शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता अभियान :हिंदी - अश्पृश्यता की तरफ उन्मुख क्यों; डॉ. आलोक चान्टिया


इस पृथ्वी पर पैदा होने वाला कोई भी मानव बच्चा किसी ना किसी संस्कृति का अटूट हिस्सा जरुर है और चाहे बोली के स्तर पर या फिर भाषा के स्तर पर वह अपने चारों ओर बहुधा बोली जाने वाले स्वर ज्ञान को अपनाता है जिससे न सिर्फ वह मौलिक रूप से उस संस्कृति का सदस्य प्रदर्शित होता है बल्कि संरक्षण की विधा को भी स्वाभाविक रूप से अपनाते हुए किसी बोली या भाषा को संरक्षित करता है | लेकिन विज्ञान के बढ़ते कदम ने जैसे जैसे मानव जीवन को जटिलता की ओर उन्मुख किया वैसे वैसे मानव अपनी मूल संस्कृति से दूर उस संस्कृति को सीखने के लिए भागने लगा जो उसकी नहीं थी | ऐसा करके वो अपनी संस्कृति में एक विशिष्टता को प्राप्त होने लगा और विशिष्टता प्राप्त करने से आने वाले परिवर्तन को देख कर ना जाने कितने लोग दूसरी संस्कृति को सीखने के लिए प्रेरित होने लगे | इस तरह की प्रक्रिया से जो सबसे बड़ा दुष्परिणाम आया वो मूल संस्कृति का पराभव था और उसमे भी उस संकृति की बोली या भाषा पर तुषारापात हुआ क्योकि ज्यादातर संस्कृति ने किसी विशिष्ट ज्ञान को अपनी संस्कृति की भाषा में परवर्तित करने का प्रयास नहीं किया और ये चिंताजनक स्थिति भारत और वह बोली जाने वाली हिंदी में अपेक्षाकृत ज्यादा ही दृष्टिगोचर हुई | जिन संस्कृतियों ने इस मूल तत्व को समझ लिया उन्होंने दूसरी संस्कृति की तरफ अंधी दौड़ लगाने के बजाये उस संस्कृति के विशिष्ट तत्वों को अपनी शैली में समाहित करके अपनी ही संस्कृति कोना समृद्ध किया बल्कि अपनी भाषा को भी समृद्ध किया जैसे फ्रेंच समाज शास्त्री इमाइल दुर्खीम ने अपनी सारी पुस्तक फ्रेंच भाषा में ही लिखी पर उनके कार्यो की आवश्यकता को महसूस करके अमेरिका या इंग्लॅण्ड जैसे देशो ने फ्रेंच को अपनाने के बजाये दुर्खीम के कार्यों को अपनी आंग्ल भाषा में अनुवाद करके उसको अपने लिए प्रयोग किया और अपनी भाषा को भी विश्व स्तर का बनाने में सहयोग किया | और आंग्ल भाषा के इसी प्रयास ने कभी उनकी संस्कृति को समाप्त होने के बजाये उसे एक ऐसी निरंतरता प्रदान की कि देखते देखते आंग्ल भाषा की सर्वाभौमिकता को पूरे विश्व ने स्वीकार कर लिया पर इसी का अबहव हिंदी भाषा में मिलता है | इसी देश में संतोषम परम सुखं के भाव को हर जगह आरोपित करके ये प्रयास कभी नहीं किया गया कि हिंदी को सार्वदेशिक और सर्वकालिक बना दिया जाये और इसके विपरीत आंग्ल भाषा ने हिंदी के प्रभाव को कभी उतने निम्न स्तर पर ले जाकर नही देखा जितना हिंदी भाषी लोगो ने ही करके देखा और इसी लिए ऑक्सफ़ोर्ड जैसे  प्रतिष्ठित  शब्दकोश ने अपने शब्द कोष माला को समृद्ध बनाने केलिए २०,००० ( बीस हज़ार ) से ज्यादा शब्दों को अपने में सम्मिलित किया | विश्व ने सदैव ही हिंदी के वर्चस्व को स्वीकार किया है इसी लिए आज विश्व के सभी बड़े विश्वविद्यालयों में हिंदी एक विषय के रूप में पढाया जाता है | यही नहीं डिस्कवरी , एनिमल प्लैनेट , हिस्ट्री १८ , नैशनल जियोग्राफिक आदि चैनल ने अपने यहाँ से प्रसारित कार्यकर्मो को हिंदी में भी रखा है लेकिन विदेशियों से इतर हम अपने देश में ही हिंदी बोल कर अपने को हीन महसूस करने लगे है | हमने अपनी भूमिका एक श्रोता की तरह समझ ली है जिसे किसी के हिंदी बोलने या लिखने पर सिर्फ तली बजानी है पर स्वयं हिंदी को बढ़ने के लिए कुछ नहीं करना है | हम अतीत को याद करके गौरवांन्वित होने वालों की कतार में खड़े है जो इस तथ्य पर गौरव उसू करता है कि देश का प्रधानमंत्री हर मंच से हिंदी बोलते है और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में दिए गए भाषण पर हमें हिंदी के उस स्थान का बोध होता है जिसमे शायद हम खुद मान लेते है कि जिस भाषा का प्रयोग करना या उससे जुड़े होने का तथ्य हम स्वयं के लिए स्वीकार करना पसंद नहीं करते उसी हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र