शनिवार, 24 सितंबर 2016

हिन्दी साहित्य का नया पडाव : टिप्पणीवाद

 बकौल गोपेश्वर सिंह हिन्दी में जिस विधा की सर्वाधिक दुर्गति हुई है, वह है पुस्तक समीक्षा। फिलहाल पुस्तक समीक्षा लिखने-लिखाने का आलम प्राय: जुगाड़ उद्योग-सा है। पत्र-पत्रिकाओं के इस जरूरी हिस्से में खानापूरी-सी की जाती है। पुस्तक समीक्षा अब सीखने-सिखाने के लिए नहीं, बल्कि किसी को उठाने-गिराने के लिए की जाती है। आलोचना के क्षेत्र में यही प्रक्रिया  पिछले दो  दशकों से निर्बाध रूप से साहित्य जगत में विद्यमान रही है। आचार्य राम चन्द्र शुक्ल से लेकर आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ। राम विलास शर्मा, देवी शंकर अवस्थी, नलिन विलोचन शर्मा, साही और  नामवर सिंह जैसे कुछ गिने चुने नाम ही समीक्षा, आलोचना, समालोचना के नाम पर हिन्दी साहित्य  को मिले। इनकी कलम से हिन्दी को फणीश्वर नाथ रेणु , सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे लेखक दिग्गज साहित्यकारों के रूप में स्थापित हुए। जाने अनजाने में यह बात  हिन्दी लेखकों और पाठकों को समझ में आने लगी कि फलां समीक्षक यदि फलां पुस्तक की समीक्षा में दो अच्छे शब्द लिखे तो पुस्तक जरुर पठन योग्य होगी। इस बात ने पाठकों को पुस्तक खरीदने में “चूजी” बना दिया। शुरुआत में नि:संदेह रूप से इस तथ्य का फ़ायदा पाठकों को मिला। उन्हें समीक्षा पढ़कर यह पता चल जाता था कि कौन सी पुस्तक कथ्य शिल्प और भाव के दृष्टिकोण से  रूचि के अनुसार पढ़ी जानी चाहिए। इस समय तक समीक्षक भी निर्भीकता और प्रामाणिकता के साथ पुस्तकों का निर्ममता के साथ विवेचन कर रहे थे किन्तु जैसे ही प्रारम्भिक समीक्षकों की पहली खेप ने साहित्य जगत को अलविदा कहा  उनकी जगह लेने वाले उस परम्परा के साथ न्याय नही कर पाए और गोपेश्वर सिंह को उपर्युक्त पंक्तियों में समीक्षा के प्रति अपने भाव व्यक्त करने पड़े।

 उससे सबसे ज्यादा नुकसान लेखक और लेखन को ही हुआ। समीक्षक, सम्पादक और रचनाकारों की मिलीभगत से आम जनता हिन्दी  पुस्तक पाठन से दूर होती चली गयी। लेखक और पाठक के बीच समीक्षक नामक जीवों की मठाधीशी से हिन्दी लेखन सिकुड़ता गया और जो हुआ भी उसके अपने व्यक्तिगत और  राजनीतिक निहितार्थ रहे। इन्टरनेट के आने के बाद आम जन ब्लॉगिंग तथा अन्य माध्यमों जिसे बाद में सोशल मीडिया कहा गया, से अपना मत रखने का साहस करने लगा। धीरे धीरे पांडित्यपूर्ण और भारी भरकम समीक्षाओं पर एक ब्लॉगर या फेसबुकिये की संक्षिप्त टिप्पणी  भारी पड़ने लगी। यही वह वक्त था जब लेखक और पाठक के बीच सीधा संवाद स्थापित  होना शुरू हुआ। सही मायनों में साहित्य में उत्तर आधुनिक प्रवृत्तियों का परावर्तन देखने को मिलने लगा जब वृहद् संरचनाओं की बजाय  सूक्ष्म संरचनाएं ज्यादा प्रभावकारी भूमिका निर्वहन करने लगीं। साहित्य जगत में खासतौर से हिन्दी लेखन में सोशल मीडिया पर सक्रिय रचनाकारों  ने  इस प्रवृत्ति को परम्परा के रूप में स्थापित किया।  स्याह –सफेद समीक्षा  लेखन अब तथाकथित  किसी भारी भरकम नाम का मोहताज न होकर एक सामान्य नाम होने की संभावना यथार्थ में परिवर्तित होने जा रही है ।

