बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
हरहरा के बरसो।
सावन में धरती नें
खोल दिये केशराशि
पोर पोर भिगो देना
अमृत बूंदों से,
खोल दिये केशराशि
पोर पोर भिगो देना
अमृत बूंदों से,
बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
हरहरा के बरसो।
माटी की गंध लिये
नाचती है पुरवा
कांपती उंगलियों से
मालिनी ने छू लिया
देव के ललाट को,
नाचती है पुरवा
कांपती उंगलियों से
मालिनी ने छू लिया
देव के ललाट को,
बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
हरहरा के बरसो।
थिरकती शिप्रा की लहरें
कसमसाते से तटबन्ध
मांझी गीत गाया आज
अधरों ने फिर से,
कसमसाते से तटबन्ध
मांझी गीत गाया आज
अधरों ने फिर से,
बरसो रे बादल
हरहरा के बरसो।
हरहरा के बरसो।
++pawan++
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (29-07-2014) को "आओ सहेजें धरा को" (चर्चा मंच 1689) पर भी होगी।
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हरियाली तीज और ईदुलफितर की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बरसो रे बादल हरहरा के बरसो। मौसम को महका दो
बिछा दो हरियाली, झूमें गाये पंछी महके डाली डाली, न तरसाओ न तरसो, हरहरा के बरसो।
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