शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

क्या देखता हूँ मैं तुम में

















पूछती हो मुझसे 
क्या देखता हूँ मैं तुम में
सुनो
तुम्हारे केश जल से भरी घटाएं
जो बरसती हैं सिर्फ 
मेरे कंधों पर
आँखों में तुम्हारी आईने
जिनमे दिख जाता है संसार का सौंदर्य सारा
होंठ तुम्हारे रंगरेज़
रंग लेते हैं अपने ही रंग में
मेरे अधरों को
बाहें तुम्हारी कोमल लताएं
जिन्होंने जोड़ लिया जीवन मुझसे
जाने किस आशा से
और कर दिया कोमल
मेरी ह्रदय शिला को भी
और सुनो
तुम्हारी गोद में
दुनियाभर का सुकून देखता हूँ
न पूछा करो मुझसे
कि क्या चाहता हूँ मैं
एक लंबा सफ़र तुम्हारे साथ बेमतलब सा
नदी किनारे बैठें हम तुम
पानी में पाँव डाले
लहरों को आता जाता देखते रहे
और
आसमानी कपडे पहने तुम
घुटनों पर चेहरा टिकाये
मुस्कुराकर देखती रहो मेरी आँखों में
और हवा से उड़तीं तुम्हारे लम्बी जुल्फें
नदी जैसी तुम्हारी कोमल काया
जगा देती हैं मेरे सोये सागर को
टूट जाते हैं सभी तटबंध मेरे भावों के तब
नहीं रहता मन में भय
किसी सीमा का
न किसी अनर्थ का ही
बस्स
बढ़ जाता हूँ मैं तुम्हारी ओर
हर मर्यादा को लांघ कर
हर अपकर्ष हर पतन को भूल कर
तुम भी तो करती हो
प्रतीक्षा मेरी
मुझसे मिलने के लिए
मुझमे घुलने और समा जाने के लिए
यूँ भी तो उतर जाता है सागर
अपनी नदी में

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान : किसी दूसरी भाषा का विरोध किये बिना हिंदी के लिए आग्रह कीजिए: अमिताभ अग्निहोत्री