साहित्य की जीवन्तता तभी है जब  वह पाठक तक पहुचे और पाठक उसे पढ़ कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया दे। पुस्तक के बारे में अच्छा बुरा जो भी लिखे। समीक्षा के क्या मानक है यह अलहदा विषय है। आम पाठक ने पुस्तक पढ़कर क्या लिखा यह महत्वपूर्ण है। दरअसल मानक स्थापित करने के क्रम  में फिर वही व्यक्ति विशेष के ठप्पे की आवश्यकता होती है और साहित्य केन्द्रित और संकुचित होता जाता है। इस मायने में  फेसबुक के माध्यम से पुस्तकों पर आई  टिप्पणियाँ और सपाट समीक्षाएं भविष्य में इस बात  के लिए जानी जायेगी कि उसने पाठक से सीधा संवाद कर साहित्य के विकेंद्रीकरण का रास्ता खोला।  मेरे ख़याल से  काव्य/कथा संग्रह या अन्य किसी विधा में लिखी गयी साहित्यिक कृति  पर आधारित समीक्षाओं ने  पुस्तकों को पढने मात्र अथवा  शेल्फ या पुस्तकालय की शोभा बढाने की बजाय उस पर अध्ययन करने की  नई प्रवृत्ति का सूचक है। 

अज्ञेय ने १९४३ में तार सप्तक के प्रकाशन के साथ हिन्दी में प्रयोग वाद को स्पष्ट आकार दिया जो छायावाद और प्रगतिवाद की रुढियों की प्रतिक्रिया का परिणाम था।  हिन्दी साहित्य के प्रयोगवादी दौर के पश्चात टिप्पणी वाद  युग की शुरुआत हो रही है जो कि साहित्य में उस लौह पिंजरे के विरुद्ध प्रतिक्रिया का परिणाम है जिसमे साहित्य एक विशेष वर्ग के केंद्र में जमा हो जाता है। यह टिप्पणी वाद कोई तयशुदा मानक बनाने के पक्ष में नही है यह तो उस धारा  की हिमाकत करता है  जिसके अंतर्गत  आम जनता बड़े से बड़े रचनाकार की रचना की समीक्षा कर उसे पठनीय या अपठनीय निर्धारित करेगी न कि कुछ विशेष लोग अपनी साहित्यिक रुचियों और समझ के आधार पर जनता पर अपनी राय आरोपित करेंगे। जनता जो राय बनाए उसके आधार पर साहित्यिक लोकतंत्र की स्थापना हो हिन्दी साहित्य को इससे बेहतर अवदान भला और क्या हो सकता है। 

शनिवार, 10 सितंबर 2016

"हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता" : अभियान की अवधारणा ( प्रथम भाग)


जिस देश में  कोस कोस पे पानी और चार कोस पे बानी की बात कही जाती है, जहां १७९ भाषाओं ५४४ बोलिया हैं बावजूद इसके देश का  राजकाज सात समंदर पार एक अदने से देश की भाषा में हो रहा है , इस तथ्य पर मंथन होना चाहिए I भारतीय भाषायें अभी भी खुले आकाश में सांस लेने की बाट जोह रही हैं I हिन्दी को इसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी सर्वस्वीकार्यता हो I यह स्वीकार्यता आंदोलनों या क्रांतियों से नही आने वाला है I इसके लिए हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के रूप में विकसित करना होगा साथ ही अनुवादों और मानकीकरण के जरिए इसे और समृद्धता  और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा I

हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं की  समृद्धता  को उपयोगिता में बदलकर ही हम उन्हें शेष विश्व से प्रतियोगिता के लिए तैयार कर सकते हैं I हिन्दी में सभी भाषाओं के समन्वय की विशेष क्षमता है लगभग ढाई लाख मूल शब्द हिन्दी में है जोकि किसी अन्य भाषा में नही हैI हिन्दी के  अकादमिक व्यावसायिक स्वरुप के मानकीकरण से ही आगे के रास्ते खुलेंगेI हिन्दी  का भाषाई और तकनीकी रूप से अन्य भाषाओं के साथ कोई विरोध नही हैI बल्कि यह तो सभी भारतीय भाषाओं को पिरोनी वाली माला के धागे के रूप में है जिसमे समस्त भारतीय बोली भाषा के फूल टाँके हुए हैंI

दूसरी भाषाओं के प्रति असुरक्षा का माहौल बना देना शुद्ध रूप से  राजनीतिक मसला हैI इस  मसले को दिल्ली के गलियारे से निकल कर   देश की जनता के सामने रखा जाना चाहिए  ताकि वह  इसे हल करने के लिए आगे आए I एक उदाहरण से इसे और स्पष्ट तरीके से समझ सकते हैं, जब चुनाव होते हैं तो हर नेता अपने क्षेत्र की जुबान में वोट मांगता हैI इसका मतलब है कि जनता से सीधे जुड़ाव उनकी अपनी भाषा में ही हो सकता हैI ठीक  यही कोशिश होनी चाहिए जिससे  आजादी के उनहत्तर   साल बाद देश को  उसकी कोई एक जुबान मिल जाए, यह देश अपनी भाषा में बोलने लग जाएI

भारत की भाषाओं को संवर्धित करने के लिए केंद्र और राज्यों ने अनेको संस्थाओं अकादमियों का गठन किया हुआ है किन्तु ये संस्थाएं कुछ निहित व्यक्तिगत  राजनीतिक कारणों के चलते भाषा को वह योगदान नही दे पायी जिसके लिए इन्हें स्थापित किया गया थाI आपस में समुचित तालमेल न होने के कारण इन संस्थाओं के मध्य संघर्ष की स्थिति बनी रही फलस्वरूप भाषा के मुद्दे कहीं पीछे छूटते गये I  मेरा स्पष्ट मत है कि   हिन्दी अकादमियों, क्रांतियों और आंदोलनों,  कवि सम्मेलनों, पुस्तक विमोचनों अथवा विभिन्न अनुदानों के सहारे मात्र से आगे नही बढ़ सकती है I बिना आधार के सुधार की कल्पना भी नही की जा सकती I हिन्दी की  सशक्तता इस के   रोजगार, विज्ञान और तकनीकी की भाषा होने में निहित  हैI हिन्दी की सम्पूर्ण भारत में सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार्यता और क्षेत्रीय भाषाओं  के अधिकार को लेकर चेतनात्मक परिचर्चा का आयोजन न केवल चौदह सितम्बर बल्कि सम्पूर्ण वर्ष भर चलनी चाहिए I  विभिन्न बोलियों भाषाओं का परिरक्षण, संवर्धन और विकास करने, ज्ञान की विभिन्न शाखाओं से सम्बद्ध भारत तथा विश्व की विभिन्न भाषाओँ में उपलब्ध सामग्री का मानक हिंदी अनुवाद की व्यवस्था, सृजनात्मक साहित्य के प्रोत्साहन एवं प्रकाशन हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ ग्रन्थ बनाना इत्यादि  ऐसे आधार हैं जिन पर खड़ी होकर हिन्दी राष्ट्रभाषा के साथ विश्वभाषा का दर्जा प्राप्त कर सकती हैI   

हिन्दी को केन्द्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए देश भर में व्यापक संवाद हो  हिन्दी के प्रति जो भी पूर्वाग्रह फैले हैं या फैलाए गये हैं उन्हें ढूंढ कर उनका उन्मूलन अति आवश्यक है तभी हिन्दी भाषा की पुनर्स्थापना तभी हो सकती है I