में बोलना बड़ी बात है मानो हमने संविधान में प्रदत मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद १७ के अश्पृश्यता  की समाप्ति को मानव के लिए तो स्वीकार कर लिए पर उसको हिंदी भाषा के तरफ सरका दिया और जो भी आज के दौर में हिंदी बोलता दिखाई पद जाता है उसकी स्तर और शिक्षा और प्रगति करने की संभावना आदि पर स्वतः ही प्रश्न चिन्ह  लग जाता है | इंदिरा गाँधी मुक्त राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के किसी भी साक्षात्कार के पत्र में स्पष्ट लिखा रहता है कि अभ्यर्थी साक्षात्कार हिंदी में देना चाहते हो तो स्पष्ट रूप से लिखे | पर ज्यादातर लोग इस अवसर को सिर्फ इस लिए उठाने में हिचकते है क्योकि इसमें ये भी भाव रहता है कि उनको अंग्रेजी नहीं आती है जबकि इस तरह के लाभ से हिंदी के लिए माहौल बनने में सहायता मिलती है | इसके अतिरिक्त अभ्यर्थी इस लिए भी हिंदी में साक्षात्कार के विकल्प को चुनने से डरता है क्योकि उसे भय रहता है कि कही साक्षात्कार सदस्य इस लिए उसका चयन ना करें क्योकि उसे अंग्रेजी ही नहीं आती है | और इसी लिए सामान्यतया हिंदी की मृत्यु हो जाती है | कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के एक प्रतिष्ठान में एक महिला को उसके अधिकारीयों ने एक पत्र आंग्ल भाषामे दिया पर उस महिला ने ये कह कर लेने से लेने मना कर दिया कि पत्र हिंदी में दिया जाया क्योकि आंग्ल भाषा में एक शब्द के तीन चार मतलब निकलते है जो मुझे नुकसान पंहुचा सकते है | लिखित रूप से दिए जाने पर उस महिला को अधिकारीयों ने बुलाया और कहा कि देखिये आपकी जो शिक्षा है उससे ये नही कह सकती कि आपको अंग्रेजी नहीं आती और फिर आगे आपके जो भी कार्य होंगे वो आपको इस लिए नुकसान पंहुचा सकते है क्योकि आपने लिखित रूप में कहा है कि मुझे पत्र हिंदी में दिए जाये | महिला ने कहा कि मैंने कही नहीं कहा कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती और हिंदी में बात करना लिखना किस नियम में बुरा है | मैं तो सिर्फ हिंदी के लिए प्रयास कर रही हूँ | अभी तक मामला लंबित है |
हिंदी को संविधान के अनुच्छेद ३४३ में राज भाषा का दर्जा दिया गया ना कि राष्ट्रीय भाषा का और इसी लिए आज तक देश एक सूत्र में नहीं बंध पाया | भारत विविधताओ का देश होते हुए भी जैसे रेल की पटरी किसी राज्य के सीमा विवाद से परे स्वतंत्र  है और इसी लिए भारतीय रेल आसानी से पूरे देश को पटरियों के सहारे एक सूत्र में जोड़े रहती है उसी तरह प्रदेश की सीमओं से परे हिंदी को सबसे ज्यादा लोगो और राज भाषा होने के कारण राष्ट्रीय भाषा का गौरव दे देना चाहिए ताकि कश्मीर से कन्या कुमारी तक लोग एक दूसरे को समझ सके और अपने को समझा सकें | लेकिन ऐसा अभी दिवा स्वप्न सा है क्योकि मजबूत इच्छा शक्ति की कमी , राजनैतिक लोलुपता , राष्ट्रीयता के प्रति उदासीनता , अपनी धरोहर हो बचाने की उत्कंठा रहित सामजिक सोच और भाषा के महत्व को समझाने के आवश्यक जागरूकता की कमी आदि ऐसे महत्वपूर्ण कारक है जो हिंदी को पतन की ओर ले जा रहे है | हिंदी के महत्व को जितना विदेशियों ने समझा है उतना ही हम सबको समझना होगा और मानवधिकार के अवयवों में घर , प्यास , भोजन , स्वास्थ्य के अनुरूप ही भाषा के अधिकार को भी मानवधिकार के सबसे महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में सम्मिल्लित किया जाये क्योकि भाषाई संहार को रोकना एक देश को बचाने से कम नहीं है | भारतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियों “ निज भाषा उन्नति ....” को समाहित  करना   ही हमारा सबसे बड़ा काम होना चाहिए और सरकार को हिंदी अनुवाद का काम राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहिए जैसे हमारे पुरानो , उपनिषदों आदि का अनुवाद अंग्रेजी में हो रहा है और सभी स्कूल , कालेज , विश्वविधायालय में पढाई पुस्तक आदि हिंदी में अवश्य हो और इसी प्रयास से हम हिन्दी   को अपनों के बीच से अश्पृश्य  होने से बचा लेंगे| 


शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता : हिंदी को उसका अपेक्षित सम्मान क्यों नही मिलता? डॉ चित्रा अवस्थी

हिन्दी के गणमान्य  लेखकों, पत्रकारों और पत्रकारों के बीच साहित्यिक कहानी किस्से सुनते हुए कभी तो जाना और ही समझा कि हिन्दी को लेकर कोई समस्या है या हिन्दी का हिन्दी का अस्तित्व किसी प्रकार के संकट में है।  लेकिन आज जब ध्यान से देखती हूँ तो एक बात तो निश्चित लगती है कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी हिन्दी उस मुकाम तक नहीं पहुंची जहां उम्मीद थी। 

हिन्दी, जैसा की स्पष्ट है, हिन्दू शब्द की तरह ही सिंधु से निकला है. पर्शियन में हिन्दुस्तान या सिंधु के इस पार बोली जाने वाली भाषा हिन्दवी या हिन्दी थी. अल बरूनी ने तो संस्कृत को भी हिंदवी या  हिन्दुवी कहा है।इसके बाद किस तरह तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली और उसके आसपास बोली जाने वाली हिन्दी कही गयी , उसमें उत्तर एवं मध्य भारत की बोलियों और भाषाओँ का समावेश हुआ, ,हिन्दू उस मिलीजुली भाषा को देवनागरी में लिख कर हिन्दी कहने लगे, मुस्लिम उसे अरबी लिपि  में लिख कर उर्दू कहने लगे , यह कहानी तो सभी जानते हैं   (प्रोग्रेस ऑफ़ हिन्दी पार्ट , हरीश त्रिवेदी

