शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता : हिंदी को उसका अपेक्षित सम्मान क्यों नही मिलता? डॉ चित्रा अवस्थी

हिन्दी के गणमान्य  लेखकों, पत्रकारों और पत्रकारों के बीच साहित्यिक कहानी किस्से सुनते हुए कभी तो जाना और ही समझा कि हिन्दी को लेकर कोई समस्या है या हिन्दी का हिन्दी का अस्तित्व किसी प्रकार के संकट में है।  लेकिन आज जब ध्यान से देखती हूँ तो एक बात तो निश्चित लगती है कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी हिन्दी उस मुकाम तक नहीं पहुंची जहां उम्मीद थी। 

हिन्दी, जैसा की स्पष्ट है, हिन्दू शब्द की तरह ही सिंधु से निकला है. पर्शियन में हिन्दुस्तान या सिंधु के इस पार बोली जाने वाली भाषा हिन्दवी या हिन्दी थी. अल बरूनी ने तो संस्कृत को भी हिंदवी या  हिन्दुवी कहा है।इसके बाद किस तरह तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली और उसके आसपास बोली जाने वाली हिन्दी कही गयी , उसमें उत्तर एवं मध्य भारत की बोलियों और भाषाओँ का समावेश हुआ, ,हिन्दू उस मिलीजुली भाषा को देवनागरी में लिख कर हिन्दी कहने लगे, मुस्लिम उसे अरबी लिपि  में लिख कर उर्दू कहने लगे , यह कहानी तो सभी जानते हैं   (प्रोग्रेस ऑफ़ हिन्दी पार्ट , हरीश त्रिवेदी

निश्चित ही अपने जन्म से लेकर अब तक ,लगभग पौने दो सौ साल में हिन्दी को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली है. सामान्य रूप से माना जा सकता है कि गांधी जी  और कांग्रेस  ने इसे स्वतंत्रता  आंदोलन की संपर्क भाषा बनाया और राष्ट्रभाषा का ओहदा दिया। 29  मार्च ,1918को इंदौर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष के रूप में गांधी जी ने इसकी औपचारिक घोषणा कर दी। हिन्दी उपनिवेशवाद के विरोध का  प्रतीक बनकर उभरी। लेकिन काम ही लोगों को याद रहता है की सबसे पहले १८६३ मेंउठाया गया था कि संयुक्त प्रांत में निचले स्तर पर  उर्दू के साथ साथ देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को अदालतों में  तथा अन्य प्रशासनिक कार्यों के लिए वैकल्पिक भाषा के रूप में मान्यता दी जाये. उस समय तक मानक हिन्दी का रूप विकसित नहीं हुआ था।  उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश , दिल्ली और हरियाणा के इलाकों में बोली जाने वाली खड़ी बोली को इस उद्देश्य के लिए मान्यता दी गयी।और १८९० में यह प्रयास सफल भी हुआ।   कालांतर में हिन्दी आधिकारिक तौर पर तो स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी लेकिन भारत में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा बन कर अनौपचारिक राष्ट्रभाषा अवश्य है

हिन्दी के प्रसार और विकास में सब कुछ तो ठीक ठाक ही चल रहा था. हिन्दी का विधान और इतिहास लिखा गया.कई देशों में हिन्दी केंद्र स्थापित किये गए, विश्व स्तर का गद्य एवं काव्य रचा  गया, विश्व साहित्य की कालजयी रचनाओं के हिन्दी में अनुवाद हुए। 

फिर क्या हुआ ? भारतीय सविधान के अनुच्छेद  351 में लिखा गया कि भाषाओं का कल्याण करना सरकार का दायित्व हैफिर क्या था  गयी राजनीति परिदृश्य में। संविधान निर्माण से भी कुछ पहले 1837 में राजाजी के नेतृत्व में बनी कांग्रेसी सरकार ने मद्रास प्रेसिडेंसी के स्कूलों में हिन्दी अनिवार्य कर दी ,लेकिन द्रविड़ मुनेत्र कझगम के पेरियार के नेतृत्व में इसका प्रबल विरोध हुआराजाजी की सरकार गिरने के बाद तत्कालीन अंग्रेज़ गवर्नर ने उस आदेश को वापस ले ​लिया   

