कोई भी आंदोलन किसी नेता की बपौती नहीं है। हाँ नेता सही चैनल देने में मदद करता है यदि वही नीर क्षीर विवेक वाला है तो। आंदोलन अपना नेतृत्व तलाश लेता है।
स्वतंत्रता के बाद आंदोलनकारी के रूप में पहले एंटी कांग्रेस ताकतें सक्रिय रही चाहे वह लोहिया के नेतृत्व में हो या जेपी के। लेकिन आंदोलन में सबसे ज्यादा मार जनता को ही पड़ती है।
1975, 1989 और 2011 में देश बड़े आंदोलन देख चुका है। विगत दो आंदोलनों की अपेक्षा 2011 में हुये आंदोलन प्रकृति कुछ अलग सी रही। इस बार यह आंदोलन पूरी तरह से जनता के हाँथ रहा। इस आंदोलन के चेहरे के रूप में बाबा रामदेव, अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल सामने आये। ये लोग इस भ्रम में थे कि जनता उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व से अभिभूत हो उनके एक इशारे पर सरकार ईंट बजा देगी। मैं इसे भरम ही कहूँगा क्योंकि जनता की अपनी आकांक्षाएं और उम्मीदें होती है। वह उन उम्मीदों की पूर्ती के लिये सड़कों पर आती है। ऐसे में खुदमुख्तारी भारी पड़ती है आंदोलन और व्यक्तिगत दोनों।
बाबा रामदेव पर लाठीचार्ज और उनका महिला के वेश में वहाँ से भागने का आंदोलनकारियों और जनता में नकारात्मक सन्देश लेकर गया। पूरी उम्मीदों और जनता का स्थानांतरण अन्ना आंदोलन में देखने को मिला। अन्ना पूरी तरह अरविन्द और मैनेजिंग कमेटी पर निर्भर थे। बार बार आंदोलन और सही दिशा के अभाव में जनता उनसे छिटकने लगी। इस बात को अरविन्द केजरीवाल ने भांप लिया और अन्ना से अलग होकर पार्टी बना ली। लोगों में गुस्सा तो था ही सो एक बार दिल्ली में केजरीवाल को भी मौक़ा मिला लेकिन केजरीवाल अपनी व्यक्तिगत कमजोरियों से उबर न सके और जनता फिर से विकल्पहीन। इस दौरान गुजरात से उसे सकारात्मक सन्देश मिल रहे थे। बाबा रामदेव ने पर्दे के पीछे से मोदी की बैंकिंग करनी शुरू कर दी थी। जनता ने चुनावों के दौरान मोदी को विकल्प मान लिया और मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए।
अब जनता की उम्मीदें और उस पर मोदी की चुप्पी। छात्रों ने फिर अंगरेजी के मुद्दे पर माहौल को गरमा दिया है। यह आंदोलन भी विकल्प की तलाश करेगा अगर मौजूदा विकल्प जल्द ही न चेता। जनता से ज्यादा दिन नही खेला जा सकता।
--
--
1 टिप्पणी:
चुपी साध लेना किसी समस्या का हल नहीं ..
बहुत बढ़िया सामयिक प्रस्तुति
एक टिप्पणी भेजें