 क्रमशः 




रविवार, 4 सितंबर 2016

भाषाई मुद्दे और आठवीं अनुसूची की प्रासंगिकता।


                                       

आठवीं  अनुसूची में भाषाओं को शामिल करने का वाकया जब पूर्व शिक्षामंत्री डॉ. कर्ण सिंह के समक्ष आया तो उन्होंने कहा कि संविधान में आठवीं अनुसूची होनी ही नही चाहिए। इससे खामखा बखेड़ा खड़ा होता है। उन्होंने देश की सारी  भाषाओं को वही अधिकार देने की बात कही जो किसी एक भाषा को प्राप्त है। डॉ केदारनाथ सिंह के हवाले से एक जानकारी मिली कि  एक छोटी सी भाषा जारवा, जिसे कुछ सौ लोग बोल रहे हैं,  आज पूर्णतया समाप्त होने के कगार पर है। यह अत्यंत दुर्भाग्पूर्ण स्थिति है क्योंकि  हम अभी भी यह तय नही कर पा रहे हैं कि किस भाषा को सबसे ज्यादा संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता है?  उसे जो कमजोर है, मरणासन्न है जो ज़िंदा रहने और अपने को बचाने की जद्दोजहद में है या उसे जो पक्षपाती सरकारी अनुदानों के खाद पानी की बदौलत अमरबेल की तरह छायी है और  अनावश्यक स्थान घेर रही है।

भाषाई मुद्दे पर पूर्व सरकारें कितनी उदासीन और लचर रही हैं यह इस बात से साबित होता है कि 1950 में बोलियों को अनुसूची में मान्यता देने के लिए कोई मापदण्ड तय नही किया था। इस अनुसूची 13 भाषाओं,  असमिया,बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मराठी, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु को रखने पर आम सहमति बनी तो पंडित जवाहरलाल नेहरु ने इसमें उर्दू को और जोड़ने को कहा और उसका आधार स्वयं को उर्दूभाषी के रूप में दिया इस तरह  जाने अनजाने में वह हिन्दी और उर्दू के बीच अलगौझे को संस्थात्मक रूप दे बैठे । अब यह अलगौझा विस्तृत आकार ले चुका है। सरकार को इस समस्या का फौरी समाधान भाषाई दबाव समूहों की बात  मानने में मिला और इस हेतु  वर्ष 2003  में आठवीं अनुसूची के अंतर्गत बोली भाषा उपभाषा विभाषा इत्यादि को शामिल करने के लिए करने के लिए डॉ. सीताकांत महापात्रा समिति का गठन किया। इस समिति की  संस्तुतियों को अंतर मंत्रालयी समिति को विचारणार्थ  भेजा जाता है जो  आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने हेतु प्रस्तावित भाषाओं के विकास एवं प्रयोग पर अध्ययन करके एक प्रतिवेदन सरकार को देती है। उसके बाद ही ये बोलियाँ,  भाषायें , उपभाषाएँ,  विभाषायें आठवीं अनुसूची में शामिल की जा सकती हैं। वर्तमान में भारत सरकार के पास इस संदर्भ में  भोजपुरी , छत्तीसगढ़ी, भोटी , लेप्चा , लिम्बू , कोड़व और टुलु, मिजो, राजस्थानी, टेंयीडी, भोटी समेत आठ आवेदन समीक्षा के लिए सरकार के पास पड़ें  हैं । किन्तु यह एक सैद्धांतिक बात थी परदे के पीछे की बात कुछ अलहदा रहे  जिसके निहितार्थ भाषा के व्याकरण उसके सौष्ठव के मापदंडों  से कहीं अलग थे।