निश्चित ही अपने जन्म से लेकर अब तक ,लगभग पौने दो सौ साल में हिन्दी को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली है. सामान्य रूप से माना जा सकता है कि गांधी जी  और कांग्रेस  ने इसे स्वतंत्रता  आंदोलन की संपर्क भाषा बनाया और राष्ट्रभाषा का ओहदा दिया। 29  मार्च ,1918को इंदौर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष के रूप में गांधी जी ने इसकी औपचारिक घोषणा कर दी। हिन्दी उपनिवेशवाद के विरोध का  प्रतीक बनकर उभरी। लेकिन काम ही लोगों को याद रहता है की सबसे पहले १८६३ मेंउठाया गया था कि संयुक्त प्रांत में निचले स्तर पर  उर्दू के साथ साथ देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को अदालतों में  तथा अन्य प्रशासनिक कार्यों के लिए वैकल्पिक भाषा के रूप में मान्यता दी जाये. उस समय तक मानक हिन्दी का रूप विकसित नहीं हुआ था।  उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश , दिल्ली और हरियाणा के इलाकों में बोली जाने वाली खड़ी बोली को इस उद्देश्य के लिए मान्यता दी गयी।और १८९० में यह प्रयास सफल भी हुआ।   कालांतर में हिन्दी आधिकारिक तौर पर तो स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी लेकिन भारत में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा बन कर अनौपचारिक राष्ट्रभाषा अवश्य है

हिन्दी के प्रसार और विकास में सब कुछ तो ठीक ठाक ही चल रहा था. हिन्दी का विधान और इतिहास लिखा गया.कई देशों में हिन्दी केंद्र स्थापित किये गए, विश्व स्तर का गद्य एवं काव्य रचा  गया, विश्व साहित्य की कालजयी रचनाओं के हिन्दी में अनुवाद हुए। 

फिर क्या हुआ ? भारतीय सविधान के अनुच्छेद  351 में लिखा गया कि भाषाओं का कल्याण करना सरकार का दायित्व हैफिर क्या था  गयी राजनीति परिदृश्य में। संविधान निर्माण से भी कुछ पहले 1837 में राजाजी के नेतृत्व में बनी कांग्रेसी सरकार ने मद्रास प्रेसिडेंसी के स्कूलों में हिन्दी अनिवार्य कर दी ,लेकिन द्रविड़ मुनेत्र कझगम के पेरियार के नेतृत्व में इसका प्रबल विरोध हुआराजाजी की सरकार गिरने के बाद तत्कालीन अंग्रेज़ गवर्नर ने उस आदेश को वापस ले ​लिया   

इसके बाद हिन्दी ही नहीं सभी क्षेत्रीय भाषाएँ राजनीति की युद्धभूमि का अनोखा हथियार बन गयीं। भाषाओँ के आधार पर देश का भूगोल लिखा गया, वोट बैंक रचे गए, हिन्दी बचाने के लिए विभाग बने, नौकरियां निकलीं, बजट निर्धारित हुआ, समितियां - आयोग गठे गये. नतीजा ? हम सबके सामने है. सरकारी प्रश्रय में एक अजीब सी , सभी मानकों से परे , समझ में  आनी वाली हिन्दी सामने आई है। आज भी लोक सेवा आयोग में राष्ट्र और लोक भाषा की प्रतिष्ठा के लिए युवाओं को प्रशासन की लाठियां खानी पड़ती हैं। यह तो हिन्दी की प्रतिष्ठा है शासकों की दृष्टि में. स्तर की कुछ अलग कहानी हैकल ही एक बड़ी सी सरकारी इमारत पर हिन्दी अंग्रेज़ी दोनों का बोर्ड लगा था जिस पर बड़ी शान से अंग्रेज़ी के 'सॉर्टिंग ' शब्द के लिए हिन्दी में  'संसाधन ' शब्द का प्रयोग किया गया था। यह तो एक उदाहरण है.इस पर चर्चा बढ़ायी तो "सात समुन्दर की मसि और सब धरती कागद " करनी होगी।  

