
को
कुचलते हैं।
३. बाहरी
भाषा के शब्दों
को यदि वे चलन में हों तो उन्हें
मौलिक स्वरुप में ही प्रयोग
में लाना चाहिए।
जैसे रेलगाड़ी को लौहपथगामिनी
लिखने की जरूरत
नही।
४. हिंदी
में अनुवाद और मानकीकरण हेतु प्रभावकारी
समिति बने और इन समितियों
की गुणवत्ता की निगरानी
और लक्ष्यपूर्ति का कड़ाई से ध्यान
दिया जाय। ६० दशक में इस विषय पर शंभूरत्न
त्रिपाठी,
नगेन्द्र,
रामधारी सिंह दिनकर
आदि द्वारा अत्यंत
मौलिक कार्य किये गए थे जिसे बाद में ठप कर दिया गया।
५. हिंदी
भाषी क्षेत्रों में एक दक्षिण
की क्षेत्रीय भाषा का अध्यापन
अनिवार्य कर दिया जाय।
६. समस्त
अधिकारियों और नेताओं
से अपने बच्चे
हिंदी माध्यम में पढ़वाने
का शपथ पत्र भरवाया
जाय।
७. जो व्यक्ति
जिस भाषा में कौशल पूर्वक
कार्य करने में समर्थ
हो उसे उसी में कार्य
करने दिया जाय।
८. हिंदी
भाषा में विश्व स्तरीय
अकादमिक सामग्री की उपलब्धि
सौ प्रतिशत सुनिश्चित
हो।
९. मानक भाषा के रूप में अंग्रेजी
को ख़त्म किया जाय।
१० क़ानून
और शिक्षा में हिंदी
के प्रयोग को वरीयता
मिले।
११. हिंदी
में दवाईयों के नाम, लेबल और बैंक में भी हिंदी
के प्रयोग को प्रोत्साहित
किया जाय।
इस प्रकार
हिंदी का गौरव उसकी गुणवत्ता
से आम जन मानस से परिचित
कराकर पूरे देश में इसकी स्वीकार्यता
के एहसास
को सरकार तक पहुंचाकर
हम हिंदी को शीर्ष
पर पहुंचा सकेंगे।
डॉ पवन विजय