मैंने अपने पत्रकारीय जीवन की 25 वर्षों की यात्रा में देश में कई आम चुनाव और राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव देखे ---समूचा देश घूमा --- चारों दिशाओं में --- लेकिन कहीं भी मुझे किसी भी चुनावी सभा में कोई नेता इंग्लिश में वोट मांगता नहीं दिखा --- केरल में भी नहीं और तमिलनाडु में भी नहीं --भारत में चुनाव की भाषा या तो हिंदी है या फिर राज्यों की अपनी अपनी भाषाएं ---यानि  वोट अपनी ज़ुबान में ही मांगे जाते हैं। लेकिन मुश्किल तब होती है जब चुनाव की भाषा अपनी जुबां होती है और सरकार की भाषा इंग्लिश हो जाती है। देश का राजकाज उस भाषा में ही होना चाहिए जो भाषा अधिकाँश आम जनता समझ और जान सके। हाँ , सम्पर्क भाषा के रूप में इंग्लिश भी रहे -- लेकिन वह प्रथम भाषा नहीं हो सकती इस देश की। बैसे भी यह कुछ अनैतिक सा ही लगता है की आप वोट एक भाषा में मांगते हैं और सरकार दूसरी भाषा में चलाते हैं। यह आम जन के साथ छल जैसा ही है। अपने घर के जेवर और खेत बेंच कर ननकू जो मुकदमा लड़ता है , उसका फैसला आने पर उसे अपने वकील से पूछना पड़ता है कि वकील बाबू , हम जीते कि हारे। ना बहस की भाषा उसकी और ना फैसले की। इलाज़ में भी यही ---- जो डॉक्टर बता दे बही रोग और बही इलाज़ मानना होगा ननकू को --- क्यूंकि यंहा भी इलाज़ और जांच की जो भाषा है , वह ननकू की भाषा नहीं है। ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं जो देश के लोक जीवन में विसंगतियां पैदा कर रहे हैं। ------- यह विसंगतियां देश की प्रगति को भी वाधित कर रही हैं। भाषा माध्यम है , और माध्यम अपना ना हो तो अवरोध स्वाभाविक हो जाता है। एक बात उन सभी से भी जो हिंदी को दुलार करते हैं। हिंदी को लेकर हमें अहसास-ए -कमतरी से उबरना होगा। अपनी माँ को लेकर संकोच या शर्मिंदगी क्यों और कैसी ??------- आपको अच्छी हिंदी आती है तो उसी में बोलिए --- अशुद्ध इंग्लिश का मोह क्यों पालें ?कुछ खरीदने जाएँ तो हिंदी में ही संवाद करें --- बच्चे स्कूल में इंग्लिश सीखें , अच्छी बात है , पर आप जब बच्चे के अध्यापक से मिलें तो हिंदी में ही बात करें -- बच्चे की प्रगति हिंदी  में  पूछी जा सकती है। कोशिश करिये डॉक्टर और वकील से भी हिंदी में ही बात हो। यकीन मानिए , आप हिंदी में बोलेगे तो जिन्हे हिंदी नहीं आती वो डॉक्टर और वकील भी हिंदी सीखने को मजबूर हो जाएंगे ---- धंधे का मसला जो है। जो व्यापार कर रहे हैं भारत में , उन्हें भारत की भाषाएँ सीखनी ही होंगी अगर हम चाह लें तो। जैसे अगर हम ब्रिटेन में कारोबार करना चाहते हैं तो हमें इंग्लिश सीखनी ही होगी। इसलिए अगर हम कमर कस लें तो भरोसा रखिये हर कारोबार करने वाला हिंदी में ही बोलेगा और लिखेगा। यही दबाब सरकारों पर भी बनाया जा सकता है , शर्त बस यही है की हम और आप चाहलें। तो आइये , आज और अभी से शुरुआत करें -------- किसी दूसरी भाषा का विरोध किये बिना हिंदी के लिए आग्रह कीजिए । 

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

अगहन की अगवानी

बादलों का घूँघट
हौले से उतार कर 
चम्पई फूलों से ,
रूप का सिंगार कर
अम्बर ने प्यार से , धरती का तन छुआ ।
मखमली ठंडक लिये ,महीना अगहन हुआ ॥
धूप गुनगुनाने लगी
शीत मुस्कुराने लगी
मौसम की ये खुमारी,
मन को अकुलाने लगी
गुड़ से भीना आग का जो मीठापन हुआ ।
मखमली ठंडक लिये ,महीना अगहन हुआ ॥
हवायें हुयी संदली
चाँद हुआ शबनमी
मोरपंख सिमट गये ,
प्रीत हुयी रेशमी
बातों-बातों मे जब ,गुम कहीं दिन हुआ ।
मखमली ठंडक लिये ,महीना अगहन हुआ ॥

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान: अपने ही देश में बेगानी होती हिंदी :नीरज कृष्ण

                                 
भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है अर्थात जीवन के जितने भी दैनिक कार्य व्यापार हैं, गतिविधियाँ हैं उन्हें भाषा के माध्यम से संपन्न किया जा सकता है भाषा ही व्यक्ति को समाज और समाज को देश अथवा विश्व-सूत्र में जोडती है बहुभाषी समाज को राष्ट्र बनाने में भी भाषा की बड़ी भूमिका है स्वतंत्रता  आंदोलन के रहनुमाओं ने महसूस किया था कि भारत जैसे बहुभाषिक देश में एक ऐसी संपर्क भाषा चाहिए जो संपूर्ण भारतीयों को एकसूत्र में बाँध सके पहले यह काम संस्कृत के जिम्मे था और बाद में इसे हिंदी ने निभाया हिंदी देश की संपर्क भाषा बनी

प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवसतो मनाया ही जाता है, साथ ही इसे विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवसभी मनाया जाता है

