इस समय मीडिया की अवस्था देखकर मुझे रामायण की एक कथा याद आती है जिसमे नारद एक सुन्दरी विश्वमोहिनी के रूप जाल में फंस कर अपने धर्म से विमुख होकर उसके स्वयंवर में एक उम्मीदवार बन कर दरबार में पहुँच जाते है तथा उसे आकर्षित करने के भाँती भाँती उपाय करते है। कभी ठुमक कर उसके रास्ते में आ जाते है तो कभी जोर जोर से बोलकर ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते है। ठीक यही स्थित आज मीडिया की हो गयी है। सत्ता सुन्दरी के चक्कर में मीडिया नारद बन गया है तब नारद का मुह बन्दर की तरह था आज मीडिया का मुह "अपाई " हो गया है।
साहब मज़ाल क्या कि केजरीवाल छींक दे और मीडिया उसे प्रसाद समझ कर मुख्या खबर न बना दे। मैंने पिछले हप्ते का टाइम्स ऑफ़ इंडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बारीकी से अध्ययन किया तो पता चला कि समाचारों में लगभग ५० से ६० प्रतिशत स्थान आ आ पा से जुडी खबरे घेरती है जबकि १५ से २० प्रतिशत स्थान फ़िल्मी कलाकारों एवं उत्तेजना को समर्पित रहता है। बाकी में विज्ञापन और अन्य खबरे रहती हैं। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ की रमन सरकार ने जब एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया तो सामान्य खबर के तरह नीचे पट्टी पर चला दिया गया जबकि केजरीवाल ने जब यही किया तो बाकायदा सजीव प्रसारण सारे चैनलो पर हुआ और आज टाइम्स ऑफ़ इंडिया की हैडलाइन भी यही खबर बनी।
इन सब बातो से कुछ प्रश्न बनते है
क्या मान लेना चाहिए कि जल जंगल जमीन से जुड़े मुद्दे अब अर्थहीन हो गये ?
क्या मान लेना चाहिए कि सामान्य व्यक्ति की दुश्वारियां अब अर्थहीन हो गयी?
क्या मान लेना चाहिए कि मीडिया बन्दरत्व को प्राप्त हो गया है?
यदि हाँ तो हमें नये विकल्पों को शिद्दत से ढूंढना होगा और यदि नही तो जो दिख रहा है उसे किस रूप में परिभाषित किया जाय ? समाचार या बंदरबाजी ?