भारत की जनगणना के अनुसार हिन्दी के अन्तर्गत 49 भाषा-बोलियां आती हैं। वर्तमान में जो हालात बन रहे हैं उनको देखकर लगता है कि आठवी अनुसूची को भोजपुरी राजस्थानी और भोटी भाषाएं मिलने जा रही हैं किन्तु इस मान्यता के साथ ही एक बड़ा आन्दोलन भी फूटने के कगार पर है अवधी,  बुंदेली को भी इस अनुसूची में शामिल करने की मांग धीरे धीरे जोर पकड रही है। बिहार में उमेश राय ने मैथिली और भोजपुरी के साथ-साथ बिहार की बज्जिका, अंगिका, और मघई को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की है। छत्तीसगढ़ी के लिए भी ऐसी ही मांग की जा रही है।  यह कहना कठिन नहीं कि ऐसी ही मांग कन्नौजी, ब्रज, पहाड़ी, गढ़वाली, कुम़ांऊनी तथा हरियाणवी भाषा भाषी अथवा उनके रहनुमाओं  के मन में पल रही  होगी। चुनावी राजनीति को देखते हुए तमाम भाषाई दबाव समूह भाषागत मुद्दे को लेकर सरकार से सौदेबाजी करेगे यह  तय है और सरकार को कोई न कोई  आश्वासन भी देना पडेगा साथ ही  अमल भी करना पडेगा  किन्तु असली सवाल तो तब भी यही है कि जारवा जैसी भाषाओं के  जिनके कुछ सौ वोट  हैं लेकिन जिनकी भाषा संस्कृति हजारों हजार साल पुरानी है उनके लिए सरकार क्या करेगी?

तुष्टिकरण किसी समस्या का समाधान नही वरन अपने आप  में ही  समस्याओं का बड़ा स्रोत है । कल्याणकारी राज्य की अवधारणा  तुष्टिकरण में  नही बल्कि समष्टिकरण में निहित है। भोजपुरी भाषा या किसी भी क्षेत्रीय भाषा को अनुसूची में शामिल करने को लेकर चले आन्दोलन को मुकाम तक पहुँचते देख तमाम  भाषाविदों की ओर से हिन्दी को बांटने और कमजोर करने के दिए गये तर्क अप्रासंगिक और आधारहीन हैं। निश्चित रूप से इस आन्दोलन से अन्य बोली भाषाओं को एक नई ऊर्जा मिलेगी जैसा कि मैंने पहले भी कहा पर रूपये और वोट से भाषाओं में समृद्धता आएगी यह एक अस्वीकार्य तथ्य है। आज सबसे ज्यादा आवश्यकता जिस बात  की है वह यह है कि आठवीं अनुसूची के विशेषाधिकार को समाप्त कर  सभी बोली भाषाओं के लिए “एक समान भाषा नीति” का निर्माण हो और उनकी जरूरत के हिसाब से सुविधाएं मुहैया करवाई जाएँ चाहे उस भाषा को एक व्यक्ति बोल रहा हो या एक करोड़। प्रजातांत्रिक व्यवस्था न्यायपूर्ण  और समान  वितरण के आधार पर निर्मित होता है। अगर सरकार को लगे कि किसी बोली भाषा को बचाने के लिए अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए तो उसके लिए भाषाई आरक्षण की व्यवस्था भी सुनिश्चित कि जानी चाहिए। लेकिन इस आरक्षण का आधार तार्किक और तात्कालिक हो।
हिन्दी को केन्द्रीय भाषा के रूप दर्जा  अधिकार दिया जाए ताकि पूरे देश में हिन्दी को राजकाज की भाषा, न्याय की भाषा, व्यापार, रोजगार  और शिक्षा की भाषा के रूप में लिखा पढ़ा जाए साथ ही साथ क्षेत्रीय भाषाओं को अधिकार मिले ताकि उनको विस्तृत आकार लेने का आकाश उपलब्ध हो। इससे हिन्दी को और भी विस्तार मिलेगा। भारत की सभी लिखित परीक्षाओं  एवं साक्षात्कार में अंग्रेजी की वरीयता ख़त्म हो एवं देश में हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं के लिये समुचित रोजगार व्यवस्था विद्यार्थियों के लिए सुनिश्चित किया जाय I अब वक्त आ गया है कि सरकार इस संदर्भ कुछ ठोस कदम उठाये नही तो देश भाषाई आधार पर एक और त्रासदी के  मुहाने पर खडा है।