सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

तेरे ही नाम से काफिर

गुजरती शाम छत पे चाँद आहिस्ता उतरता है
तेरी यादों के जंगल में कहीं चंदन महकता है ।
कहाँ ले जायेगी ये इश्क की दीवानगी हमको
बरसते बादलो की प्यास दरिया कब समझता है।
कभी पतझड़ सा होता है कभी मधुमास बन जाता
तेरी झुकती हुयी पलकों से मौसम रुख बदलता है।
मिटाकर के सियाही रात की सूरज निकालेगा
इसी उम्मीद में कोई दिया बुझ बुझ के जलता है।
कयामत को हमारा हाल क्या होगा पता फिर भी
तेरे ही नाम से काफिर ये पागल दिल धडकता है।

4 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार को
आज प्रियतम जीवनी में आ रहा है; चर्चा मंच 1900
पर भी है ।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!

Asha Joglekar ने कहा…

मिटाकर के सियाही रात की सूरज निकालेगा
इसी उम्मीद में कोई दिया बुझ बुझ के जलता है।

बहुत खूब।

Asha Joglekar ने कहा…

मिटाकर के सियाही रात की सूरज निकालेगा
इसी उम्मीद में कोई दिया बुझ बुझ के जलता है।

बहुत खूब।

Pratibha Verma ने कहा…

बहुत सुन्दर...