अक्सर यह चर्चा होती है कि हिंदी को उसका अपेक्षित सम्मान क्यों नही मिलता. दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या हिन्दी में पर्याप्त स्तरीय  काम हो रहा है. मेरी दृष्टि में ये दोनों प्रश्न उसी तरह से एक दूसरे में समाहित हैं, जैसे यह पूछना की मुर्गी पहले आई या अंडा पहले आया। यदि काम स्तरीय और उपयोगी नहीं होगा तो तो हिन्दी का सम्मान होगा ना ही हिन्दी वालों का , दूसरी ओर यदि हिन्दी वालों को सम्मान और समृद्धि नहीं मिलेगी तो समाज का प्रतिभाशाली वर्ग हिन्दी की उपासना के लिए आगे नहीं आएगा।  
फिर भी, हिंदी भारत में , और प्रवासी भारतियों में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।हिन्दी में लिखी जाने वाली कथा - कहानियों ने हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ाने में महान योगदान दिया। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के प्रगतिशील लेखकों में , जिनमें अधिकतर उर्दू या पंजाबी के थे,एक बात समान थी।  मंटो, कृष्ण चन्दर, राजिंदर सिंह बेदी, सबने कहीं कहीं स्वीकार किया है कि उन्होंने देवकी नंदन खत्री की 'चन्द्रकान्ता संतति ' पढ़कर ही हिन्दी सीखी है। आज यही काम लोकप्रिय - मुख्यधारा का सिनेमा और टी वी कर रहे हैं।अंग्रेज़ीपरस्त भारतीयों का बहुत बड़ा वर्ग इनके बिना तो हिन्दी को भूल ही गया होता। प्रवासी भारतीयों को देश से भावनात्मक रूप से जोड़े रहने में सिनेमा और सिनेमा के गीतों का बड़ा योगदान है। 

 हिंदी और हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ी के बढ़ते हुए वर्चस्व को ले कर बहुत चिंता होती है , उसके निषेध के उपायों पर गहन चर्चा होती है। हिन्दी पर अंग्रेज़ी की श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए सबसे बड़ा तर्क अंग्रेज़ी में दुनिया भर के ज्ञान की उपलब्धता का दिया जाता है। मेरी दृष्टि में अगर कोई एक सबसे बड़ा उपाय हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए और हिन्दी माध्यम से पढ़ने वालों को जीवन की प्रतिस्पर्धा में सफल के लिए किया जाना चाहिए तो वह हिन्दी में श्रेष्ठ वैश्विक साहित्य उपलब्ध कराया जाये।इसके लिए योग्य व्यक्तियों द्वारा योजनाबद्ध ढंग से अनुवाद कार्य कराया जाये और सुन्दर और सस्ती पुस्तकों के रूप तथा इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध कराया जाये। एक और जो हिंदी प्रेमियों के लिए चिंता का विषय है वह अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों का बढ़ता चलन है। उसके लिए भी कोई बाहरी कारक जिम्मेदार नहीं है।स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करके बच्चा जब उच्च व्यावसायिक शिक्षा के लिए जाते हैं तो उन्हें शिक्षण सामग्री हिन्दी में नहीं उपलब्ध होती, नतीजन भाषा और विषय दोनों के बोझ से दबकर बच्चा पिछड़ता जाता है। यही वजह है की हिन्दी प्रेमी भी अपने बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाते हैं।दिन के आठ घंटे स्कूल में अंग्रेज़ी की गिटिर पिटिर के बाद बच्चा ना चाहते हुए भी हिन्दी से दूर होता जाता है।  अतः मेरी दृष्टि में अनुवाद के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कार्य हिन्दी में उच्चस्तरीय शिक्षण सामग्री उपलब्ध करना है। तीसरा अनिवार्य कार्य हिन्दी में मानकीकृत पारिभाषिक शब्दावली की उपलब्धता कराना है, जिसका समय समय पर संशोधन परिवर्धन होता रहे। क्योंकि  हिन्दी के विरोध में एक बड़ा तर्क मानकीकृत तकनीकी शब्दावली की अनुपलब्धता है।