इसके बाद हिन्दी ही नहीं सभी क्षेत्रीय भाषाएँ राजनीति की युद्धभूमि का अनोखा हथियार बन गयीं। भाषाओँ के आधार पर देश का भूगोल लिखा गया, वोट बैंक रचे गए, हिन्दी बचाने के लिए विभाग बने, नौकरियां निकलीं, बजट निर्धारित हुआ, समितियां - आयोग गठे गये. नतीजा ? हम सबके सामने है. सरकारी प्रश्रय में एक अजीब सी , सभी मानकों से परे , समझ में  आनी वाली हिन्दी सामने आई है। आज भी लोक सेवा आयोग में राष्ट्र और लोक भाषा की प्रतिष्ठा के लिए युवाओं को प्रशासन की लाठियां खानी पड़ती हैं। यह तो हिन्दी की प्रतिष्ठा है शासकों की दृष्टि में. स्तर की कुछ अलग कहानी हैकल ही एक बड़ी सी सरकारी इमारत पर हिन्दी अंग्रेज़ी दोनों का बोर्ड लगा था जिस पर बड़ी शान से अंग्रेज़ी के 'सॉर्टिंग ' शब्द के लिए हिन्दी में  'संसाधन ' शब्द का प्रयोग किया गया था। यह तो एक उदाहरण है.इस पर चर्चा बढ़ायी तो "सात समुन्दर की मसि और सब धरती कागद " करनी होगी।  

अक्सर यह चर्चा होती है कि हिंदी को उसका अपेक्षित सम्मान क्यों नही मिलता. दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या हिन्दी में पर्याप्त स्तरीय  काम हो रहा है. मेरी दृष्टि में ये दोनों प्रश्न उसी तरह से एक दूसरे में समाहित हैं, जैसे यह पूछना की मुर्गी पहले आई या अंडा पहले आया। यदि काम स्तरीय और उपयोगी नहीं होगा तो तो हिन्दी का सम्मान होगा ना ही हिन्दी वालों का , दूसरी ओर यदि हिन्दी वालों को सम्मान और समृद्धि नहीं मिलेगी तो समाज का प्रतिभाशाली वर्ग हिन्दी की उपासना के लिए आगे नहीं आएगा।  
फिर भी, हिंदी भारत में , और प्रवासी भारतियों में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।हिन्दी में लिखी जाने वाली कथा - कहानियों ने हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ाने में महान योगदान दिया। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के प्रगतिशील लेखकों में , जिनमें अधिकतर उर्दू या पंजाबी के थे,एक बात समान थी।  मंटो, कृष्ण चन्दर, राजिंदर सिंह बेदी, सबने कहीं कहीं स्वीकार किया है कि उन्होंने देवकी नंदन खत्री की 'चन्द्रकान्ता संतति ' पढ़कर ही हिन्दी सीखी है। आज यही काम लोकप्रिय - मुख्यधारा का सिनेमा और टी वी कर रहे हैं।अंग्रेज़ीपरस्त भारतीयों का बहुत बड़ा वर्ग इनके बिना तो हिन्दी को भूल ही गया होता। प्रवासी भारतीयों को देश से भावनात्मक रूप से जोड़े रहने में सिनेमा और सिनेमा के गीतों का बड़ा योगदान है। 

 हिंदी और हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ी के बढ़ते हुए वर्चस्व को ले कर बहुत चिंता होती है , उसके निषेध के उपायों पर गहन चर्चा होती है। हिन्दी पर अंग्रेज़ी की श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए सबसे बड़ा तर्क अंग्रेज़ी में दुनिया भर के ज्ञान की उपलब्धता का दिया जाता है। मेरी दृष्टि में अगर कोई एक सबसे बड़ा उपाय हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए और हिन्दी माध्यम से पढ़ने वालों को जीवन की प्रतिस्पर्धा में सफल के लिए किया जाना चाहिए तो वह हिन्दी में श्रेष्ठ वैश्विक साहित्य उपलब्ध कराया जाये।इसके लिए योग्य व्यक्तियों द्वारा योजनाबद्ध ढंग से अनुवाद कार्य कराया जाये और सुन्दर और सस्ती पुस्तकों के रूप तथा इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध कराया जाये। एक और जो हिंदी प्रेमियों के लिए चिंता का विषय है वह अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों का बढ़ता चलन है। उसके लिए भी कोई बाहरी कारक जिम्मेदार नहीं है।स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करके बच्चा जब उच्च व्यावसायिक शिक्षा के लिए जाते हैं तो उन्हें शिक्षण सामग्री हिन्दी में नहीं उपलब्ध होती, नतीजन भाषा और विषय दोनों के बोझ से दबकर बच्चा पिछड़ता जाता है। यही वजह है की हिन्दी प्रेमी भी अपने बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाते हैं।दिन के आठ घंटे स्कूल में अंग्रेज़ी की गिटिर पिटिर के बाद बच्चा ना चाहते हुए भी हिन्दी से दूर होता जाता है।  अतः मेरी दृष्टि में अनुवाद के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कार्य हिन्दी में उच्चस्तरीय शिक्षण सामग्री उपलब्ध करना है। तीसरा अनिवार्य कार्य हिन्दी में मानकीकृत पारिभाषिक शब्दावली की उपलब्धता कराना है, जिसका समय समय पर संशोधन परिवर्धन होता रहे। क्योंकि  हिन्दी के विरोध में एक बड़ा तर्क मानकीकृत तकनीकी शब्दावली की अनुपलब्धता है।