इसमें दो राय नहीं है कि - हिंदी भारत की आत्मा ही नहीं, धड़कन भी है यह भारत के व्यापक भू-भाग में फैली शिष्ट और साहित्यिक भाषा है इसकी अनेक आंचलिक बोलियाँ हैं

भाषा चाहे हिंदी हो या अन्य भारतीय भाषाएँ हो या फिर विदेशी भाषाएँ, अपने समाज अथवा देश की अस्मिता की प्रतीक होती हैं लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भी कहा है कि राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहींअपनी भाषा के प्रति प्रेम और गौरव की भावना न हो तो देश की अस्मिता खतरे में पड़ सकती है

फरवरी 1835 में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा शत्रु लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में अपने विचार व्यक्त करते हुए अपना मन्तव्य स्पष्ट किया कि जब तक हम इस देश की रीढ़ की हड्डी न तोड़ दें, तब तक इस देश को जीत नहीं पायेंगे और ये रीढ़ की हड्डी है- इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, इसके लिए मेरा सुझाव है कि इस देश की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को इसकी संस्कृति को बदल देना चाहिए।

लार्ड मैकाले ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपनी शिक्षा नीति बनाई, जिसे आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली का आधार बनाया गया ताकि एक मानसिक रूप से गुलाम मुल्क तैयार किया जा सके, क्योंकि मानसिक गुलामी, शारीरिक गुलामी से बढ़कर होती है।

मैकाले ने ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू की कि भारतीयों की सोच बदल गयी, अपनी संस्कृति और सभ्यता उनको गंवारू और पिछड़ी हुई लगने लगी और अंग्रेजी सभ्यता, अंग्रेजी भाषा उनके मनोमस्तिष्क पर छा गयी

यहाँ तक कि भारतीय संविधान में 26 जनवरी 1950 को जो संविधान इस देश में लागू हुआ उसके अनुच्छेद 343 के अनुसार तो व्यवस्था ही निर्धारित कर दी गयी कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी इस देश में संघ (Union) सरकार की भाषा रहेगी,राज्य सरकारों को भी छूट दे दी गयी कि वो चाहे हिंदी  अपनाएं या अंग्रेजी को

संविधान में ही ये भी अनुच्छेद 343 में ये प्रावधान करते हुए तीसरे पैराग्राफ में लिखा गया कि भारत के विभिन्न राज्यों में से किसी ने भी हिंदी का विरोध किया तो फिर अंग्रेजी को नहीं हटाया जायेगा

संविधान निर्माताओं ने तो अनुच्छेद 348 में स्पष्ट कर दिया कि भले ही हिन्दुस्तान में सबसे अधिक हिंदी बोली जाती हो परन्तु उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रहेगी

हिंदी का सर्वाधिक अहित तो देशवासियों ने किया जो हिंदी भाषी परिवार में जन्म लेते और पलते हैं, हिदी हमारी रगों में होती है परन्तु दीवानगी अंग्रेजी के प्रति इतनी अधिक है कि भले ही अंग्रेजी के माध्यम से समझने में कई गुना अधिक समय लगे परन्तु अपनाते अंग्रेजी ही हैंहम यह क्यों भूल जाते हैं कि किसी भी राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास अपनी भाषा में ही सम्भव है आधुनिक युग में भी सभी कार्य हिंदी में संभव है, परन्तु देशवासियों का अंग्रेजी के प्रति मोह अपरम्पार है

हिंदी और भारतीय भाषाओं के विद्वानों, लेखकों, कम्पयूटर विशेषज्ञों, तकनीकी विशेषज्ञों को संयुक्त रूप से अपनी भाषाओं के हित में काम करना होगा हिंदी का हित भारतीय भाषाओं से अलग नहीं है वैश्वीकरण और सूचनाक्रांति के दौर में हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाएँ भी पिछड़ रही हैं अंग्रेजी का वर्चस्व सब को दबा रहा है इसलिए सब भारतीय भाषाओं के हितैषियों को एकजुट होकर अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती देनी चाहिए